दिल्ली विश्वविद्यालय में कार्यरत अध्यापिका डॉ पार्वती बोलीं, मेरी नौकरी मुझसे छीन लेने से जीवन में अंधापन फिर से गहरा गया, हताशा और अवसाद से फिर घिर गई हूँ
भारत के हर नागरिक से अपील करती हूँ कि मैं ही हूँ पार्वती। अब जिंदा लाश के शक्ल में तब्दील हो चुकी हूँ।सत्यवती कॉलेज, सांध्य से निकाले जाने के बाद क्षण क्षण मर रही हूँ। अब चाहती हूँ कि सदैव के लिए मेरी यह पीड़ा खत्म हो जाए। ईश्वर ने आँख की रोशनी छीनी, तो लगा कि किसी तरह पार घाट उतर जाऊँगी। मुझे क्या पता था कि बौद्धिकों के समाज में भी मेरी जैसी अभागन की आत्मा को भी चाकू से रौंदकर लहूलुहान कर दिया जाएगा।
त्यवती कॉलेज कॉलेज (सांध्य) दिल्ली विश्वविद्यालय में कार्यरत अध्यापिका डॉ पार्वती को कॉलेज से निकाल दिए जाने पर इच्छामृत्यु जैसा मर्माहत वेदना से भरा खत पढ़ कर सांत्वना, जवाब देने की हिम्मत और ताकत भी नहीं बची। मैं व्यक्तिगत रूप से पार्वती से परिचित हूं। उनके पति इन्हीं की तरह दृष्टिहीन हैं, वे मेरे विद्यार्थी रह चुके हैं।
पार्वती के शैक्षणिक रिकार्ड को अगर देखा जाए और एक अच्छे अध्यापक की अपने विद्यार्थियों को संप्रेषण करने की कला में आंकी जाए तो मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि वह किसी भी मायने में कम नहीं हैं। एक दृष्टिहीन के साथ ऐसा अमानवीय बर्ताव किया जाए जिससे उसका अस्तित्व खतरे में पड़ गया तो निराश और हताशा में वह लाचार इंसान सिवाय मौत के और क्या सोच सकता है!
दिल्ली विश्वविद्यालय में मैंने 45 साल से अधिक अध्ययन-अध्यापन किया है। ऐसे वज्रपात देखने को नहीं मिले। आरएसएस-बीजेपी के राज में एक ही योग्यता पैमाना बन गई है कि वह शाखाधारी है या नहीं। जुल्म की भी इंतहा होती है। दृष्टिहीन होने के कारण जिंदगी की परेशानियां उनके नसीब में तो वैसे ही लिखी हैं, ऊपर से इस प्रकार का कहर बरपाया जाए यह कहां का न्याय है?
मैं पार्वती को कहूंगा कि मौत का नहीं, इस तरह की व्यवस्था का संहार करने का संकल्प करो। भले ही आज ॲंधेरा हो, पर कल के उजियारे को कौन रोक सकता है। आज नहीं तो कल तुम फिर दिल्ली विश्वविद्यालय की अध्यापिका बनोगी। भाजपा के इस निरंकुश राज का खात्मा होना निश्चित है, निश्चित है, लाजमी है।
राजकुमार जैन
डॉ पार्वती की फेसबुक पोस्ट इस प्रकार है –
भारत के हर नागरिक से अपील करती हूँ कि मैं ही हूँ पार्वती। अब जिंदा लाश के शक्ल में तब्दील हो चुकी हूँ।सत्यवती कॉलेज, सांध्य से निकाले जाने के बाद क्षण क्षण मर रही हूँ। अब चाहती हूँ कि सदैव के लिए मेरी यह पीड़ा खत्म हो जाए। ईश्वर ने आँख की रोशनी छीनी, तो लगा कि किसी तरह पार घाट उतर जाऊँगी। मुझे क्या पता था कि बौद्धिकों के समाज में भी मेरी जैसी अभागन की आत्मा को भी चाकू से रौंदकर लहूलुहान कर दिया जाएगा।
मैं घबराई हुई हूँ। ऐसा लगता है कि मैं दुबारा अंधी हो गई हूँ। दृष्टिहीन आँखों में गरम तेल डाल दिया गया हो। हे ईश्वर, तुम्हारा न्याय कहाँ गया? कुछ तो हमपर दया करो…
मैं जन्मांध पैदा नहीं हुई थी। दसवीं कक्षा में मेरी आँखों की रोशनी चली गई। मैं कोमा में चली गई। करीब तीन महीने बाद जब मुझे होश आया तो मैं अपने आपको हॉस्पिटल में पाई। जहाँ मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने पापा से पूछा यहां लाइट चली गई है? पापा ने कहा ‘बेटी लाइट जली हुई है’। फिर मैंने पापा से कहा ‘मुझे कुछ भी दिख नहीं रहा’। डॉक्टर को बुलाया गया। शुरू में न दिखने की समस्या को डॉक्टर ने मनोवैज्ञानिक बताया। बाद में भी रोशनी नहीं आई तो गहन जांच के बाद डॉक्टरों ने मुझे अंधी घोषित कर दिया।
मेरे आगे एक पसरा हुआ सन्नाटा था। अबतक मैं अपने जीवन में अंधों को केवल भिखारन के रूप में देखी थी।मुझे लगता था कि मेरे घर के लोग मुझे भीख माँगने के लिए छोड़ देंगे या मुझे मार डालेंगे। बेहद गरीब परिवार से होने के कारण मैं अब परिवार के ऊपर बोझ थी।
मुझे अपने मां, बाप और परिवार के लोगों से भी डर लगता था कि कहीं वह हमारी हत्या न कर दें। लेकिन मैं हारी नहीं और डरी नहीं।
मैंने इस समाज पर भरोसा किया, उनकी मानवता पर मुझे भरोसा था। मैं छड़ी के सहारे ही सही बंद आँखों से दुनिया को टटोलते हुए NIVH देहरादून गई। वहाँ मेरे जैसे बहुत सारे अभागे-अभागन थे। ब्रेल लिपि के माध्यम से मेरी पढ़ाई शुरू हो गई। देहरादून में पढ़ने के दरम्यान कई बार गंभीर मनोवैज्ञानिक परेशानी से भी गुजरी, लेकिन किसी तरह से बारहवीं पास करने के पश्चात दिल्ली यूनिवर्सिटी के आईपी कॉलेज से स्नातक, दौलतराम कॉलेज से एम.ए, जे.एन.यू से एमफिल और पीएचडी किया। मेरा जेआरएफ सामान्य श्रेणी में है। मेरी पुस्तक वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है। एक कहानी संग्रह है। बहुत सारे लेख हैं जो हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपे हैं। लेकिन मुझे एक सामान्य बीए, एमए और नेट पास किये नए छात्र से रिप्लेस कर दिया गया। यह मेरी हत्या ही तो है, केवल हत्या..
अंधों के संघर्ष को आप नहीं जानते। जीवन के हर मोड़ पर मैं जूझती हूँ। हमारी सारी इच्छाओं का दमन तो ईश्वर ने कर ही दिया था, इस घटना ने मानवता को शर्मसार कर दिया।
आपको एक बात बताती हूँ। हमारा समाज दिव्यांगों के प्रति संवेदनशील नहीं है। पुरुष के अंधेपन और महिला के अंधेपन में भी अंतर है। हम पर दोहरी मार पड़ती है। पुरुष को समाज में विशेषाधिकार प्राप्त है लेकिन महिला को?
मेरे जीवन की रोशनी यह तदर्थ की नौकरी थी। यह आशा और विश्वास हो चला था कि मेरी नौकरी स्थायी हो जाएगी। मैं किसी को शापित नहीं कर रही हूँ, लेकिन आप सभी से गुहार जरूर लगा रही हूँ कि देखिए आपका समाज कहाँ जा चुका है? केवल महाभारत में ही चीर-हरण नहीं हुआ था, आज भी अट्टहास के साथ मेरे साथ हुआ है।
मेरी नौकरी मुझसे छीन ली गई। जीवन में अंधापन फिर से गहरा हो गया है। हताशा और अवसाद से फिर घिर गई हूँ। मुझे लगता है कि मैं जीवन के उस मोड़ पर चली गई हूँ जहाँ से अब मेरे जीवन में कुछ नहीं बचा है।आत्महत्या करने का विचार तो कई बार आया, लेकिन मैं इच्छामृत्यु चाहती हूँ… इसमें मेरी मदद कर दीजिए प्लीज़…
डॉ. पार्वती कुमारी (दृष्टि बाधित)
पूर्व प्राध्यापक हिंदी
सत्यवती कॉलेज
अशोक विहार, दिल्ली विश्वद्यालय, दिल्ली