योगेंद्र यादव और अरविंद केजरीवाल की टाइमपास राजनीति
जिसे रियलपॉलिटिक कहते हैं, वह योगेंद्र और अरविंद के बस की बात नहीं है। इन्हें भाजपा या कांग्रेस किसी से कोई परहेज़ नहीं है। जब राजनीति स्पष्ट नहीं है, तो राजनीतिक नैतिकता भी लुचपुच है।
दिल्ली देश की राजनीति का केंद्र है। विडम्बना यह है कि देश भर में फिलहाल जबरदस्त राजनीति हो रही है लेकिन दिल्ली मे राजनीति की यमुना उलटी बह रही है। एक हैं आम आदमी पार्टी के मौजूदा कर्णधार और दूसरे हैं उससे निकाले गए योगेंद्र यादव। कल संजय सिंह ने कांग्रेस के साथ सीटों के बंटवारे पर बयान दिया कि भाजपा अगर जीती तो उसकी जिम्मेदार कांग्रेस होगी। दूसरी ओर योगेंद्र यादव ने नोटा का बटन दबाने का आह्वान कर डाला। कितनी दिलचस्प बातें हैं! जो पार्टी कांग्रेस की फिंचाई कर के भाजपा के लिए रेड कारपेट बिछाती है, वह पांच साल बाद महज तीन सीटों के झगड़े में भाजपा के संभावित दुहराव का जिम्मेदार कांग्रेस को बता रही है। इधर योगेंद्र यादव जो जिंदगी भर चुनावी विश्लेषण ही करते रहे हैं, आज नोटा-नोटा कर के भाजपा की राह आसान करने में लगे हैं।
ऐसा नहीं कि ये सब जान-बूझ कर किया जा रहा है। इनका अतीत खंगालेंगे तो आप पाएंगे कि ये लोग वास्तव में राजनीतिक रूप से लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर हैं। दाढी दाढ़ा बढ़ा लेने से, चबा-चबा के बोलने से थोड़े कुछ होता है। एक किस्सा सुनाता हूं। योगेंद्र के पार्टी से निकाले जाने के पहले की बात है, जब गुड़गांव में एक अहम बैठक हुई थी। उसमें पचासों संगठन शामिल थे। योगेंद्र यादव और अजित झा ने इसकी सारी व्यवस्था की थी। इसमें आखिरी दिन केजरीवाल को लाया गया था। इस बैठक में केजरीवाल से सामाजिक न्याय आदि मसलों पर कुछ सवाल पूछे गए। उसका जो जवाब केजरीवाल ने दिया, वह आम आदमी पार्टी की नीतिगत मसलों पर अस्पष्टता या कहें घाघपन का प्रतिनिधि उदाहरण है। सामाजिक न्याय के सवाल पर केजरीवाल ने कहा था- ''जिन बातों का मैं जवाब दूं, समझिए कि ये मेरा विचार है। जिसका जवाब न दूं, ये मत समझिएगा कि मैं उसका विरोधी हूं।''
नीतिगत सवालों पर इस पार्टी में आए और यहां से गए लोगों में कभी कोई स्पष्टता नहीं थी। राजनीति तय करने के सवाल पर आम आदमी पार्टी के भीतर तीस कमेटियां बनी थीं। उसमें जेएनयू के कई प्रोफेसर थे। नक्सल सवाल के ऊपर प्रकाश सिंह कमेटी को लीड करते थे। पत्रकार परंजय गुहा ठाकुरता एक कमेटी के अध्यक्ष थे। योगेंद्र यादव के राजनीतिक गुरु प्रो. राकेश सिन्हा (बनारस वाले) सक्रिय रूप से दो कमेटियों में थे- एक आर्थिक कमेटी में और दूसरे नक्सल से जुड़ी कमेटी में। योगेंद्र यादव भी कुछ कमेटियों में समान रूप से थे। सोचिए- तीस कमेटियां और सैकड़ों बुद्धिजीवी, फिर भी पार्टी के नीति वक्तव्य को मंजूरी देने में डेढ़ साल का समय लग गया।
जिसे रियलपॉलिटिक कहते हैं, वह योगेंद्र और अरविंद के बस की बात नहीं है। इन्हें भाजपा या कांग्रेस किसी से कोई परहेज़ नहीं है। जब राजनीति स्पष्ट नहीं है, तो राजनीतिक नैतिकता भी लुचपुच है। कोई कमिटमेंट भी नहीं। ये सब मिलकर दरअसल टाइमपास कर रहे हैं। जब जो समझ आता है बोल देते हैं क्योंकि इनके पीछे किसी जनता की जवाबदेही जैसी चीज़ नहीं है। इतिहास अपने फुटनोट में इन्हें आदि इत्यादि भी नहीं लिखेगा।
लेखक अभिषेक श्रीवास्तव मिडिया विजिल के संपादक है