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शंभूनाथ शुक्ल
धोलावीरा के इन खंडहरों और इनकी बनावट को देख कर लगता है कि संभवतः यह बस्ती कई बार बनी बिगड़ी। कम से कम तीन बार। इसीलिए ज़मीन पर जिस तरह की सभ्यता के अवशेष मिलते हैं। वे अलग हैं और उसके ऊपर के खंडहर अलग। इससे एक अनुमान यह लगाया जाता है कि यहाँ तीन बार लोग आए और फिर इधर से कहीं और चले गए।
अब यह भी हो सकता है कि वे बाहर के हमलावरों से बचाव के लिए यहाँ से चले गए या यह भी हो सकता है, कि यहाँ की यहाँ क्रूर प्राकृतिक जटिलता के चलते उन्होंने कहीं और बसेरा बनाया। हालाँकि लोथल में, खुदाई से जिस सभ्यता के अवशेष मिले हैं, उनमें और यहाँ की सभ्यता में काफी साम्य है। मनुष्य की नियति पलायन ही है। इसलिए हो सकता है, कि लोग आए और चले गए। जैसे-जैसे उन्हें बेहतर जमीन मिलती गई, वे जाते गए।
इससे एक निष्कर्ष तो निकला ही कि मनुष्य भारत में कहीं और से ही आया है, और कोई भी सभ्यता अपने को यहीं का होने का दावा नहीं कर सकती। यह दावा तो सिर्फ बन्दर ही कर सकते हैं। सभ्यताएं बनती-बिगडती रहती हैं। सभ्यताओं तथा समुदायों के बीच झगड़ा होता था, संग्रहीत भोज्य पदार्थों के लिए भी।
और जो टॉटेम प्राकृतिक रूप से एक-दूसरे के शत्रु होते हैं, उनमें हिंसक संघर्ष भी होता था। मसलन गरुड़ का साँप से बैर तो पौराणिक काल से है, आदि-आदि। ऐसी स्थितियों में सभ्यताओं का बनना-बिगड़ना स्वाभाविक था। आज तक मानव समाज की यही नियति चली आ रही है। आखिर इसीलिए तो संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं बनी हैं। इससे यह अनुमान ज्यादा सहज मालूम पड़ता है कि तीन सभ्यताएँ यहाँ आईं। इसीलिए तीन तरह के अवशेष मिलते हैं। ऐसा माना जाता है कि तीसरी सभ्यता यहाँ भूकंप के चलते नष्ट हुई।
अब बहुत कुछ इस पर निर्भर है, कि कैसे वह लिपि पढ़ी जाए! जिसके अवशेष हमने धोलावीरा में देखे। जब तक लिपि नहीं पढ़ी जाती, हम अँधेरे में तीर ही चलाते रहेंगे। लेकिन मनुष्य जैसे-जैसे विकास करता गया, उसके अन्दर की बुद्धि ने उसे इस दुनिया से इतर भी सोचने को प्रेरित किया। वह सोचने लगा-
"सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या कहाँ, किसने देखा था
उस पल तो अगम, अटल जल भी कहाँ था"
भले ये लाइनें यजुर्वेद से हों. लेकिन यजुर्वेद तक आते-आते मानव समाज ने तरक्की की कई सीढियां पार कर ली थीं। वैज्ञानिक विकासक्रम का बँटवारा यूँ करते हैं। सभ्यता की पहली सीढ़ी पुरा पाषाण काल। लेकिन चाहे वह वैज्ञानिक चिंतन हो या आध्यात्मिक, सच यह है कि हम मानव समाज के विकास क्रम को लेकर अभी साफ़ तौर पर कुछ नहीं कह सकते। सब कुछ अनुमान पर है।
वैज्ञानिक चिन्तन प्रकृति के स्वाभाविक बदलावों और अनुभव के आधार पर अनुमान निकालता है, जबकि आध्यात्मिक लोग सिर्फ जड़ बुद्धिवादी तरीके से। किंतु यजुर्वेद तक आते-आते मानव मन में ये सवाल खड़े होने लगे थे। यकीनन धोलावीरा की यह सभ्यता यजुर्वेद के पहले की ही होगी।
संलग्न चित्र पत्थर की पट्टिका पर दर्ज उसी लिपि का है, जो धोलावीरा में मिला है। इसके बाद हम लोग धोलावीरा से 15 किमी दूर कच्छ का रन और फ़ॉसिल देखने गए। वहाँ पर विशाल रन के पास एक टीले पर कुछ पत्थर पड़े थे, जिन्हें कँटीले बाड़ से घेर दिया गया था। यह एक टापू की शक्ल में है। और यहाँ के जीवाश्म (फासिल) देख कर यह अनुमान लगाया गया कि ये अवशेष जुरासिक काल के हैं। ऐसे जीवाश्म, जिनके समय का अंदाज़ लगाना मुश्किल होता है। ये जीवाश्म अब पत्थर के रूप में हैं।
जयमल भाई ने हमें बताया कि ये लंबे-लंबे और विशालकाय पत्थर उस समय के पौधों के जीवाश्म हैं, जब इस इलाके में विशालकाय डायनासौर थे। उनके चरने के लिए ये पौधे भी उन्हीं के आकार के थे। वडोदरा स्थित एमएस विश्वविद्यालय के भू-गर्भ विज्ञान विभाग ने इन जीवाश्म का काल-खंड करीब 187 से 176 मिलियन वर्ष आँका है। हालांकि लखनऊ के बीरबल साहनी वनस्पति विज्ञान संस्थान और देहरादून के वाडिया संस्थान ने इसकी प्राचीनता को कम कर आँका है। किन्तु न तो जयमल भाई को जीवाश्म के बारे में कोई ठोस जानकारी थी, और न ही मुझे कुछ समझ आ रहा था। इसलिए मैंने बस फोटो खींची। और गूगल सर्च कर इतनी बातें जान सका।
जीवाश्म को अंग्रेजी में फ़ॉसिल कहते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द "फ़ॉसिलस" से है, जिसका अर्थ "खोदकर प्राप्त की गई वस्तु" होता है। सामान्य: जीवाश्म शब्द से अतीत काल के भौमिकीय युगों के उन जैव अवशेषों से तात्पर्य है जो भूपर्पटी के अवसादी शैलों में पाए जाते हैं। ये जीवाश्म यह बतलाते हैं कि वे जैव उद्गम के हैं तथा अपने में जैविक प्रमाण रखते हैं। पृथ्वी पर किसी समय जीवित रहने वाले अति प्राचीन सजीवों के परिरक्षित अवशेषों या उनके द्वारा चट्टानों में छोड़ी गई छापों को जो पृथ्वी की सतहों या चट्टानों की परतों में सुरक्षित पाये जाते हैं उन्हें जीवाश्म (जीव+अश्म= पत्थर) कहते हैं। जीवाश्म से कार्बनिक विकास का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है। इनके अध्ययन को जीवाश्म विज्ञान या पैलेन्टोलॉजी कहते हैं।
विभिन्न प्रकार के जीवाश्मों के निरीक्षण से पता चलता है कि पृथ्वी पर अलग-अलग कालों में भिन्न-भिन्न प्रकार के जन्तु हुए हैं। प्राचीनतम जीवाश्म निक्षेपों में केवल सरलतम जीवों के अवशेष उपस्थित हैं किन्तु अभिनव निक्षेपों में क्रमशः अधिक जटिल जीवों के अवशेष प्राप्त होते हैं। ज्यों-ज्यों हम प्राचीन से नूतन कालों का अध्ययन करते हैं, जीवाश्म जीवित सजीवों से बहुत अधिक मिलते-जुलते प्रतीत होते हैं।
अनेक मध्यवर्ती लक्षणों वाले जीव बताते हैं कि सरल रचना वाले जीवों से जटिल रचना वाले जीवों का विकास हुआ है। अधिकांश जीवाश्म अभिलेखपूर्ण नहीं है परन्तु घोड़ा, ऊँट, हाथी, मनुष्य आदि के जीवाश्मों की लगभग पूरी श्रृंखलाओं का पता लगाया जा चुका है जिससे कार्बनिक विकास के ठोस प्रमाण प्राप्त होते हैं।
प्राणियों और पादपों के जीवाश्म बनने के लिए दो बातों की आवश्यकता होती है। पहली आवश्यक बात यह है कि उनमें कंकाल, अथवा किसी प्रकार के कठोर अंग, का होना अति आवश्यक है, जो जीवाश्म के रूप में शैलों में परिरक्षित रह सकें। जीवों के कोमलांग अति शीघ्र विघटित हो जाने के कारण जीवाश्म दशा में परिरक्षित नहीं रह सकते। भौमिकीय युगों में पृथ्वी पर ऐसे अनेक जीवों के समुदाय रहते थे जिनके शरीर में कोई कठोर अंग अथवा कंकाल नहीं था अत: फ़ॉसिल विज्ञानी ऐसे जीवों के समूहों के अध्ययन से वंचित रह जाते हैं, क्योंकि उनका कोई अंग जीवाश्म स्वरूप परिरक्षित नहीं पाया जाता, जिसका अध्ययन किया जा सके।
अत: जीवाश्म विज्ञान क्षेत्र उन्हीं प्राणियों तथा पादपों के वर्गों तक सीमित है जो फ़ॉसिल बनने के योग्य थे। दूसरी आवश्यक बात यह है कि कंकालों अथवा कठोर अंगों को क्षय और विघटन से बचने के लिए अवसादों से तुंरत ढक जाना चाहिए। थलवासी जीवों के स्थायी समाधिस्थ होने की संभावना अति विरल होती है, क्योंकि स्थल पर ऐसे बहुत कम स्थान होते हैं जहाँ पर अवसाद सतत बहुत बड़ी मात्रा में संचित होते रहते हों।
बहुत ही कम परिस्थितियों में थलवासी जीवों के कठोर भाग बालूगिरि के बालू में दबने से अथवा भूस्खलन में दबने के कारण परिरक्षित पाए गए हों। जलवासी जीवों के फ़ॉसिल होने की संभावना अत्यधिक अनुकूल इसलिए होती है कि अवसादन स्थल की अपेक्षा जल में ही बहुत अधिक होता है। इन जलीय अवसादों में भी, ऐसे जलीय अवसादों में जिनका निर्माण समुद्र के गर्भ में होता है, बहुत बड़ी संख्या में जीव अवशेष पाए जाते हैं, क्योंकि समुद्र ही ऐसा स्थल है जहाँ पर अवसादन सबसे अधिक मात्रा में सतत होता रहता है।
विभिन्न वर्गों के जीवों और पादपों के कठोर भागों के आकार और रचना में बहुत भेद होता है। कीटों तथा हाइड्रा वर्गों में कठोर भाग ऐसे पदार्थ के होते हैं जिसे काइटिन कहते हैं, अनेक स्पंज और डायटम बालू के बने होते हैं, कशेरुकी की अस्थियों में मुख्यत: कैल्सियम कार्बोनेट और फ़ॉस्फेट होते हैं, प्रवालों, एकाइनोडर्माटा, मोलस्का और अनेक अन्य प्राणियों में तथा कुछ पादपों में कैल्सियम कार्बोनेट होता है और अन्य पादपों में अधिकांशत: काष्ठ ऊतक होते हैं।
इन सब पदार्थों में से काइटिन बड़ी कठिनाई से घुलाया जा सकता है। बालू, जब उसे प्राणी उत्सर्जिंत करते हैं, तब बड़ा शीघ्र घुल जाता है। यही कारण है कि बालू के बने कंकाल बड़े शीघ्र घुल जाते हैं। कैल्सियमी कंकालों में चूने का कार्बोनेट ऐसे जल में, जिसमें कार्बोनिक अम्ल होता है, अति शीघ्र घुल जाता है, परंतु विलेयता की मात्रा चूने के कार्बोनेट की मात्रा के अनुसार भिन्न भिन्न होती है। चूर्णीय कंकाल कैल्साइट अथवा ऐरेगोनाइट के बने होते हैं। इनमें से कैल्साइट के कवच ऐरेगोनाइट के कवचों की अपेक्षा अधिक दृढ़ और टिकाऊ होते हैं। अधिकांश प्राणियों के कवच कैल्साइट अथवा ऐरेगोनाइट के बने होते हैं।