प्रेस क्लब का चुनाव: राम के आशीर्वाद से सुग्रीव ने बाली का वध किया है

वध वैदिक रीति है, हिंसा नहीं। कौशिक जी बोले, सुग्रीव ने हमसे मदद मांगी है लेकिन हम सही समय पर बाली का वध करेंगे। वध करने के लिए जरूरी नहीं कि युद्ध खुद लड़ा जाए।

Update: 2023-09-25 07:13 GMT

प्रेस क्लब चुनावों में सत्ताधारी पैनल की जीत हुई है। इकतरफा जीत। बदलाव के नारे के साथ सन 2011 में पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ की सत्ता को हटाकर प्रबंधन में आए इसी पैनल को बारह साल से जीत मिलती आ रही है। जिसने बदलाव किया, वह खुद बदलाव विरोधी होता गया। इस बार अध्यक्ष चुने गए गौतम लाहिड़ी कुछ साल पहले भी अध्यक्ष रह चुके हैं। बस, महासचिव का चेहरा बदला है। मनोरंजन भारती भी पहले इसी पैनल से चुने जा चुके हैं।

इस पैनल की बारह साल से हो रही निरंतर जीत के पीछे कारण बताया जाता है कि यह सेकुलर, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक पत्रकारों का समूह है। इसीलिए, हर बार चुनाव से पहले पत्रकारों को डर दिखाया जाता है कि भाजपा और संघ समर्थक पत्रकारों का कब्जा हो जाएगा, लिहाजा इन्हें जिताइए। और हर बार इनके जीतने पर लोकतंत्र की मुनादी की जाती है और सांप्रदायिक ताकतों की हार का दंभ भरा जाता है।

वास्तव में, हर बार प्रबंधन की कार्यप्रणाली के स्तर पर कोई फर्क नहीं आता। मामूली बातों पर या बेबात पत्रकारों की सदस्यता को खत्म किया जाना इस पैनल में चलन बन चुका है। रसोइयों तक को नहीं बख्शा जाता और कंपनी कानून के तमाम प्रावधानों का खुलेआम उल्लंघन किया जाता है। फिर भी, किसी को इससे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इस पैनल का अस्तित्व और जीत वैचारिक भयादोहन पर आधारित है।

मनोविज्ञान में जेनोफोबिया यानी अज्ञातजन भीति नाम की एक बीमारी होती है। इस पैनल के अदृश्य कर्ताधर्ता उसी बीमारी से ग्रस्त और त्रस्त हैं। इस संदर्भ में सवाल उठता है कि इस साल जब ऐसे भयादोहन की पूर्वस्थितियां थीं ही नहीं, कोई विरोधी विचार का पैनल मैदान में था ही नहीं, तब कैसे इस पैनल की जीत हुई? अब यह पैनल अपनी जीत का संदेश कैसे देगा और खुद को लेजिटिमाइज कैसे करेगा? आइए, इस नई परिघटना को थोड़ा समझते हैं।

इस बार सत्ताधारी पैनल के खिलाफ केवल एक पैनल था, वो भी अधूरा। अध्यक्ष प्रशांत टंडन और महासचिव प्रदीप श्रीवास्तव वाले कुल छह पदाधिकारियों के इस पैनल की वैचारिक अवस्थिति को भी डेमोक्रेटिक, सेकुलर और प्रगतिशील कहा जा सकता है। कुछ लोग इन्हें वामपंथी भी मानते हैं। कुछ और लोग जो न वाम समझते हैं न दक्षिण, वे इस पैनल को लेफ्ट टू लेफ्ट यानी अतिवाम मान के चल रहे थे और ऐसा ही प्रचार कर रहे थे। इस पैनल को अनिल चमड़िया ने लड़वाया था, जिनकी व्यक्तिगत विश्वसनीयता और वैचारिक अखंडता इतनी असंदिग्ध है कि गौतम लाहिड़ी अपने पिछले कार्यकाल में मैनेजिंग कमेटी की एक बैठक में खुलेआम सबके सामने बोल चुके हैं- कौन है ये चमड़िया? इसको निकाल के बाहर करो!' उसी बैठक में वरिष्ठ पत्रकार निर्निमेश कुमार को भी निकालने का फतवा लाहिड़ी ने जारी किया था। मैं निर्वाचित सदस्य के तौर पर उस कमेटी की बैठक में मौजूद था और तब तक इस पैनल की मनोवैज्ञानिक बीमारी से परिचित नहीं था। मुझे भी संघ का डर दिखाकर चुनाव लड़ने को राजी किया गया था। अब उस पर हंसी आती है।

इसी बैठक के बाद मैंने अंदर रहते हुए चिट्ठी लिखना शुरू किया और साल भर तक लिखी मेरी चिट्ठियों का अध्यक्ष लाहिड़ी, महासचिव विनय कुमार और मनोरंजन भारती आदि की तरफ से एक बार भी जवाब नहीं आया।

इससे समझा जा सकता है कि अनिल चमड़िया से संबंधित पैनल के प्रति सत्ताधारी पैनल में पहले से कितनी कड़वाहट रही होगी। उस पर से इस चुनाव में लड़ाई सेकुलर बनाम सेकुलर की भी थी और मुख्य फीचर था गौतम लाहिड़ी बनाम प्रशांत टंडन की अध्यक्ष पद पर उम्मीदवारी। दिल्ली ही नहीं, देश भर के पत्रकार प्रशांत टंडन की वैचारिक प्रतिबद्धता, प्रेस की आजादी पर काम और पत्रकारीय कैरियर से परिचित हैं। गौतम लाहिड़ी के बारे में ऐसा कहना कतई संभव नहीं है। वे केजरीवाल के अन्ना हजारे जैसे हैं, जिन्हें आज ही नहीं, कल के पत्रकार भी नहीं जानते। क्लब का केजरीवाल कौन है, यह सवाल थोड़ा ज्यादा जटिल है लेकिन पत्रकारों को मालूम है। कहने का मतलब, कि पत्रकारीय क्रेडिबिलिटी के मामले में लाहिड़ी के मुकाबले प्रशांत टंडन बहुत आगे हैं, बेशक थोड़ा मोड़ा लेफ्ट हों।

अब एक मतदाता पत्रकार के लिहाज से सवाल करते हैं। एक तरफ बारह साल से काबिज अनजान नेतृत्व और भ्रष्ट आचार वाला सेकुलर पैनल है। दूसरी तरफ ऐसा आधा अधूरा सेकुलर पैनल है, जिसके नेतृत्व की सार्वजनिक विश्वसनीयता पुष्ट है और जिसके नैतिक आचार को जांचने का कोई पैमाना पहले से नहीं है। किसे वोट देना चाहिए?

इस सवाल को एक और रोशनी में देखिए। प्रशांत टंडन के पैनल ने अपने प्रचार में लिखित रूप से कहा था कि वे अध्यक्ष बनेंगे तो प्रेस क्लब को सूचना के अधिकार के दायरे में ले आएंगे। कंपनी कानून के तहत चलने वाला क्लब आरटीआई के दायरे में आ पाएगा या नहीं, इस तकनीकी सवाल को किनारे रख दें तो क्या यह घोषित मंशा ही घोषणा करने वाले की पारदर्शिता को नहीं दर्शाती? ऐसे में इन्हें वोट क्यों नहीं मिलना चाहिए था?

वस्तुगत व व्यक्तिगत मानदंडों और चुनावी घोषणाओं की तीन कसौटियों पर प्रशांत टंडन पत्रकारों का वोट पाने के सर्वथा काबिल थे। बावजूद इसके अब, जबकि वे हार गए हैं और लाहिड़ी जीत गए हैं, तो इससे क्या सबक निकाला जाए?

पहला, संभव है प्रशांत टंडन का वैचारिक रूझान उनके आड़े आया हो, यानी प्रेस क्लब में मोटे तौर से वाम दिखने वाले व्यक्ति से पत्रकारों को थोक भाव में परहेज रहा हो। इसलिए उन्होंने लाहिड़ी को अध्यक्ष बना दिया। तो क्या लाहिड़ी वाम विरोधी हैं? डेमोक्रेटिक नहीं हैं? लेकिन दावा तो उल्टा है! बारह साल से तो उनके लोग 'संघियों को हराने' का दम भरते आए थे? दो में से एक बात ही सही हो सकती है। एक साथ गौतम लाहिड़ी सेकुलर, वाम विरोधी और प्रगतिशील नहीं हो सकते।

दूसरी संभावना ये है कि अनिल चमड़िया से लाहिड़ी की नफरत के चलते पूरा पैनल प्रशांत टंडन को हराने में लग गया हो। ये इतनी प्रबल संभावना नहीं है, लेकिन प्रबंधन के भ्रष्टाचार को उजागर करने वालों का इस बार एक साथ आना और हार जाना यह जरूर बताता है कि प्रेस क्लब के सदस्य अधिकतर पत्रकार पारदर्शिता और ईमानदारी से वास्ता नहीं रखते। या फिर, इन सरोकारों से ही गाफिल रहते हैं और वोटिंग को कर्मकांड से ज्यादा नहीं मानते। वरना, आरटीआई का वादा करने वाले नेतृत्व को सूचना के प्रहरी खुद खारिज कर दें, इसकी कोई और वजह नहीं हो सकती।

तीसरी संभावना यहीं दो दिन पहले लिखी मेरी पिछली टिप्पणी से जुड़ी है। मैंने लिखा था कि जीत का मार्जिन संघ और भाजपा समर्थक वोट तय करेंगे। चूंकि सत्ताधारी पैनल की जीत का मार्जिन वाकई बहुत ज्यादा है, तो इससे दो बातें निकलती हैं: पहली, सत्ताधारी पैनल के वोट बहुत बंटे नहीं हैं, यानी वफादारी कायम है। दूसरे, विरोधी विचार वाला पैनल अबकी नदारद होने की सूरत में उसके वोट सत्ताधारी पैनल को ही गए हैं। मने, गौतम लाहिड़ी को कथित संघी और कथित संघ विरोधी, दोनों तरफ के वोट पड़े हैं। ये वे वोट हैं, जिन्हें हम मिलाकर यथास्थितिवादी कह सकते हैं। ये वे लोग हैं जो नहीं चाहते कि लूट का कारोबार बंद हो, पत्रकारों को खाना सस्ता मिले, क्लब की कार्यप्रणाली में सूचना की पारदर्शिता आवे।

इस चुनावी कथा को समझने के लिए इस पोस्ट का अंत एक संवाद से करूंगा, जो दो दिन पहले मुकेश कौशिक के साथ थोड़ा हल्के मूड में संभव हुआ था। वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कौशिक पिछले साल कथित संघी पैनल के कर्ताधर्ता थे। मैंने पूछा इस बार आप लोग क्यों नहीं लड़े। उन्होंने कहा हर बार लड़ के, हार के, सामने वाले को जीत का सुख क्यों देना! इस बार वे जीत गए तो वैसा सुख उन्हें नहीं मिल पाएगा। उनका इशारा सत्ताधारी पैनल की ओर था। उनका कहना था कि बाली के सामने होने से सुग्रीव परेशान तो है पर उसे पराजित नहीं होने दिया जाएगा। मैंने कहा, खुलासा करें प्रभु। उन्होंने रामकथा का एक प्रसंग मय चौपाई बांच दिया।

लब्बोलुबाब ये है कि सुग्रीव ने राम से कहा कि बाली से मुझे बचा लीजिए। राम ने आश्वासन दे दिया। लड़ाई हुई। राम खड़े खड़े देखते रहे। जब सुग्रीव खूब पिट गए, तो वे राम के पास अनुनय विनय करने आए। करुणा के सागर राम ने सुग्रीव को माला पहनाई और विजयी भव कहा। अंततः, बाली का वध हुआ।

वध वैदिक रीति है, हिंसा नहीं। कौशिक जी बोले, सुग्रीव ने हमसे मदद मांगी है लेकिन हम सही समय पर बाली का वध करेंगे। वध करने के लिए जरूरी नहीं कि युद्ध खुद लड़ा जाए।

गौतम लाहिड़ी ने, उनके अदृश्य कर्ताधर्ताओं ने, प्रेस क्लब के घाघ सुविधापसंद पत्रकारों ने, राम के आशीर्वाद से अपने से कहीं ज्यादा मजबूत अपने ही भाई बंधुओं का इस बार वध किया है। यह कहानी 2011-22 वाली नहीं है, एकदम नई है, अलहदा है।

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