छतरपुर में एक रुपये में चाचा की रसोई
सर्दियों की सुबह की धूप तेज हो रही है और दोपहर आने को हैं मगर छतरपुर के किशोर सागर तालाब के सामने बडे एक परिसर के सामने लोगों की कतार बढती जा रही है। इस लंबी लाइन में कोई गरीब मजदूर है तो कोई किसान कोई विद्यार्थी है तो कोई कामकाजी महिला कोई सरकारी कर्मचारी है तो कोई पास की बिल्डिंग में काम करने वाले कारीगर। सभी इस अहाते जिसे चाचा की रसोई कहते हैं के सामने इस इंतजार में हैं कि अंदर से इशारा हो तो थाली का टोकन लेकर खाने की थाली पर टूट पड़े और अपने पेट की भूख मिटायें।
ब्रजेश राजपूत की ग्राउंड रिपोर्ट
सर्दियों की सुबह की धूप तेज हो रही है और दोपहर आने को हैं मगर छतरपुर के किशोर सागर तालाब के सामने बडे एक परिसर के सामने लोगों की कतार बढती जा रही है। इस लंबी लाइन में कोई गरीब मजदूर है तो कोई किसान कोई विद्यार्थी है तो कोई कामकाजी महिला कोई सरकारी कर्मचारी है तो कोई पास की बिल्डिंग में काम करने वाले कारीगर। सभी इस अहाते जिसे चाचा की रसोई कहते हैं के सामने इस इंतजार में हैं कि अंदर से इशारा हो तो थाली का टोकन लेकर खाने की थाली पर टूट पड़े और अपने पेट की भूख मिटायें।
कतार में खडे रतिराम बताते हैं कि पास के गांव से मजदूरी करने आये थे मगर आज काम नहीं मिला तो यहां भरपेट खाना खाने आ गये। बाजार में खाते तो सौ पचास खर्च होते और खाली हाथ घर जाते। अब यहां खाने से पैसा बचा और पेट भी भरा। पास की बिल्डिंग मेंं काम करने वाले कारीगर उमेश झांसी से यहां पर डेरा डाले हैं बताते हैं कि काम शहर में कहीं भी करें खाना खाने चाचा की रसोई में ही आते हैं। पुरूषों की कतार से अलग खडी रामरति भी बताती हैं कि गैस खत्म हो जाने और पति के बाहर काम पर जाने के कारण आज घर पर खाना नहीं बन पा रहा था तो अपने बच्चों को लेकर आ गयीं हैं एक टाइम तो ये बच्चे अच्छे से खा लेंगे इस रसोई।
बागेश्वर धाम के पंडित धीरेंद्र शास्त्री और देवप्रभाकर शास्त्री उर्फ दददा जी के विशाल पोस्टरों से सजी इस चाचा की रसोई में आखिर क्या है ये जानने के लिये हम अंदर पहुंचे तो पहले एक काउंटर था जहां पर लोग एक रूपये का टोकन लेते हैं उसके बाद उनके सामने ही स्टील की थाली सजायी जाती है जिसमें चार रोटी सब्जी दाल चावल और अचार सलाद होती है। ये थाली लेकर साफ सुथरे तरीके से बनी स्टील की बैंच और टेबल पर बैठकर भरपेट खाना खाया जाता है। इस रसोई में एक टाइम खाना मिलता है और दिन भर में करीब पांच सौ से ज्यादा लोग एक टाइम खाना खाकर चले जाते हैं। खाने का शुल्क या इसे सम्मान राशि कहें एक रूपये ही लगता है।
इस रसोई का कामकाज देखने वाले सुरेश बाबू खरे बताते हैं कि ये रसोई डेढ साल से इलाके के विधायक आलोक चतुर्वेदी उर्फ पज्जन चाचा की ओर से चलाई जा रही है जिसका काम भूखों को खाना खिलाना है। डेढ साल में तीन लाख से ज्यादा लोगों को खाना खिलाया जा चुका है। कोई भी आये हम सबका स्वागत करते हैं। भरपेट भोजन भी और वक्त मौकों त्यौहारों पर मिठाई हलुआ पुडी भी इस रसोई में मिलती है बस नशा करके आने वालों के लिये रसोई के दरवाजे बंद रहते हैं।
मगर एक रूपये ही क्यों पांच दस या मुफ्त में खाना क्यों नहीं देते इस चाचा की रसोई में इसका जवाब चाचा आलोक चतुर्वेदी ही देते हैं कि हमारा मकसद भूखों को खाना खिलाना है मगर उनका सम्मान भी बरकरार रहे तो ये रसोई है भंडारा नहीं कि मुफ्त में लोग खायें। एक रुपये का शुल्क नाम मात्र का ही है सिर्फ ये बताने के लिये कि हम आपको खाना आपके पैसों का ही खिला रहे हैं। आइये सम्मान से खाइये। रोज आइये अपने दोस्तों और परिवार को भी लाइये हमें जरा भी ऐतराज नहीं है।
आत्म सम्मान के साथ साफ सुथरी रसोई में बैठकर घर जैसा भरपेट खाना मिले तो क्या चाहिये। अरे नहीं साहब यहां तो हमारे घर से भी अच्छा खाना मिलता है सच मानिये ये रानू मिश्रा थे तो बैटरी का ऑटो चलाते हैं और काम के बीच बजाये घर जाने के अपने साथियों के साथ यहां खाना खाने अक्सर आते हैं।
कांग्रेस नेता मनोज त्रिवेदी भी मानते हैं कि खाना इतना बढिया होता है कि जब हम यहां आते हैं तो खाना खाकर ही जाते हैं आप भी खाइये और चाचा की रसोई को भोपाल तक याद करिये। रसोई में खाते खाते हम यही सोचते रहे कि यदि हर शहर मे ऐसी अनेक रसोई जन प्रतिनिधि और स्वयं सेवी संस्थाएं चलाएं तो कितना अच्छा हो।