संपादकीय

कोरोना आपदाकाल में कहां हैं हमारी 'सिविल सोसायटीज'? विचारणीय मुख्य प्रश्न?

Shiv Kumar Mishra
17 April 2021 4:21 AM GMT
कोरोना आपदाकाल में कहां हैं हमारी सिविल सोसायटीज? विचारणीय मुख्य प्रश्न?
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इस महाआपदाकाल में हमारी सिविल सोसायटीज, विभिन्न राष्ट्रवादी संघ,तथा 'सेवादल' जैसे सेवाभावी महाकाय जमीनी संगठन आखिर कहां दुबके पड़े हैं?

आजादी के पूर्व प्लेग की महामारी से उबरने में हमारी सिविल सोसायटीज ने निभाई थी महत्वपूर्ण भूमिका,

समाजसेवी संस्थाएं कहलाने वाली लाखों एनजीओज़, कौशल विकास प्रशिक्षण देने वाली बहुसंख्य संस्थाएं, इस महामारी से महासमर में कहां हैं ?

दवाइयां मिल नही पा रही हैैं, वैक्सीन समाप्त हो गई है, अस्पतालों में ना बेड हैं ना वेंटिलेटर हैं। हम जहां साल भर पहले खड़े थे, आज उस से भी बदतर स्थिति में हैं,

लोग कीड़े मकोड़ों की तरह पटापट मर रहे हैं, और राज्य सरकारें तथा केंद्र सरकार एक दूसरे पर दोषारोपण कर, राजनीतिक फुटबॉल खेलने में व्यस्त हैं,

देश के लोग दवाई तथा वैक्सीन के लिए तरस रहे हैं जबकि कंपनियां सरकार की मिलीभगत से इन्हें निर्यात कर चादी काट रही हैं

आज हम सब बेहद असाधारण परिस्थितियों में सांसें ले रहे हैं। जिस तरह हमारे चारों ओर कोरोना फैला हुआ है,और जिस तरह दिन- प्रतिदिन हमारे प्रियजनों, मित्रों रिश्तेदारों, जानकारों को एक-एक कर हमसे छीन रहा है, उससे जीवन तथा मृत्यु को लेकर हमारी सारी स्थापित मान्यताएं ध्वस्त होते जा रही हैं। आज मानवता अपने सबसे कठिन परीक्षा के दौर से गुजर रही है।

वैश्विक महामारी कोरोना ने हमारे देश में लगभग सभी सिविल सोसाइटीज के अस्तित्व को ही बेमानी साबित कर दिया है। देश की नागरिक सुरक्षा संस्थाएं आखिर कहां हैं और क्या कर रही हैं? समूचे एक साल का अनमोल समय गंवाने के बावजूद कोरोना से मुकाबले में आज हम पहले से भी बदतर स्थिति में आखिर क्यों हैं?

कोरोना से बचाव के मामले में हम अनमने, अवैज्ञानिक तरीके से, विकसित देशों की आधी अधूरी नकल करने की कोशिशों के अलावा एक कदम भी आगे नहीं बढे हैं। हमारे हरावल दस्ते के सेनापति, नेतागण इससे लड़ने की कारगर कार्य नीति बनाने तथा इस पर समुचित सटीक वार करने के बजाए आपदा में अवसर अर्थात राजनीति, सत्ता, व्यापार, मुनाफे के अंतहीन लालच के मकड़जाल में उलझे हुए हैं। फलत: आज भी हमारे पास आपदा प्रबंधन की कोई बहु-आयामी कारगर रणनीति तैयार नहीं है, जबकि यह स्थापित तथ्य है कि,"असरदार आपदा प्रबंधन के लिए समुदाय आधारित आपदा तैयारी प्रमुख है."।

हमें अतीत की आपदाओं से भी सबक़ सीखने की जरूरत थी, ओडिसा ने सन 1999 में सुपर साइक्लोन का सामना किया था जिसमें दस हजार से भी ज्यादा लोगों की मौतें हुई थी, इसके बाद यहां की नागरिक सुरक्षा समितियों ने जबरदस्त तरीके से बचाव कार्य किया था। पर अफसोस हमने न अतीत से कुछ सीखा न वर्तमान से।

यह सच है कि, कोरोना के चलते,आज देश-विदेश में जिस तरह के हालात हैं, ऐसे अभूतपूर्व हालातों से वर्तमान जीवित पीढ़ियां कभी रुबरु नहीं हुई हैं,और ऐसी किसी भयावह बहुआयामी वैश्विक त्रासदी का उदाहरण इतिहास में भी नहीं मिलता है।

देश की 94% से अधिक आबादी आज भी वैक्सीन व दवाइयों के लिए तरस रही है। पर हमारे देश की दवा कंपनियांआपदा में अवसर ढूंढ कर वैक्सीन व दवाइयों को निर्यात कर तिजोरी भरने में लगी हुई हैं। यह धतकरम बिना सरकार से मर्जी,मिली भगत या अनुमति के नहीं हो सकता। पर यह हुआ,जबरदस्त तरीके से हुआ और आज भी डंके की चोट पर हो रहा है, जबकि दूसरी ओर दवाइयों की कालाबाजारी रोकने के लिए गैर जमानती वारंट तथा जेल तक के कठोर कानूनी प्रावधान भी बनाए जा रहे हैं, फिर भी कालाबाजारी जारी हैं। दरअसल जब सरकार स्वयं, ऐसे हालातों में आपदा में ऑप्शन ढूंढने का नारा देकर, अपने देश के नागरिकों की जान की परवाह बिना किए कंपनियों की तिजोरी भरने के लिए , दवाइयां व वैक्सीन निर्यात करने की अनुमति देती है, तो इस तरह की कालाबाजारी रुकने से रही।आज अस्पतालों में पर्याप्त मात्रा में ना बेड हैं, ना दवाइयां है, ना वेंटिलेटर है। वैक्सीन की विश्वसनीयता पर भी भी संदेहों के घेरे हैं। दोनों वैक्सीन लगाने के बाद, लगातार मास्क तथा सेनीटाइजर का उपयोग करते रहने के बावजूद देश के सर्वोच्च अस्पतालों के दर्जनों डॉक्टर्स कोरोना से पीड़ित हो गए हैं। छत्तीसगढ़ में तो स्वास्थ्य विभाग के संचालक डॉक्टर साहब पूर्व में कोरोनावायरस पाज़िटिव हुए, फिर ठीक भी हुए, और वैक्सीन की दोनों डोज लगवाने के बावजूद फिर से कोरोना ग्रस्त हो गए और अंततः सारे प्रयासों के बावजूद बचाए भी नहीं जा सके। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि, कहीं यह प्रयोगशालाजन्य असाध्य बीमारी, इसके इलाज की ये तमाम दवाइयां और वैक्सीन केवल आपदा में अवसर ढूंढने की कंपनियों की प्रयोगशालाओं तथा विभिन्न संस्थाओं के साथ मिलकर की गई विश्वव्यापी गहरी फुलप्रूफ साजिश तो नहीं?

एक ओर जहां डॉक्टर्स , नर्सेज, स्वास्थ्य कर्मचारी, पुलिस कर्मी अपवादों को छोड़ कर, सभी अपनी जान जोखिम में डालकर अभूतपूर्व वीरता से चौबीस चौबीस घंटे काम करते हुए इस महामारी से जूझ रहे हैं, और शहीद भी हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हमारी सरकारें पूरी तरह से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई हैं। केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों में ऐसी भयावह महामारी से लड़ने के लिए जो समन्वय तथा टीम भावना होनी चाहिए उसका नितांत अभाव है। राज्य सरकारें केंद्र सरकार पर संसाधनों के बंटवारे में भेदभाव का तथा गलत बयानी का आरोप लगा रही है वहीं केंद्र सरकार राज्य सरकारों पर केंद्र की नीतियों तथा योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन व संसाधन का समुचित प्रबंधन न कर पाने का दोषारोपण कर रही है। दोनों पक्ष एक ओर तो तो जनता के ऊपर लापरवाही का आरोप लगाकर अपनी जिम्मेदारियों से बच रहे हैं, दूसरी ओर एक दूसरे के पाले में नाकामी की गेंद डालकर अपनी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं। इस राजनैतिक फुटबॉल में, मैदान की घास की तरह बेचारी बेबस जनता बेतरह रौंदी जा रही है।

कैसी विडंबना है कि देश की जनता इस महामारी से कीड़ों मकोड़ों की तरह पटापट मर रही है, शमशान अटे पड़े हैं। अस्पतालों में जगह नहीं है। बावजूद इसके यह सरकारें तथा राजनैतिक पार्टियां, इसके लिए जनता को ही जिम्मेदार ठहरा कर, पूरी बेशर्मी से सत्ता की कुर्सी दौड़ के खेल में व्यस्त हैं।सारी पार्टियां बस चुनाव लडने लड़ाने में लगी हुई हैं।

इस महामारी से जनता की जान बचाने की कारगर कोशिशें करने के बजाए, सरकार जनहित में तीव्र गति से अधिकाधिक श्मसान बनाकर देने कि बात कर रही है, यहां यह भी गौरतलब है कि, हाल में ही देश की राजधानी में जो एक नवनिर्मित श्मशान भवन के ढह जाने से पच्चीस लोगों की मौत हो गई थी, उसके निर्माता ठेकेदार ने सरकार को 40% तक कमीशन देने की बात खुलेआम स्वीकारी थी, यानी कि आपदा में अवसर ढूंढने के लिए हम शमशान तक जाने को तैयार हैं। सरासर लानत है इस प्रवृत्ति पर।

आज के दौर की महती आवश्यकता है कि देश की सभी राजनैतिक पार्टियां मिलजुल कर इस आपदा का सामना करें, लेकिन आज भी यह पार्टियां अपने राजनीतिक दुराग्रहों में कैद हैं तथा सत्ता के लिए कुत्ते बिल्लियों की तरह लड़ रही हैं, तथा उस जनता-जनार्दन को, जो इन्हें लगातार सिंहासनों पर आसीन करती रही है, महामारी के फैलने का ठीकरा उस उसी के सिर पर फोड़ कर, उसे निरुपाय मरने के लिए छोड़ दिया है।

विश्व का सबसे बड़ा सिविल सोसायटी संगठन होने का दावा करने वाले राष्ट्रवादी संगठन जो दशकों से रोज सुबह हवा में लाठियां भांजते रहे हैं, आज इस आपदा से मुकाबले में यह कहां दुबके हुए हैं ? जबकि आज लोगों को जागरूक करने, पीड़ित मानवता की सेवा में इनके अनुशासित विशाल जमीनी संगठन की इस मुकाबले में महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका हो सकती है? देश को आजाद कराने का दावा करने वाली व सत्ता पर सबसे लंबे समय तक आसीन पार्टी का वह गौरवशाली जमीनी संगठन "सेवादल" कहां है? जिसने प्लेग की महामारी के समय गांवों तथा शहरों की गली कूचों में, घर-घर जाकर अभूतपूर्व सेवा कार्य किया था? क्या यह संगठन अब मात्र 15 अगस्त तथा 26 जनवरी को गांधी टोपी पहन कर झंडारोहण कार्यक्रम में शिरकत करने तक ही सीमित रहेगा? इस महा विपत्ति में विश्व के सबसे बड़ी सदस्य संख्या वाली पार्टी का दावा करने वाली, अनुशासित केडर वाली पार्टी का वह अपरिमित केडरबल कहां है भला ? क्या वह केवल गलाबाज नेताओं की रैली-सभाएं करने तथा बूथ प्रबंधन हेतु ही सक्रिय होगा? कहां बिला गईं वह सारी बजटजीवी तथाकथित समाजसेवी एनजीओज़ जो पिछले कई दशकों के देश के सकल बजट का एक बड़ा हिस्सा चट कर गई हैं। कौशल विकास के कार्य में लगी राज्य सरकार तथा केंद्र सरकार में पंजीकृत सभी अनगिनत एनजीओज़ को कोरोना के बचाव का व्यावहारिक प्रशिक्षण देने में युद्ध स्तर पर क्यों नहीं लगा दिया जाता। यह सवाल भी क्यों नहीं उठाया जाना चाहिए, कि इतनी सारी प्रयोगशालाओं तथा डॉक्टरों, वैज्ञानिकों के बावजूद, हमारा भारी-भरकम स्वास्थ्य मंत्रालय तथा आयुष मंत्रालय द्वय कोरोनावायरस को नियंत्रित करने की अचूक कारगर आयुर्वेदिक औषधियों का विकास क्यों नहीं कर पाया है? इस ट्विन मंत्रालय के खाते में कोरोना से बचाव के लिए दादी अम्मा के परंपरागत काढ़े की सलाह तथा बाबा रामदेव को गोद में बिठा कर उन्हें और उनकी दवाइयों को क्लीनचिट देने के अलावा और कोई उपलब्धि आखिर क्यों नहीं है?

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि जब देश का समग्र प्रशासन स्वास्थ्य विभाग तथा अन्य सभी विभाग इस महामारी से जूझने के लिए एकजुट तथा सक्षम नहीं हो पा रहे हैं, ऐसे में देश की सिविल सोसाइटीज को आगे बढ़कर अपनी सक्रिय व प्रभावी जिम्मेदारी निभानी होगी। इस आपदा में अब अवसर ढूंढने के बजाय हम सबको इससे लड़ने हेतु निस्वार्थ एकजुटता बनानी होगी। केंद्र तथा राज्य में, सरकारी विभागों में, सिविल सोसायटीज, समाजसेवी संस्थाओं में परस्पर समन्वय स्थापित करना प्रथम प्राथमिकता होनी चाहिए। इन समस्त संस्थाओं को, तथा देश चलाने वालों को यह याद रखना चाहिए कि राष्ट्र केवल भूमि का टुकड़ा नहीं होता है राष्ट्र अपनी जनता से होता है, और आज इस महामारी की मार से यह जनता बेबस जरूर है, लेकिन यह सभी के आचरण तथा क्रियाकलापों को बारीकी से देख परख रही है, और उनकी इस दौर की चूकें निश्चित रूप से भावी इतिहास में दर्ज होगी, बशर्ते की इतिहास लिखने और पढ़ने के लिए आने वाली पीढ़ी इन षड्यंत्रों से, प्राकृतिक प्रकोपों से, महामारियों से सुरक्षित बची रहे।।

यह समझ से परे है कि,आखिर हम इस बिंदु पर क्यों शोध नहीं करते कि खानपान तथा रहन-सहन की वह कौन सी विशेषता है कि,आज भी हमारे वनवासी,जनजातीय समुदायों में, धुर ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना अपना मारक प्रभाव क्यों नहीं दिखा पाता है। हमने बस्तर के कई सुदूर गांवों का भ्रमण व सर्वेक्षण किया और पाया कि कोरोना के तमाम बदलते घातक स्वरूपों से राष्ट्रीय राजमार्ग से करीब 10 किलोमीटर दूर, गांवों में रहने वाला हमारा जनजातीय समुदाय लगभग शतप्रतिशत इस महामारी की मारक क्षमता से बचा हुआ है। आखिर वह कौन सा रक्षा कवच है तथा अमोघ अस्त्र है इन जनजातीय समुदायों के पास। प्रकृति के साथ सहजीवन कि इनकी जीवनशैली से हमें अभी बहुत कुछ सीखने समझने और अनुकरण करने की जरूरत है। । भविष्य को लेकर मनुष्य इतना आशंकित कभी नहीं रहा है। हमारे इर्द-गिर्द कोरोना के आकस्मिक झपट्टे के शिकार साथियों का हश्र को देखकर तो यह भी दावे से नहीं कहा जा सकता, कि ,मैं भविष्य में फिर कभी अपने लेख के जरिए आप से निश्चित रूप से आपसे मिलूंगा ही। हालांकि चट्टान पर उगने वाली दूब की आशावादिता अभी भी पूरे यकीन के साथ मुझमें कायम है, सो उम्मीद अभी जिंदा है, कि इन कठिन हालातों की काली रात का अंत जल्द होगा, तथा नई आशाएं लेकर नया सूरज उगेगा ,और जब तक ये पृथ्वी रहेगी, तमाम दुश्वारियों के बावजूद हमारी मानव सभ्यता तथा मानवता ज़िंदा रहेगी और फलते, फूलते रहेगी।

लेखक डॉ राजाराम त्रिपाठी राष्ट्रीय संयोजक अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)

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