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टनल में मजदूरों ने 200 घंटे से ज्यादा काटे, प्रधानमंत्री ने क्रिकेटरों को आश्वासन दिया .... पूरा देश तुम्हारे साथ
आज के अखबारों के पहले पन्ने की खबरों का सार यही है। मुझे लगता है कि अखबारों ने टनल में मजदूरों के फंसन की खबर को पहले ही इतना महत्व दिया होता तो अभी तक उन मजदूरों को निकालने की कोई व्यवस्था हो गई होती। जब कई उपाय फेल हो गये और लगा की बचाव कार्यों का अंजाम वैसा नहीं है, जैसा होना चाहिये तो अखबारों में खबरों को प्रमुखता मिलनी शुरू हुई। टाइम्स ऑफ इंडिया ने आज पहले पन्ने की मूल खबर के साथ बताया है कि इस मामले पर प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री के बीच कुछ बात हुई है। अंदर इस खबर का शीर्षक है, इंतजार कर रहे रिश्तेदारों के भोजन और ठहरने का खर्च सरकार देगी। इसी खबर में बताया गया है, मुख्यमंत्री कार्यालय की एक विज्ञप्ति के अनुसार, प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री से यह कहा बताते हैं कि बचाव के लिए आवश्यक उपकरण और संसाधन केंद्र सरकार द्वारा पहुंचाये जा रहे हैं और केंद्रीय व राज्य की एजेंसियों के बीच आपसी तालमेल से मजदूर सुरक्षित निकाल लिये जायेंगे।
कहने की जरूरत नहीं है कि यह खबर या सूचना कुछ नहीं हो पाने के दबाव में है और दस दिन में जो हुआ है उससे इस आश्वासन का मतलब समझना मुश्किल नहीं है। इसीलिए मैंने ऊपर लिखा है कि अखबारों में यह खबर पहले से छप रही होती तो सरकार पहले से दबाव में होती। जहां तक सरकार के काम और उसके प्रचार की बात है, आज के अखबारों में छपा है, ड्रेसिंग रूम में जाकर पीएम ने भारतीय टीम को सांत्वना दी। कहने की जरूरत नहीं है कि मैच हारने के बाद जो सब हुआ उसकी आलोचना सोशल मीडिया पर हो रही है और लग रहा है कि खेल अब खेल नहीं रह गया है युद्ध बन गया है। नवोदय टाइम्स ने इस खबर को खेल पन्ने पर छापा है और सूचना पहले पन्ने पर है। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पहले पन्ने पर एंकर है। हिन्दुस्तान टाइम्स में भी सूचना है। इससे आप इस खबर को मिले महत्व या उसके लिए पड़े दबाव को समझ सकते हैं।
यही नहीं, हिन्दुस्तान टाइम्स की एक खबर के अनुसार प्रधानमंत्री ने राजस्थान में मतदाताओं से कहा है, कांग्रेस सनातन को खत्म करना चाहती है। पहले पन्ने पर ही राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलौत की खबर है, घृणा, एजेंसियों के दुरुपयोग की भाजपा की राजनीति का उल्टा असर होगा। आप जानते हैं कि राजस्थान में मतदान होने हैं और टनल में फंसे मजदूरों की खबर का असर सरकार के काम और आश्वासनों के रूप में लिया जा सकता है। इसलिए भाजपा या सरकारी पार्टी का परेशान होना स्वाभाविक है और ऐसे में प्रचार की खबरों को प्राथमिकता मिलने का कारण समझना मुश्किल नहीं है। मोदी सरकार के शासन में जब अखबारों पर सरकार का समर्थक होने का आरोप है और यह लगभग साबित हो चुका है कि बहुत सारे अखबार सरकार के खिलाफ खबरें छापने से बचते हैं, उन्हें कम महत्व देते हैं।
ऐसे समय में टनल में फंसे मजदूरों की खबर को अब कम महत्व देना संभव नहीं रह गया है और अब जब यह खबर विस्तार से पहले पन्ने पर छप रही है तो शीर्षक औऱ सूचनाओं को दी गई प्राथमिकता से समझा जा सकता है कि कौन कितना सरकारी बाजा बजा रहा है। इसलिए मैं बाकी खबरों के मुकाबले इस खबर को ज्यादा महत्व दे रहा हूं और बता रहा हूं कि मुख्यमंत्री कार्यालय विज्ञप्ति जारी कर बता रहा है कि प्रधानमंत्री ने इस मामले में क्या कहा है और दूसरी ओर वे खेल में हार गये खिलाड़ियों को आश्वासन दे रहे हैं। खबर दोनों है - मै बता रहा हूं कि किस अखबार ने किसे प्राथमिकता और महत्व दिया है। उदाहरण के लिए, फंसे मजदूरों को काफी समय तक सूखे फल, मेवे और गरी आदि भेजे गये। पर इससे बहुत दिनों तक काम नहीं चल सकता था और अंदर हवा की कमी से भी परेशानी थी।
इतने समय बाद यह व्यवस्था की जा सकी है कि बोतलों में खिचड़ी भेजी जा सकेगी। इन और ऐसी खबरों में यह महत्वपूर्ण है कि अंदर फंसे मजदूरों में से एक ने कहा है कि खाना भले मिल रहा है, हर दिन वहां रहना मुश्किल होता जा रहा है। पहले पन्ने पर टाइम्स ऑफ इंडिया की मूल खबर के साथ एक खबर यह भी है कि विदेशी एक्सपर्ट ने कहा है कि वे मजदूरों को जरूर निकाल लेंगे और प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा प्रस्तावित पांच सूत्री रणनीति पर विचार चल रहा है। अखबार की मूल खबर का शीर्षक है, "200 घंटे से भी ज्यादा के बाद 'लाइफलाइन' : छह ईंच की पाइप मजदूरों के लिए भोजन पहुंचायेगी"। द हिन्दू की खबर का शीर्षक है, उत्तरकाशी में बचाव दल खाना भेजने के लिए छह ईंच की पाइप लगाने में कामयाब रहा। इस खबर में एक उपशीर्षक बोल्ड में है, सरकार खर्च उठायेगी।
इस बारे में ऊपर भी लिख चुका हूं। मेरा मानना है कि ऐसी स्थिति में यह तो न्यूनतम जरूरत है और यह खबर नहीं है। सरकार को पहले दिन सुनिश्चित करना था और यह नियमों व करार में होना चाहिये कि जो कंपनी काम कर रही है वह यह सब सुनिश्चित करे और यह वैसे ही जरूरी है कि सरकार या कंपनी फंसे मजदूरों को सुरक्षित निकालने के बाद उनसे इसका खर्च नहीं मांगेगी। मांगेगी तो वह खबर होगी। अभी खर्च देगी यह खबर नहीं है। पर अमृतकाल में पत्रकारों पर दबाव रहता है कि वे सरकार के खिलाफ लिखें तो उसकी तारीफ भी करें और यह उस दबाव का असर हो सकता है। संपादक का निर्देश नहीं हो तो पत्रकारों को ऐसे दबाव में नहीं पड़ना चाहिये और प्रचार-खबर का भेद स्पष्ट होना चाहिये। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर दो हिस्सों में है। एक में बताया गया है कि फंसे लोगों के पास आवश्यक सामग्री पहुंचाने के लिए चौड़ा पाइप लगाया गया है और पांच निकास रूट पर फोकस है। दूसरी खबर बताती है कि फंसे हुए 41 लोग नियमित वाक, योग के साथ रिश्तेदारों से बात करके समय गुजार रहे हैं।
मुझे यह खबर भी प्रचार ही लग रही है। शीर्षक से ऐसा लग रहा है जैसे वे किसी पांच सितारा होटल के 41 कमरों या सुइट में फंसे हों। जहां योगा रूम और वॉकिंग ट्रैक भी है। कल्पना कीजिये कि उस छोटी सी जगह में 41 लोगों का 10 दिन का मल-मूत्र भी होगा। आम तौर पर हम बंद जगह में (बस या हवाई जहाज में) किसी एक व्यक्ति के वायु विसर्जन करने से परेशान हो जाते हैं। वहां लोग वाक और योग कर रहे हैं तो जल्दी कैसी होगी। पर कर रहे हों तो खबर है ही। एक्सप्रेस एक्सप्लेन्ड में कुछ सवालों का जिक्र है जिसका जवाब कोई भी चाहेगा पर वह बाद की बात है।
द टेलीग्राफ ने इस खबर को सात कॉलम में लीड बनाया है। फ्लैग शीर्षक है, उत्तराखंड टनल बचाव में अभी तक स्पष्टता नहीं है जहां 41 लोग 200 घंटे से ज्यादा समय से फंसे हुए हैं। इसके नीचे मुख्य शीर्षक है, चिन्ता को एक और विस्तार मिला। वाकई, खाना पहुंचाने के लिए चौड़ी पाइप लगाया जाना चिन्ता का विस्तार ही है। अगर वे पूरी तरह स्वस्थ और योग वॉक करके, मजदूरी से मुक्त मस्त भी हों तो उन्हें यह चिन्ता सतायेगी कि अभी कितने समय यहां ऐसे ही रहना है। एक मुख्य शीर्षक के साथ द टेलीग्राफ की दो खबरों में एक का शीर्षक है, नए विशेषज्ञ ने नई योजना बनाई। दूसरी खबर का शीर्षक है, टनल के अंदर चिन्ता का टाइम बम टिक-टिक कर रहा है। नवोदय टाइम्स ने इस खबर को पांच कॉलम में बॉटम बनाया है। शीर्षक है, सुरंग में फंसे मजदूरों की मदद को पहुंचे डीआरडीओ के रोबोट। इंट्रो है, मोदी ने ली रेस्क्यू ऑपरेशन की जानकारी।
इसमें कहा गया है, पीएम मोदी ने सोमवार को मुखयमंत्री पुष्कर सिंह धामी से फोन कर राहत और बचाव कारयों के बारे में जानकारी ली। अखबार ने डीआरडीओ के रोबोट की तस्वीर के साथ इसकी खासियतें भी बताई हैं। इसके साथ एक खबर का शीर्षक है, हाईकोर्ट ने पूछा, सुंरग से बाहर कब निकलेंगे मजदूर? यह सवाल एक पीआईएल पर पूछा गया है और 48 घंटे के भीतर जवाब मांगा गया है। पीआईएल से साफ है कि लोग राहत और बचाव कार्यों से संतुष्ट नहीं हैं पर यह खबर उस बारे में बताने की बजाय सरकार की कथित कोशिशों के बारे में बता रही है। यह बताये बगैर कि इससे कामयाबी मिलने की संभावना कितनी है। यह खबर लिखने की चलताऊ (शायद आधुनिक) शैली है जिसमें उपलब्ध जानकारी परोस दी जाती है और इस बात की परवाह नहीं की जाती है कि पाठक क्या जानना चाहता है।
मुझे लगता है कि यह सब हेडलाइन मैनेजमेंट की 10 साल की कोशिशों का यह असर है। शीर्षक तो छोड़िये, खबरों में भी सरकार की आलोचना या कटाक्ष ढूंढ़ने पड़ते हैं। अखबार सरकार के खिलाफ नहीं होते तो कोई बात नहीं थी। सरकारी प्रचार का कोई मौका नहीं चूकते हैं और आलम यह है कि क्रिकेट में हार के बाद जो सब हुआ उसकी आलोचना और संबंधित वीडियो सार्वजनिक होते के बाद नुकसान की भरपाई के लिए ड्रेसिंग रूम में जाकर आश्वासन देने की खबर छपवाई गई है। मैं गलत हो सकता हूं और संभव है अमृतकाल की पत्रकारिता ऐसी ही हो। मैं इमरजेंसी के दिनों में चला गया था। इमरजेंसी में नारा था, बातें कम, काम ज्यादा। इंडियन एक्सप्रेस की खबर का शीर्षक इससे जुड़ता लगता है, हार के बाद ड्रेसिंग रूम में प्रधानमंत्री का पेप टॉक: 'अच्छा खेले, पूरी कोशिश की'। इस खबर के साथ एक तस्वीर भी छापी है जिसका कैप्शन है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मोहम्मद शमी के साथ। यह फोटो नवोदय टाइम्स, हिन्दुस्तान टाइम्स में भी है।