संपादकीय

वनवासी नहीं आदिवासी! राहुल ने उठाया सही मुद्दा

Shiv Kumar Mishra
26 Nov 2022 11:20 AM IST
वनवासी नहीं आदिवासी! राहुल ने उठाया सही मुद्दा
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शकील अख्तर

Rahul's Bharat Jodo Yatra,: जो लोग कह रहे हैं कि गुजरात में एक दो मीटिंग करके क्या होगा? उन्हें पता होना चाहिए कि राहुल की दो सभाओं ने वहां प्रधानमंत्री मोदी की शब्दावली बदल दी। अब मोदी वहां आरएसएस के गढ़े शब्द वनवासी के प्रयोग के बदले आदिवासी शब्द का उपयोग कर रहे हैं।

यह राहुल की सफलता है। और इस बात का परिचायक कि राहुल और राहुल के आसपास के लोग अब राजनीतिक शब्दों को समझ रहे हैं। नहीं तो इससे पहले कांग्रेस के ही कई नेता वनवासी, समरसता, पंथनिरपेक्षता जैसे आरएसएस के गढ़े शब्दों का जाने अनजाने उपयोग करते रहे हैं।

शब्दों के खेल बहुत गहरे हैं। खासतौर पर दक्षिणपंथी और प्रतिगामी ताकतें इनके जरिए अपना राजनीतिक अजेंडा आगे बढ़ाती हैं। वनवासी एक ऐसा ही शब्द है। जो संघ और उसके सहयोगी संगठन जिनमें भाजपा भी शामिल है आदिवासियों के लिए करती है। वनवासी यानि जंगल में रहने वाला। जिसका एक अर्थ जंगली भी ध्वनित होता है। जबकि आदिवासी में साफ हमेशा से रहने वाले मूल नागरिक का अर्थ स्पष्ट होता है। राहुल ने अभी गुजरात में आदिवासियों की एक सभा को संबोधित करते हुए यही कहा कि आप इस देश के असली मालिक हैं। मगर भाजपा यह नहीं मानती। वह आपको वनवासी कहती है और आपके जल, जंगल और जमीन को अपने दो तीन उद्योगपति मित्रों को देना चाहती है। आप आदिवासी हैं। यहां के मालिक और हम आपको उसी रूप में देखते हैं।

इसके बाद प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात में एक सभा में अपना स्टेंड बदल लिया। और 58 बार आदिवासी शब्द का उपयोग किया। यह राहुल की बड़ी कामयाबी है। जैसे उनके सूट बूट की सरकार बयान का जबर्दस्त असर हुआ था और प्रधानमंत्री मोदी ने फिर अपना नाम लिखा वैसा सुट कभी पहना नहीं ऐसे ही वनवासी नहीं आदिवासी कहने का असर हुआ। और जब प्रधानमंत्री आदिवासी बोलने लगे तो राहुल ने मध्य प्रदेश में उनसे अभी तक वनवासी बोलकर आदिवासियों का अपमान करने के लिए माफी मांगने की मांग कर डाली।

प्रधानमंत्री के लिए यह दोहरी मुसीबत है। एक तो उनका मूल संगठन आरएसएस वनवासी शब्द छोड़ने को तैयार नहीं दूसरी तरफ राजनीतिक कारणों से अगर वे आदिवासी का उपयोग करते हैं तो राहुल इसे अपनी जीत की तरह लेकर और दबाव बढ़ा देते हैं।

दरअसल यह भाजपा के अंतरविरोधों के सामने आने का समय है। किसी भी विचारधारा के अंतरविरोध ज्यादा समय तक छुपे नहीं रह सकते। जो पार्टियां, विचारधारा सच की राजनीति करते हैं उनके सामने ऐसा संकट कभी नहीं आता है। मगर अर्ध सत्य की, अफवाहों की, तथ्यहीन बातें फैलाने की राजनीति करने वालों के सामने जब कोई बड़ा सत्य आकर टकरा जाता है तो न केवल उसके झूठ धराशायी हो जाते हैं बल्कि छुपे हुए अन्तरविरोध भी उजागर हो जाते हैं।

राहुल के सावरकर के माफी मांगने के दस्तावेज दिखाए जाने के बाद ऐसा ही हुआ। भाजपा के पास इसका कोई जवाब तो था नहीं तो उसने यह कहना शुरू कर दिया कि इसने भी माफी मांगी और उसने भी। इस रौ में वे शिवाजी महाराज से लेकर महर्षि अरविंद और फांसी पर झूल गए रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खान तक को घसीट लाए। प्रतिक्रियावादियों की सोच हमेशा यही होती है कि अगर हमारे नेता का कद उतना बड़ा नहीं है तो दूसरों के नेता का भी नहीं है। वे या तो दूसरे के नेताओं को जैसे सरदार पटेल, सुभाषचन्द्र बोस को अपनाने लगते हैं या दूसरों के नेताओं की लकीर छोटी करने में लग जाते हैं। जैसे नेहरू के खिलाफ पड़े रहते हैं। लेकिन इस तर्कहीनता की स्थिति में वे उन महान नायकों पर भी कीचड़ उछाल जाते हैं जो उल्टी उन पर पड़ती है। भाजपा के नेता रहे महाराष्ट्र के राज्यपाल कोश्यारी पहले भी बड़ी सुबह, रात में ही बिना बहुमत के फड़नवीस को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाने को लेकर विवादों में रहे। मगर अब तो उन्होंने महाराष्ट्र के सबसे बड़े नायक शिवाजी महाराज को ही पुराना बताकर उनकी जगह नए लोगों को आदर्श बनाने का घोर विवादित बयान दे दिया।

समस्या फिर वही है कि अपने कोई नायक हैं नहीं हैं। इसलिए कभी इसमें तो कभी उसमें अपनी प्रतिक्रियावादी विचारधारा की छवि ढुंढते हैं। यही उनके अन्तर विरोध हैं। अगर कोई नेता उनका है जैसे हेडगेवार, गुरु गोलवलकर, वाजपेयी तो उनके विचारों और व्यक्तित्व की बात करना चाहिए। लेकिन उन्हें महत्व देने के बदले वे सरदार पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, लालबहादुर शास्त्री की बात करते हैं। खास तौर पर नेहरू का कद छोटा दिखाने के लिए। मगर ये तीनों नेहरू को अपना नेता और भाई मानते थे। और नेहरू इन तीनों को ही नहीं भाजपा के, उस समय जनसंघ के श्यामाप्रसाद मुखर्जी जिन्हें अपने मंत्रिमंडल में लिया और अटलबिहारी वाजपेयी जिन्हें वे भविष्य का नेता बताते थे को अपना स्नेह और समर्थन देते थे।

राजनीति प्रेम, विश्वास और समावेशी तरीके से ही चलती है। ऩफरत और विभाजन की राजनीति के अन्तरविरोध अपने आप सामने आने लगते हैं। ऐसे ही शब्दों के जरिए लोगों को भ्रमित करने की अपनी एक सीमा होती। जैसे अभी गुजरात में चुनाव हैं और वहां करीब 15 प्रतिशत आदिवासी हैं। 27 सीटें उनके लिए आरक्षित हैं। ऐसे में सही समय पर राहुल ने वनवासी शब्द पर चोट की। आदिवासी भी इसे पसंद नहीं करते हैं। मगर उनके बीच काम करने वाले संघ के सारे संगठन वनवासी परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम सबमें वनवासी शब्द का ही उपयोग होता है। झारखंड आंदोलन के दौरान भी इस पर बड़ी बहस हुई थी। मगर चुनाव के समय राजनीतिक नेता द्वारा कोई बात उठाए जाने का अलग ही असर होता है। और वह दिख गया।

दरअसल शब्दों के खोल में असली अर्थ छुपे होते हैं। शब्द इतने सीधे शरीफ नहीं होते। भाजपा ने तुष्टिकरण शब्द देकर इसका बहुत राजनीतिक लाभ उठाया है। यह आडवानी का दिया शब्द था। ऐसे ही छद्म निरपेक्षता। कांग्रेस पर आरोप लगाने के लिए। भाजपा के ध्रुवीकरण के खेल में इन दोनों शब्दों ने बहुत मदद की है।

इसी तरह दलितों के समानता के अधिकार को कमजोर करने के लिए संघ ने समरसता शब्द को लाया। जिसका अर्थ समानता के बिल्कुल विपरित है। मगर कांग्रेस, लेफ्ट के साथ दलित नेता भी बिना इसका असली अर्थ को समझे इसके जाल में फंस गए। लेकिन केन्द्र में मोदी सरकार के समर्थक केन्द्रीय मंत्रि रामदास अठावले ने इस शब्द की पोल खोलते हुए प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। और कहा कि सरकारी काम में यह स्वीकार्य नहीं है। इसके बदले समानता शब्द का उपयोग किया जाए। दरअसल समरसता का अर्थ है दलित अपनी स्थिति में ही रहते हुए बाकी समाज के साथ समरस हो जाए। परिवर्तन का विरोध है। यथास्थितिवाद की तरफ धकेलना है। सामाजिक न्याय और समानता जैसे परिवर्तनकारी शब्दों को विलुप्त करके उनके बदले समरस को लाना है। जिसका मतलब है समाज में अपने निर्धारित पायदान पर ही बने रहकर उपर से आने वाली कृपा से संतुष्ट रहें।

ऐसे ही धर्मनिरपेक्षता के बदले संघ पंथनिरपेक्षता इस्तेमाल करती है। कांग्रेसी भी करने लगे। इसका अर्थ भी वही है कि संघ कोई दूसरा धर्म मानता ही नहीं है। सब हिन्दू हैं का तर्क देता है। उसीमें सारे पंथ हैं। इसीलिए पंथनिरपेक्षता!

खैर इन सबके तो राजनीतिक कारण हैं मगर शब्द बदलने के इस खेल में कभी कभी चमत्कार दिखाने के लिए भी शब्द बदल दिए जाते हैं। जैसे विकलांग का दिव्यांग।

लेकिन ज्यादतर शब्द बदलने का खेल ऱाजनीतिक लाभ के लिए होता है। जैसे एक गरीब विरोधी शब्द रेवड़ी बांटना। अब कोई भी सरकार के लिए गरीब, कमजोर की सहायता करना मुश्किल होगी। उसे जनकल्याणकारी काम कहने के बदले अपमानजनक शब्द रेवड़ी बंट रही है कहा जाने लगा है।

राहुल ने फिलहाल तो शब्दों के इस गुब्बारे को ठीक से पंचर किया है। अगर आगे समझेंगे तो मालूम पड़ेगा कि कांग्रेस कभी सबसे ज्यादा प्रगतिशील शब्द का इस्तेमाल करती थी। पूरी राजनीतिक लड़ाई ही प्रगतिशीलता बनाम प्रतिक्रियावाद थी। दक्षिणपंथियों को प्रगति के नाम से भी चिढ़ है। दिल्ली में मेट्रो के स्टेशन प्रगति मैदान का नाम बदलकर सुप्रीम कोर्ट रख दिया गया है। शब्द गरीब समर्थक, आगे बढ़ाने वाले भी होते हैं और गरीब विरोधी पीछे ले जाने वाले भी।

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