माता शबरी में ने श्री राम को बेर ही क्यों खिलाये? जानिए पूरा रहस्य
माता शबरी कोई सामान्य भील राजकुमारी नहीं थीं। वे आज के समय के Physician और Psychiatrist के समान जानकारी रखती थीं। उन्होंने सीता को ढूँढने में विह्वल राम को बेर ही क्यों खिलाए? बेर में ज़बर्दस्त एंटीकॉन्वल्सेन्ट गुण और न्यूरो प्रोटेक्टिव गुण होते हैं। जो आक्सीडेटिव स्ट्रेस को कम करता है। इसमें तनाव से लड़ने की क्षमता में वृद्धि करता है। साथ ही यह दिमाग की न्यूरॉनल कोशिकाओं की रक्षा भी करता है। दिमाग को शांत और नींद में सुधार कर मस्तिष्क की कार्यप्रणाली में सुधार कर सकता है। विचारणीय है कि क्या वे अन्य कोई फल या आहार नहीं दे सकती थीं?
आश्रम में ऐसा तो नहीं कि कुछ और आसानी से नहीं उपलब्ध हो सकता होगा! फिर कांटों के बीच तोड़े जाने वाले जंगल के बेर ही चुने? माता अच्छी तरह समझ सकती थीं कि सीता के विरह में वन - वन भटकते राम कैसी मानसिक और शारीरिक वेदना अनुभव कर रहे होंगे। तभी तो उन्होंने आहार के रूप में सर्वथा उपयुक्त औषधि को ही दिया। आज का विज्ञान इसे आधुनिक मेडिकल भाषा में कहता है -
बेर के बायोमोलिक्यूल एंटी इन्फ्लेमेट्री होते हैं। और इसके गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल लाभ भी कम नहीं। इसमें एंटीमाइक्रोबियल प्रभाव ज़बर्दस्त होता है, जो बैक्टीरियल ग्रोथ को रोकता है।
शरीर डिटॉक्स के लिए यह आज भी कितने ही रिसर्च में पास हुआ है। आर्सेनिक, लेड और कैडमियम जैसे हानिकारक टाॅक्सिक पदार्थ में कमी करने में कारगर है, यह बात भी सिद्ध हो चुकी है। राम के शरीर को ऊर्जा देने के लिए ही नहीं बल्कि उनके मन को भी शक्ति प्रदान करने के लिए बेर से उपयुक्त और क्या हो सकता था भला! क्या अब भी आपको लगता है कि माता शबरी ने एक - एक बेर खुद चखकर बेर अकारण ही राम को खिलाए! मुझे तो यहाँ चखने में भी आयुर्वेद के रस सिद्धांत के क्रमानुसार व्यवस्थित करना दृष्टिगत होता है।
मीठे, खट्टे और कसैले का क्रम
जो सहज ज्ञान का विषय लग सकते हैं
किन्तु भूमिका में अति महत्वपूर्ण है।
अंततः यह भाव की ही बात है।
राम मन से शांत और सहज हों,
उनके विषाद और विकार दूर हों।
यही भाव, पूरे प्रसंग के मूल में दिखाई देता है।
आप इसे भाव से देखें या तर्क और तथ्य विश्लेषण से।
भाव में भी रस ही होते हैं और फल में भी वही।
दोनों मिलकर बहुत कुछ जादुई कर सकते हैं।
भाव से रस उत्पन्न हो या भोजन से...
अंततः उपचार तो वही करता है।
सनातन में सृष्टि का, कर्मकांड, पूजा का ही नहीं
भावना का भी विज्ञान होता है।
ज्ञान को जब व्यवस्थित क्रमबद्ध समझ लिया जाता है तो वह विज्ञान हो जाता है।
जिन्हें जो भाषा भली लगे उसमें समझ लें....... अंत में तो सब 'रस' ही है।
रसो वै सः॥
माता शबरी महान ऋषिका थीं।
सनातनियों की सम्माननीय हैं, पूज्यनीय हैं।
किन्तु आधुनिक तंत्र में वे मात्र दलित भीलनी कही जाएंगी।
विचारणीय है कि अपमान और निरादर कहाँ हो रहा,
तब या अब?