मनीष सिंह ICICI के मालिक का नाम बताइये। ये सरकारी PSU था, मनमोहन ने बेच दिया था। वही खरीदने वाले का नाम बताइये। बालको भी एक PSU था, अटल ने बेचा। आप उसके मालिक का नाम मिनटों में बता देंगे।पर ICICI के मालिक का नाम खोजते रह जाओगे, न मिलेगा।कुछ शब्द मोटा मोटा समझ लीजिए।1- डिसइन्वेस्टमेंट- याने आपके पास साइकल थी। आपने इसका कैरियर बेच कर दिया। अब साइकल के मालिक तो आप ही है। कैरियर का पैसा देकर कोई इस्तेमाल करे, तो कर ले। जैसे SBI के शेयर जनता के पास हैं। लेकिन 20-30% ...बाकी सरकार के ही पास है। तो मालिक सरकार ही है, आप नही। ये हुआ डिस इन्वेस्टमेंट।2- प्राइवेटाइजेशन- आपने सायकल बेच दी, बस कॅरियर रखा। या वो भी न रखा। याने इस केस में पूरी तरह से "मालिक बदल गया"। नाउ साइकल इज नॉट योर्स3- मोनेटाइजेशन- आपने सायकल को आरी से काटकर भंगार के भाव, चक्का अलग, सीट अलग, कैरियर अलग अलग बेच दिया।ये सभी विनिवेश कहलाते है। पहला तरीका मनमोहन का, दूसरा अटल का, तीसरा मोदी सरकार का है।होशियारी यह हो सकती है, कि आप सारे पुर्जे खोलकर, अलग अलग समय पर, सारे एक ही आदमी को भंगार के भाव बेचें। वो खरीदकर चुपके से वापस पूरी सायकल बना ले।जब अडानी दुनिया के दूसरे नम्बर के अमीर बने। तब टोटल वेल्युएशन थी, कोई 7.5 लाख करोड़। मगर भारत में आधा दर्जन सरकारी कम्पनी ऐसी है, जिनकी वेल्युएशन 10-20-30-40 लाख करोड़ है। गूगल करना आपका काम है। क्योकि उन कम्पनियों के मालिक आप हैं। भले आपका नाम फोर्ब्स में न आता हो।ICICI याने इंडस्ट्रियल क्रेडिट एंड इन्वेस्टमेंट कारपोरेशन ऑफ इंडिया। 1955 में बना था, देश में छोटे, मझोले उद्योग बढाने को। आजकल माइक्रोफाइन्स वालो को देखा होगा। वे रेहड़ी वाले, ठेले वाले, अन्य मेहनती गरीब खोजते हैं। उनको बिना कुछ गिरवी रखे, लोन देते हैं। ताकि वह आगे बढ़ सके।ICICI भी अपने जमाने का माइक्रोफाइनांस कम्पनी समझिये। बस ये मध्यम किस्म के उद्यमी खोजकर, उनको बड़ा बनाने का काम करती। अच्छे आदमी खोजो, लोन दो, ब्याज कमाओ। खुद भी बढ़ो, देश मे इंडस्ट्री बढ़ाओ।शुरू करने के लिए भारत सरकार ने विश्व बैंक से 1 करोड़ कर्ज लेकर पूंजी दी। 90 के दशक में ये कुछ हजार करोड़ का भीमकाय संस्थान हो गया। सरकार ने इसे बैंक का दर्जा दिया। व्यवसाय और बढ़ गया।सरकार ने इसके शेयर बेचने शुरू किए। किसी ने 20 खरीदे किसी ने 50 किसी ने बल्क में हजारों शेयर लिए। इंस्टिटीयूशन्स ने शेयर लिए। इसका बोर्ड बना। जिसने जितने शेयर लिए, उस हिसाब से डायरेक्टर रखे। अच्छे सीईओ रखे।आज ICICI इंडिया का इंटरनेशनल बैंक है। कारपोरेट गवर्नेस पे चलता है। इसका कोई एक मालिक नही। सो आप नाम नही बता सकते।बेचने के इस तरीक़े से मैं सहमत हूँ।अब दूसरी कम्पनी देखिए। चार्ट लगा है। उसका मालिक है रामलाल। 50+ फीसदी शेयर उसके हैं। मालिक वही है, सीईओ वही है। भले ही इसके आधे से कम के मालिक अन्य लोग है,मगर उनके पास केवल कैरियर है।सायकल तो मालिक ही चलाता है। पूरी पकड़ के साथ।ICICI की चन्दा कोचर, कुछ करोड़ की हेराफेरी कर दे, तो बवाल हो जाता है। पद छोड़ना पड़ता है। मगर रामलाल अपनी कम्पनी में कुछ हजार करोड़ इधर उधर कर दे, कौन पकड़ेगा?? कोई पकड़ ले, कुछ बोल दे, तो ज्यादा से ज्यादा सेबी में शिकायत करेगा। और सेबी- हिहिहि याने इस तरह के स्ट्रक्चर वाली कम्पनी का माईबाप किसी को 10-20 हजार करोड़ दे सकता है। उसकी जांच नही होगी। ये 10-20 हजार किसके झोले में गए, ये पता करना मुश्किल ही नही .. नामुमकिन भी है।मेरे मामाजी, जो फारेस्ट में रेंजर हुआ करते थे, कहते थे- "लो उसी से, जो दे दे खुशी से, और न कहो किसी से.." अगर मैं देश का रेंजर होता तो मामाजी का कहा हमेशा याद रखता। बेचता उसी को, जो देता खुशी से, और न कहता किसी से। इसलिए मैं होता, तो वैक्सीन का 90% ठेका पूनावाला को देता, कोवैक्सीन बनाने वाली PSU को नही।PSU का सीईओ, एफिशिएंट हो या नही, लाभकारी नही होता। और PSU लाभ में आ जाये, तो बेचने में दिक्कत अलग।पर आपकी खुशकिस्मती है कि मैं उस पद पर नही। ऐसा नही हुआ, और पूनावाला सर की पर्याप्त सप्लाई की वजह से आपके परिवार की कई जाने बची।बात डिसइन्वेस्टमेंट, प्राइवेटाइजेशन, मोनेटाइजेशन पर थी। तीनो ही निजीकरण के तीन तरीके हैं। मैं पहले के पक्ष में हूँ, बाकी दो के खिलाफ। निजीकरण, icici की तरह का हो, तो पक्ष में हूँ। बालको की तरह का हो, तो खिलाफ। मनमोहन के तरीके से हो, तो पक्ष में हूँ। अटल के तरीके से हो, तो खिलाफ। परन्तु मोदी जी करें, तो जोभी करें, उसके पक्ष में हूँ। उनके खिलाफ जो हैं, मैं उसके खिलाफ। पता है क्यो??क्योकि आयेगा तो मोदी ही!!
मनीष सिंह ICICI के मालिक का नाम बताइये। ये सरकारी PSU था, मनमोहन ने बेच दिया था। वही खरीदने वाले का नाम बताइये। बालको भी एक PSU था, अटल ने बेचा। आप उसके मालिक का नाम मिनटों में बता देंगे।पर ICICI के मालिक का नाम खोजते रह जाओगे, न मिलेगा।कुछ शब्द मोटा मोटा समझ लीजिए।1- डिसइन्वेस्टमेंट- याने आपके पास साइकल थी। आपने इसका कैरियर बेच कर दिया। अब साइकल के मालिक तो आप ही है। कैरियर का पैसा देकर कोई इस्तेमाल करे, तो कर ले। जैसे SBI के शेयर जनता के पास हैं। लेकिन 20-30% ...बाकी सरकार के ही पास है। तो मालिक सरकार ही है, आप नही। ये हुआ डिस इन्वेस्टमेंट।2- प्राइवेटाइजेशन- आपने सायकल बेच दी, बस कॅरियर रखा। या वो भी न रखा। याने इस केस में पूरी तरह से "मालिक बदल गया"। नाउ साइकल इज नॉट योर्स3- मोनेटाइजेशन- आपने सायकल को आरी से काटकर भंगार के भाव, चक्का अलग, सीट अलग, कैरियर अलग अलग बेच दिया।ये सभी विनिवेश कहलाते है। पहला तरीका मनमोहन का, दूसरा अटल का, तीसरा मोदी सरकार का है।होशियारी यह हो सकती है, कि आप सारे पुर्जे खोलकर, अलग अलग समय पर, सारे एक ही आदमी को भंगार के भाव बेचें। वो खरीदकर चुपके से वापस पूरी सायकल बना ले।जब अडानी दुनिया के दूसरे नम्बर के अमीर बने। तब टोटल वेल्युएशन थी, कोई 7.5 लाख करोड़। मगर भारत में आधा दर्जन सरकारी कम्पनी ऐसी है, जिनकी वेल्युएशन 10-20-30-40 लाख करोड़ है। गूगल करना आपका काम है। क्योकि उन कम्पनियों के मालिक आप हैं। भले आपका नाम फोर्ब्स में न आता हो।ICICI याने इंडस्ट्रियल क्रेडिट एंड इन्वेस्टमेंट कारपोरेशन ऑफ इंडिया। 1955 में बना था, देश में छोटे, मझोले उद्योग बढाने को। आजकल माइक्रोफाइन्स वालो को देखा होगा। वे रेहड़ी वाले, ठेले वाले, अन्य मेहनती गरीब खोजते हैं। उनको बिना कुछ गिरवी रखे, लोन देते हैं। ताकि वह आगे बढ़ सके।ICICI भी अपने जमाने का माइक्रोफाइनांस कम्पनी समझिये। बस ये मध्यम किस्म के उद्यमी खोजकर, उनको बड़ा बनाने का काम करती। अच्छे आदमी खोजो, लोन दो, ब्याज कमाओ। खुद भी बढ़ो, देश मे इंडस्ट्री बढ़ाओ।शुरू करने के लिए भारत सरकार ने विश्व बैंक से 1 करोड़ कर्ज लेकर पूंजी दी। 90 के दशक में ये कुछ हजार करोड़ का भीमकाय संस्थान हो गया। सरकार ने इसे बैंक का दर्जा दिया। व्यवसाय और बढ़ गया।सरकार ने इसके शेयर बेचने शुरू किए। किसी ने 20 खरीदे किसी ने 50 किसी ने बल्क में हजारों शेयर लिए। इंस्टिटीयूशन्स ने शेयर लिए। इसका बोर्ड बना। जिसने जितने शेयर लिए, उस हिसाब से डायरेक्टर रखे। अच्छे सीईओ रखे।आज ICICI इंडिया का इंटरनेशनल बैंक है। कारपोरेट गवर्नेस पे चलता है। इसका कोई एक मालिक नही। सो आप नाम नही बता सकते।बेचने के इस तरीक़े से मैं सहमत हूँ।अब दूसरी कम्पनी देखिए। चार्ट लगा है। उसका मालिक है रामलाल। 50+ फीसदी शेयर उसके हैं। मालिक वही है, सीईओ वही है। भले ही इसके आधे से कम के मालिक अन्य लोग है,मगर उनके पास केवल कैरियर है।सायकल तो मालिक ही चलाता है। पूरी पकड़ के साथ।ICICI की चन्दा कोचर, कुछ करोड़ की हेराफेरी कर दे, तो बवाल हो जाता है। पद छोड़ना पड़ता है। मगर रामलाल अपनी कम्पनी में कुछ हजार करोड़ इधर उधर कर दे, कौन पकड़ेगा?? कोई पकड़ ले, कुछ बोल दे, तो ज्यादा से ज्यादा सेबी में शिकायत करेगा। और सेबी- हिहिहि याने इस तरह के स्ट्रक्चर वाली कम्पनी का माईबाप किसी को 10-20 हजार करोड़ दे सकता है। उसकी जांच नही होगी। ये 10-20 हजार किसके झोले में गए, ये पता करना मुश्किल ही नही .. नामुमकिन भी है।मेरे मामाजी, जो फारेस्ट में रेंजर हुआ करते थे, कहते थे- "लो उसी से, जो दे दे खुशी से, और न कहो किसी से.." अगर मैं देश का रेंजर होता तो मामाजी का कहा हमेशा याद रखता। बेचता उसी को, जो देता खुशी से, और न कहता किसी से। इसलिए मैं होता, तो वैक्सीन का 90% ठेका पूनावाला को देता, कोवैक्सीन बनाने वाली PSU को नही।PSU का सीईओ, एफिशिएंट हो या नही, लाभकारी नही होता। और PSU लाभ में आ जाये, तो बेचने में दिक्कत अलग।पर आपकी खुशकिस्मती है कि मैं उस पद पर नही। ऐसा नही हुआ, और पूनावाला सर की पर्याप्त सप्लाई की वजह से आपके परिवार की कई जाने बची।बात डिसइन्वेस्टमेंट, प्राइवेटाइजेशन, मोनेटाइजेशन पर थी। तीनो ही निजीकरण के तीन तरीके हैं। मैं पहले के पक्ष में हूँ, बाकी दो के खिलाफ। निजीकरण, icici की तरह का हो, तो पक्ष में हूँ। बालको की तरह का हो, तो खिलाफ। मनमोहन के तरीके से हो, तो पक्ष में हूँ। अटल के तरीके से हो, तो खिलाफ। परन्तु मोदी जी करें, तो जोभी करें, उसके पक्ष में हूँ। उनके खिलाफ जो हैं, मैं उसके खिलाफ। पता है क्यो??क्योकि आयेगा तो मोदी ही!!