कोरोना के पीछे चल रही बिग फार्मा की साजिशों का होने लगा राज फाश
पिछले दिनो WHO ने हाइड्रोक्लोरोक्विन को लैंसेट में कई गयी स्टडी के नाम पर कोरोना के इलाज में बेकार घोषित कर दिया लेकिन आज न्यूयॉर्क टाइम्स ने ऐसी रिपोर्ट छापी है जो इस प्रख्यात मेडिकल जर्नल ओर फार्मा कंपनियों के बीच चल रही दुरभिसंधि को उजागर कर रही है.
गिरीश मालवीय
इस बारे में मैं आपको लगातार अपडेट कर रहा हूँ मैं शुरू से ही कोरोना के इलाज में काम मे आने वाली हाइड्रोक्लोरोक्विन ओर रेमेडेसीवीर के बारे में आपको बता रहा हूँ. हाइड्रोक्लोरोक्विन बहुत सस्ती दवाई है ओर रेमेडेसीवीर बहुत ही महंगी दवाई है.
WHO बड़ी फार्मा कम्पनियों के हाथों में हमेशा से खेलता रहा है, यह अब कोई ढका छुपा तथ्य नही है . बिग फार्मा लॉबी कोरोनाकाल में महंगी रेमेडेसीवीर को सब देशो में बिकवाने में लगी हुई है बिल गेट्स रेमेडेसीवीर को बनाने वाली गिलियड साइंस के पीछे है लेकिन रेमेडेसीवीर तब बिकेगी जब हाइड्रोक्लोरोक्विन को फेल बताया जाएगा.
पिछले दिनो WHO ने हाइड्रोक्लोरोक्विन को लैंसेट में कई गयी स्टडी के नाम पर कोरोना के इलाज में बेकार घोषित कर दिया लेकिन आज न्यूयॉर्क टाइम्स ने ऐसी रिपोर्ट छापी है जो इस प्रख्यात मेडिकल जर्नल ओर फार्मा कंपनियों के बीच चल रही दुरभिसंधि को उजागर कर रही है.
दरअसल द लैंसेट में हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को लेकर प्रकाशित हुई एक स्टडी में कहा गया था कि कोविड 19 से जूझ रहे मरीजों के इलाज में यह दवाइयां मदद नहीं कर रही हैं इससे ह्रदय संबंधित रोग और मौत की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। लैंसेट पेपर के प्रकाशित होने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन और दूसरी संगठनों ने इस दवा के क्लीनिकल ट्रायल रोक दिए थे। इसके आधार पर भारत में भी डॉक्टरों ने ICMR द्वारा स्वास्थ्य कर्मियों को हाइड्रोक्लोरोक्विन देने की सिफारिशों पर सवाल खड़े किए थे.
लेकिन अब न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट से कोरोना में हाइड्रोक्लोरोक्विन के प्रभाव के बारे में अब विश्वप्रसिद्ध मेडिकल जर्नल लैंसेट की स्टडी पर ही सवाल उठ गये है, अभी तक लैंसेट में छपी बातों को मेडिकल से जुड़े लोग ब्रहवाक्य ही मान लिया करते थे . लेकिन अब यह बात सामने आ रही है कि लैंसेट के दावे झूठे भी हो सकते है.
100 से ज्यादा साइंटिस्ट और क्लीनिशियन्स ने लैंसेट की स्टडी की प्रमाणिकता की डब्ल्युएचओ और दूसरी संस्थाओं से जांच कराए जाने की मांग की है। एक खुले पत्र में वैज्ञानिकों ने द लैंसेट के संपादक रिचर्ड हॉर्टन और दूसरे लेखकों से डेटा मुहैया कराने के लिए कहा है.
22 मई को प्रकाशित हुए द लैंसेट पेपर में अस्पताल में भर्ती हजारों मरीज का डाटा शामिल था। संदेह इस बात से हुआ जब इसके बाद इन पेपर्स की महज पांच हफ्तों में समीक्षा की गई, आमतौर पर यह प्रक्रिया लंबा वक्त लेती है। इसके अलावा एक्सपर्ट्स ने स्टडी के तरीके और अस्पतालों के नाम न बताए जाने की आलोचना की है। उनका कहना है कि अधिकतर डाटा सर्जिस्फीयर कंपनी से लिया गया है कोविड 19 के 25 प्रतिशत संक्रमण के मामले और मौत के 40 प्रतिशत मामले सर्जिस्फीयर संबंधित अस्पतालों में सामने आए। (सर्जिस्फीयर के अस्पताल संभवतः अफ्रीका में है) वैज्ञानिकों ने लिखा कि अफ्रीका का डाटा बताता है कि इस महाद्वीप में इन अस्पतालों में मरीजों की इलेक्ट्रॉनिक डाटा रिकॉर्डिंग की जाती है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, संक्रमण के मामले और मौतों का डाटा कलेक्शन इतना संभव नजर नहीं आ रहा है।
इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया में कोविड 19 का डाटा सरकार की रिपोर्ट से मेल नहीं खा रहा था। ड्यूक क्लीनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के डॉक्टर एड्रियन हर्नांडेज भी कह रहे हैं कि लैंसेट के पेपर में कई विसंगतियां हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात है कि यहां 600 से ज्यादा अस्पतालों का बड़ा डाटाबेस है और कोई इनके अस्तित्व के बारे में नहीं जानता।
लैंसेट की हाइड्रोक्लोरोक्विन पर रिसर्च पर सवाल उठाती हुई न्यूयॉर्क टाइम्स की इस रिपोर्ट का हिंदी में अनुवाद दैनिक भास्कर ने छापा है जरूर पढ़िए
अब सबसे बड़ा सवाल यह पैदा हो गया है कि ऐसे तथाकथित पेड रिसर्च दुनिया के जाने माने 'द लैंसेट' में प्रकाशित हो रहे है तो आप किस बात का भरोसा करेंगे? कुछ भी हो लेकिन अब कोरोना में बिग फार्मा का इन्वॉल्वमेंट साफ नजर आ रहा है ..