हिंदी वाया हिंग्लिश व हिंदी की प्रतिद्वंदी प्रादेशिक राजभाषाएं ?
हिंदी का असल दुर्भाग्य तो यही है कि इन आयोजनों के ज्यादातर आयोजनकर्ता,भाषण कर्ता और ताली बजाने वालों को यह भी नहीं पता की हिंदी देश की राष्ट्रभाषा है या राजभाषा और यह भी नहीं पता है कि आखिर राष्ट्रभाषा, राजभाषा में अंतर क्या है।
आजादी के 77 साल बाद भी अपनी एक अदद 'राष्ट्रभाषा' का ना होना राष्ट्रीय शर्म और विपन्नता,
वर्तमान तथाकथित बेस्टसेलर युवा लेखकों ने भी हिंदी को हिंग्लिश बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है,
क्षेत्रीय बोली-भाषाओं का संरक्षण, संवर्धन व विकास होना ही चाहिए, पर यह सब 'राष्ट्रभाषा' की कीमत पर कदापि नहीं,
हाल में ही देश ने हिंदी-दिवस, हिंदी-सप्ताह, हिंदी-पखवाड़ा आदि की फिजूल की औपचारिकताएं पूर्ण कर चैन की सांस ली है, हिंदी मास भी अपनी समाप्ति के अंतिम चरण पर है। इसके साथ ही हिंदी की बिंदी उतार कर एक बार फिर ड्रेसिंग टेबल के आईने पर अथवा अगले साल के कैलेंडर के चौदह सितंबर तारीख पर चिपका दी जाएगी। इस साल भी आयोजन की सारी नौटंकियां कमोबेश फिर से पूर्ववत दोहराई गईं। हिंदी के उद्धार हेतु आयोजित इन सम्मेलनों के मंचों पर राष्ट्र निर्माण में लगे छोटे बड़े राजनेताओं,नौकरशाहों तथा कार्यक्रम आयोजक दलालों के बीच, बर्फी पर लगे काजू-बादाम की तरह इक्के-दुक्के विराजमान हिंदी के तथाकथित वरिष्ठ लेखकगणों ने मंच की शोभा बढ़ाई। इन मंचों से सारे वक्ता या तो कच्चे-पक्के आंकड़े पेशकर अखिल विश्व में लहरा रहे राष्ट्र-भाषा हिंदी के परचम का गुणगान करते रहे या फिर इसकी सौतन अंग्रेजी को गालियां देकर तालियां पाते रहे। हिंदी का असल दुर्भाग्य तो यही है कि इन आयोजनों के ज्यादातर आयोजनकर्ता,भाषण कर्ता और ताली बजाने वालों को यह भी नहीं पता की हिंदी देश की राष्ट्रभाषा है या राजभाषा और यह भी नहीं पता है कि आखिर राष्ट्रभाषा, राजभाषा में अंतर क्या है।
उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने सबसे पहले 1917 में गुजराज के भरुच सम्मेलन में हिंदी को राष्ट्रभाषा के रुप में मान्यता प्रदान की थी । गांधीजी ने साल 1918 में भी 'हिंदी साहित्य सम्मेलन' में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। महात्मा गांधी के अलावा जवाहरलाल नेहरू भी थे जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत की थी। संविधान सभा ने भी 14 सितंबर 1949 को इसे राजभाषा का दर्जा देने को लेकर सहमति जताई थी। 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343(1) के द्वारा हिंदी को देवनागरी लिपि के रूप में संघ की राजभाषा का दर्जा भी दिया गया।
परंतु यह हिंदी नहीं बल्कि देश का दुर्भाग्य है कि आज पर्यंत हिंदी आधिकारिक 'राष्ट्रभाषा' नहीं बन पाई है। विश्वगुरु कहलाने वाले, विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले गौरवशाली देश के पास आजादी के 77 साल बाद भी अपनी एक अदद 'राष्ट्रभाषा' का ना होना राष्ट्रीय शर्म और विपन्नता नहीं तो और क्या है? और ऐसा आखिर क्योंकर हुआ ?
तब दक्षिण के राज्यों के तत्कालीन नेताओं के द्वारा क्षुद्र क्षेत्रीय राजनैतिक लाभ से प्रेरित होकर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विरोध किया गया। आगे भी, आवश्यकतानुसार समय समय-समय वोटो की राजनीति के तहत दक्षिण राज्यों की जन भावनाओं को हिंदी के विरुद्ध खड़ा कर इस तवे को गर्म कर हमेशा राजनीतिक रोटी सेंकी गई है। सोचनीय विषय है कि इन्हें सात समुंदर पार से आई अंग्रेजी भाषा स्वीकार है पर अपने देश की भाषा हिंदी स्वीकार्य नहीं है।
चाहे हम स्वीकार करें अथवा ना करें पर हकीकत यही है कि हमारे देश में आज अंग्रेजी सफल ,संपन्न , शिक्षित, आभिजात्य वर्ग की भाषा के रूप में स्थापित हो गई है। हिंदी भाषी कितना भी पढ़ा लिखा उच्च शिक्षित क्यों ना हो पर उसे जगह-जगह पर दोयम दर्जे का नागरिक होने का सप्रयास एहसास दिलाया जाता है। कुछ उदाहरणों से यह और ज्यादा स्पष्ट होगा। विमान पत्तन पर टिकट खिड़की पर तैनात व्योमबालाओं से अगर आपने हिंदी में बात शुरू की तो उनके भाव भाव एवं प्रतिक्रिया से आपको भली-भांति समझ में आ जाएगा कि आपकी हिंदी ने आपको बलपूर्वक दूसरे पायदान पर खिसका दिया है। वहीं अगर कोई दूसरा यात्री जब कॉन्वेंटी अंग्रेजी में अपने वार्तालाप की शुरुआत करता है तो उसे अनायास प्रथम प्राथमिकता का दर्जा मिल जाता है। बहुत संभावना इस बात की होती है की दोनों को हिंदी आती है, और कई बार यह वार्तालाप अंग्रेजी में शुरू होने के बाद दोनों ही सुविधानुसार हिंदी पर उतर आते हैं, पर इससे उसकी प्राथमिकता क्रम में कोई अंतर नहीं आता। इन हवाईअड्डों की किताब की दुकानें तो मुझ जैसे हिंदी-भाषी को हताशा और कुंठा में भर देती है। यहां आलमारियों में सलीके से सजा विश्व का प्रतिनिधि साहित्य के साथ ही लगभग हर विषय पर पुस्तकें मौजूद हैं, पर सब कुछ केवल अंग्रेजी में। यहां इक्की-दुक्की हिंदी पत्रिकाओं और दो चार तथाकथित बेस्टसेलर हिंग्लिश उपन्यासों के अलावा पूरा का पूरा हिंदी साहित्य पूरी तरह नदारत है। पिछले 25 सालों से इन दुकानों में नियमित रूप से जाता रहा हूं और हर बार हिंदी की ज्यादा पुस्तकें भी रखने का अनुरोध करता रहा हूं। इनके तयशुदा जवाब आज भी वही है जो 25 साल पहले थे कि हिंदी किताबें लोग खरीदते ही नहीं तो रखने से क्या फायदा,और दूसरा यह कि उनकी कंपनी के उच्च अधिकारी हिंदी की किताबें रखवाते ही नहीं। यह तो वही बात होगी पहले मुर्गी या अंडा? भाई हिंदी की किताबें दुकान में रखोगे ही नहीं, दिखेंगी ही नहीं, तो बिकेंगी कैसे ?
एक और कारण जिसकी और अभी कम ध्यान गया है वह है 'हिंग्लिश' जो कि हिंदी को बहुत तेजी से और बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचा रही है। जरा देखिए कौन है वह लोग जो हिंदी को हिंग्लिश बनाने में जुटे हैं।
ब्रेकिंग-न्यूज़ वाले लगभग सभी टीवी चैनल अपनी हिंदी को हिंग्लिश बनाने में जुटे हुए हैं,, आखिर 'ब्रेकिंग-न्यूज़' को 'नवीनतम-समाचार' अथवा 'ताजा-खबर' भी तो कहा जा सकता था। वर्तमान दौर के तथाकथित बेस्टसेलर युवा लेखकों ने भी हिंदी को हिंग्लिश बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
फिल्मों ने भी हिंदी को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने, तथा इसके विकास में बहुत बड़ा योगदान दिया था। आज दक्षिण भारत के बहुसंख्य लोग अगर हिंदी समझ पाते हैं, तो उसका एक प्रमुख कारण हिंदी फिल्में हैं। पर आज के समय में इन हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी भी एक प्रमुख किरदार बनकर उभरा है। आज की दौर की फिल्मों में पढ़े-लिखे प्रेमी प्रेमिका,पति-पत्नी तथा ज्यादातर किरदार प्राय अंग्रेजी में झगड़ते नजर आते हैं, और गालियां तो शत-प्रतिशत अंग्रेजी ही प्रयुक्त होती है। वैसे इसको लेकर कोई अफसोस हिंदी को नहीं होना चाहिए। आजकल कई बार फिल्मों में हास्य उत्पन्न करने के लिए शुद्ध हिंदी के कठिन वाक्यों व अप्रचलित शब्दों का प्रयोग किया जाता है, यह हिंदी का उपहास ही तो है।
एक समय हिंदी की पत्रकारिता तथा हिंदी समाचार पत्र हिंदी को लोकप्रिय तथा समृद्ध बनाने के एक प्रमुख साधन थे। परंतु अब मामला एकदम उलट है । बड़े शहरों को छोड़ दें तो छोटे मझोले शहरों, कस्बों के 'हाकर' ही आज पत्रकार बन गए हैं। इनमें से ज्यादातर का लिखने-पढ़ने से कोई खास वास्ता नहीं होता। इन हाकरनुमा आंचलिक पत्रकारों में गजब का भाईचारा होता है। इनमें से कोई एक जो थोड़ा बहुत लिख पढ़ लेता है वो अपनी लूली लंगड़ी हिंदी में समाचार बनाकर सभी भाइयों को समभाव बांट देता है, जिसे सब ऊपर भेज देते हैं, आगे इसे थोड़ा बहुत सुधार कर और समयाभाव में कभी-कभार जस का तस पाठकों को परोस दिया जाता है। कई बार ये समाचार व्याकरण के बंधनों से पूरी तरह मुक्त होते हैं। हिंदी को नुकसान पहुंचाने में इनका भी कम योगदान नहीं है। इधर हमारे अंग्रेजी मीडियम पब्लिक स्कूलों , कॉन्वेंट स्कूलों से पढ़ लिख कर निकल रही नई पीढियां बहुत तेजी से हिंदी से हिंग्लिश की ओर बढ़ चलीं हैं। विचारणीय प्रश्न यह है की क्या यह फिसलन हिंदी से हिंग्लिश से होते हुए अंत में इंग्लिश पर ही जाकर रुकेगी ? क्या संविधान द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर इसे संरक्षित संवर्धित किया जा सकता है ?और इसमें हिंदी साहित्यकारों तथा हिंदी की पत्र पत्रिकाओं की क्या भूमिका होनी चाहिए ? प्रश्न कई है और यह एक लंबी बहस का विषय है।
एक और कम चर्चित पर महत्वपूर्ण विषय है। स्वतंत्रता के बाद बोली भाषा के आधार पर राज्य बनाए गए। कालांतर में वोट की राजनीति एवं बेहतर प्रशासन की दृष्टिकोण से अन्य कई नये राज्यों का भी गठन हुआ। सभी राज्यों ने अपनी क्षेत्रीय पहचान व आंचलिक अस्मिता को सुदृढ़ बनाने स्थानीय बोली भाषाओं को महत्व दिया जो कि जरूरी भी था। इससे एक कदम आगे बढ़कर राज्यों ने राज्य की बहु प्रचलित बोली अथवा भाषा को प्रदेश की राजभाषा का दर्जा भी दे दिया । प्रथम दृष्टया इसे स्थानीय बोली-भाषा के संरक्षण एवं विकास के रूप में देखा जा सकता है। किंतु प्रकारांतर से यह यब हिंदी को न केवल गंभीर नुकसान पहुंचा रही है बल्कि एक सक्षम राष्ट्रभाषा के विकास के मार्ग का भी सबसे बड़ा रोड़ा है। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ को ही ले लीजिए । 2001 में छत्तीसगढ़ नया राज्य बनने के बाद कालांतर में छत्तीसगढ़ी बोली को वोटो की राजनीति के तहत राजभाषा घोषित कर दिया गया। जबकि यह केवल राजधानी रायपुर के जिले की इर्द-गिर्द की कुछेक जिलों में ही बोली जाती है। सरगुजा तथा उससे लगे जिलों की बोली एकदम अलग है। बिलासपुर तथा उससे लगे जिलों की बोली भी अलग है। इतना ही नहीं इस प्रदेश का सबसे बड़ा क्षेत्र अर्थात बस्तर के केशकाल घाट से लेकर कोंटा तक तीन सौ किलोमीटर लंबे तथा लगभग सौ किलोमीटर चौड़े लगभग पच्चीस हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में यह राजकीय भाषा छत्तीसगढ़ी बोली ही नहीं जाती। बल्कि यहां हल्बी, गोंडी,भतरी, दोरली आदि जनजातीय बोलियां बोली जाती हैं। यह रियासत काल में यहां की संपर्क भाषा हल्बी थी। आजादी के बाद इस जनजातीय क्षेत्र की संपर्क भाषा हिंदी रही है। अब यहां पर राजभाषा के रूप में राजधानी की बोली छत्तीसगढ़ी को थोप दिया गया है। हाल में 14 सितंबर को जब हिंदी दिवस पड़ा तो इसी समय क्षेत्रीय अस्मिता को उभरने के दृष्टिकोण से तथा वोट की सुनिश्चित राजनीति के तहत एक क्षेत्रीय त्यौहार पोलातिहार के लिए अवकाश की घोषणा कर दी गई। हिंदी दिवस मनाने वाले साहित्यकार 'पोला-तिहार' मनाने में लग गए। आधे अधूरे मन से यहां वहां छुटपुट हिंदी-दिवस मनाने की औपचारिकताएं पूरी हुईं। अब कुछ दिनों बाद 28 नवंबर को छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस मनाया जाना है। इसकी तैयारी अभी से शुरू कर दी गई हैं। राज्य शासन द्वारा मनाए जा रहे इस समारोह से जुड़े सारे के सारे साहित्यकार आश्चर्यजनक रूप से वही हैं जो हिंदी के भी वरिष्ठ साहित्यकार माने जाते हैं। अब राज्य की राजधानी मंत्रालयों तथा सरकारी कार्यालय में छत्तीसगढ़ी बोलने पर जोर दिया जा रहा है। नौकरी के लिए छत्तीसगढ़ी को अनिवार्य कर दिया गया है। साक्षात्कारों में छत्तीसगढ़ी के प्रश्न अनिवार्य हैं। जाहिर है हल्बी,गोंडी दोरली भतरी बोलने वाले बस्तर के प्रतियोगी पिछड़ेंगे ही।
राजधानी के कार्यक्रमों, जनसभाओं में वक्ता सप्रयास छत्तीसगढ़ी बोलने का अभ्यास कर रहे हैं। जाहिर है जिस मंच से अधिकांश लोग छत्तीसगढ़ी में बोलेंगे वहां बस्तर से गया कोई वक्ता अगर हिंदी में बोलेगा तो उसे बाहरी होने का एहसास होगा भी ,और दिलाया भी जाएगा । इसके साथ ही छत्तीसगढ़ी के राजभाषा के सिंहासन पर आरुढ होने के कारण उपेक्षित हो रही बस्तर की हल्बी, गोंडी, भतरी दोरली आदि बोलियों के भी दस्तावेजीकरण एवं संरक्षण की आवश्यकता है। क्योंकि किसी एक बोली-भाषा के मिट जाने से उस समुदाय का सदियों सदियों से संचित अनुभवजनित परंपरागत ज्ञान,कला तथा लोकसाहित्य भी मिट जाता है। यह मानवता की एक अपूरणीय क्षति होती है। इसलिए इन्हें विलुप्त होने से हर हाल में बचाया जाना चाहिए। कुल मिलाकर ऐसी स्थिति बननी चाहिए, कि क्षेत्रीय बोली भाषाओं का पर्याप्त संरक्षण संवर्धन व विकास होना ही चाहिए पर यह सब 'राष्ट्रभाषा' की कीमत पर कदापि नहीं होना चाहिए।