पिछले सप्ताह हमारे एक अरबपति मित्र एक शादी समारोह में मिले। उन्होंने हमारी केरल यात्रा के बारे में बात शुरू की। हमने उन्हें जब वहां की साक्षरता और सुव्यवस्थित पर्यावरण के बारे में बताया, तो वह अचरज में पड़ गये। वह विश्व के तमाम देशों में पर्यटन और व्यवसाय कर चुके हैं। सियासी दलों की प्रभावी उपस्थिति पर जब चर्चा हुई, तो हमने बताया कि वहां के लोगों का कांग्रेस और वाम दलों के प्रति ही झुकाव और विश्वास है। इस पर उनकी त्वरित टिप्पणी आई कि क्योंकि वहां मुसलमानों की आबादी सबसे अधिक है। हमने भी त्वरित जवाब दिया कि धन कमाने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता जनाब! इस पर वह हमारा मुंह ताकने लगे। हमने उन्हें बताया कि भारत सरकार के 2021 के आंकड़े बताते हैं कि केरल में सबसे अधिक 54.73 फीसदी हिंदू हैं। मुस्लिम आबादी उनकी आधी (26.56%) भी नहीं है। ईसाई भी सिर्फ 18.38 प्रतिशत हैं। ईसाइयों का शिक्षा और स्वास्थ को बेहतर बनाने में सबसे अधिक योगदान है, जबकि हिंदू और मुस्लिम आबादी का बराबर है। वहां के लोग शिक्षित और समझदार हैं, इसलिए अभी तक सांप्रदायिक दलों की नफरत और साजिशें काम नहीं कर पाई हैं। वहां के लोग प्रेम भाव से प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं। यह जरूर है कि उत्तर भारत के कुछ सांप्रदायिक और सियासी लोग, वहां अशांति पैदा करने की फिराक में लगे रहते हैं, मगर अब तक उनका भाईचारा खत्म नहीं कर पाये हैं। केरल के पहले मुख्यमंत्री ब्राह्मण जाति से एलमकुलम मनक्कल शंकरन नम्बुदिरीपाद थे। उन्होंने जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए कहा था कि जातिगत शोषण ने केरल की नम्बूदिरी जैसी शीर्ष ब्राह्मण जाति तक का अमानवीकरण कर दिया है। उन्होंने 'नम्बूदिरी को इंसान बनाओ' का नारा देते हुए ब्राह्मण समुदाय के लोकतंत्रीकरण की मुहिम चलाई। केरल पहला राज्य है, जो जाति-धर्म के आधार पर नहीं बल्कि भाषा के आधार पर बना था। वे देश के पहले ग़ैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री भी थे।
देश की राजनीति में आजादी से पहले और बाद में ब्राह्मणों की बड़ी भूमिका रही है। पंडित जवाहर लाल नेहरू पहले प्रधानमंत्री बने तो देश के एक दर्जन राज्यों के पहले मुख्यमंत्री ब्राह्मण थे। कई बड़े राज्यों तमिलनाडू, केरल, तेलंगाना, उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री ब्राह्मण ही मिलते हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके संगठनों के अधिकतर प्रचारक और प्रमुख ब्राह्मण ही होते थे। अब वहां बहुतायत धन जुटा सकने वाले बनियों की है। समझा जा सकता है कि मध्य प्रदेश के गठन के बाद 1990 तक 34 सालों में 20 साल राज्य में पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्री रहे थे। इसी तरह राजस्थान में भी 1949 से 1990 के बीच राज्य को पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्री मिले थे। सबसे अधिक ब्राह्मण आबादी वाले उत्तर प्रदेश में भी पिछले तीन दशकों में कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बन पाया। साल देशी की आजादी से लेकर 1990 तक छह ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने। अब हालात बिल्कुल उलट हैं। इस वक्त देश की राजनीति हो या प्रदेश की राजनीति, दोनों में ब्राह्मणों की उपस्थिति नजर नहीं आती है। देश में ममता बनर्जी एकमात्र ब्राह्मण मुख्यमंत्री हैं। ब्राह्मणों की यह तब है जबकि उनकी जातिगत आबादी देश के आधे राज्यों में दूसरे या तीसरे स्थान पर है।
आंकड़े बताते हैं कि आजादी के आंदोलन में सबसे अधिक मध्यम और उच्च मध्यमवर्ग के लोग थे। इनमें भी अधिसंख्य ब्राह्मण ही थे। उस वक्त यही समुदाय सबसे शिक्षित और ज्ञानवान था, इसलिए आजादी के बाद भी राजनीति और प्रशासन में इनका आधिपत्य रहा। शिक्षा के प्रसार और पिछड़े-दलितों में अधिकारों को लेकर सजगता से वे आगे बढ़े। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से पिछड़ों के साथ ही दलितों में अधिक से अधिक पद पाने की होड़ मची और वे आगे निकलते चले गये। हमें पता है कि कांग्रेस की राजनीति में ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके संगठनों में भी पहले ब्राह्मणों की ही तूती बोलती थी। 1977 के राजनीतिक परिदृष्य ने सबकुछ बदलना शुरू कर दिया। जनता पार्टी की सरकार के वक्त ब्राह्मणों को पीछे धकेलना शुरू किया गया। 1989 में वीपी सिंह की अगुआई में भाजपा के सहयोग से बनी जनता दल सरकार में ब्राह्मण नेताओं की हैसियत दोयम दर्जे की हो गई। गैर कांग्रेसी सरकारों ने ब्राह्मणों को किनारे लगाने का काम किया। मंडल-कमंडल की राजनीति शुरू होने के बाद ब्राह्मण लगातार पिछड़ता गया और पिछलग्गू बन गया। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल सहित आधा दर्जन राज्यों में ब्राह्मण दूसरे नंबर पर सबसे बड़ा वोट बैंक है। यूपी में यह दलितों के बाद सबसे बड़ा वोट बैंक है। आंकड़े बताते हैं कि 1990 तक कांग्रेस का मूल मतदाता ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम होता था। अन्य जातियां ब्राह्मणों की अनुगामिनी होती थीं, जिससे वह सत्ता का बड़ा आधार बनते थे। कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी, जिन्हें उत्तर प्रदेश का विकास पुरुष कहा जाता था, आखिरी ब्राह्मण मुख्यमंत्री थे। उनके बाद कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच सका। बिहार में भी कांग्रेस के बाद किसी ने भी ब्राह्मण को मुख्यमंत्री नहीं बनाया। यही स्थिति मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी है।
हम उत्तर प्रदेश के परिपेक्ष्य में देखें तो 12 फीसदी ब्राह्मण, 18 फीसदी मुस्लिम और 21 फीसदी दलित मिलकर कांग्रेस को सरकार सौंपते थे। इनके अलावा कुछ पिछड़ों और अन्य सवर्ण जातियों के भी वोट उसे हासिल होते थे। उस स्थिति में न दलित उत्पीड़न हो पाता था और न मुस्लिम समुदाय पर हमला। ब्राह्मण इन सभी के साथ सत्ता संचालन करता था, जो निष्पक्षता पर जोर देता था। यह सामाजिक न्याय की एक बेहतरीन तस्वीर होती थी, जिसमें सबका साथ और सबका विकास हाथ के पंजे से हो रहा था। मंडल-कमंडल की राजनीति एक दूसरे के साझीदार बनकर शुरू हुई और सामाजिक न्याय का ढांचा भरभरा गया। वैसे तो इस ढांचे को 1967 से जनसंघ, वामपंथ और समाजवाद की माला जपने वालों ने ढहाना शुरू किया था, जो 1989 में फलित होता दिखा। देश के तमाम राज्यों और केंद्र में इन विचारधाराओं के नेताओं ने मिलकर सरकारें बनाईं। कांग्रेस के सत्ता से बाहर होते ही ब्राह्मणों का वर्चस्व टूटने लगा। यह स्थिति आ गई कि मंडल-कमंडल के गठजोड़ के चलते सरकारी नौकरियों में भी ब्राह्मणों की जगह खत्म होने लगी। राजनीति में भी उन्हें हासिये पर ला दिया गया। उनका इस्तेमाल सिर्फ "यूज एंड थ्रो" की नीति पर होने लगा।
देश के पांच राज्यों में चुनाव के दौरान एक बार फिर से सभी दल ब्राह्मणों के निर्णायक वोट पाने के लिए चारा डाल रहे हैं। हिंदूवदी होने का दम भरने के कारण अधिकतर ब्राह्मण मतदाता भाजपा के साथ चला जाता है। हालांकि, चुनावी गणित बताता है कि उत्तर प्रदेश में जब-जब ब्राह्मण मतदाता ने करवट बदली है, चुनावी बाजी पलट गई है। भाजपा के नेताओं का मानना है कि अब ब्राह्मणों के पास उनके सिवा कोई ठौर नहीं है। वह तो धक्के खाकर भी उनके पास ही आएगा। दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उनकी ताकत देख चुकी है तो वे भी उन पर डोरे डाल रहे हैं। ब्राह्मणों की मूल पार्टी कांग्रेस में ब्राह्मण कांग्रेस का एक सेल बना है मगर सालों तक ब्राह्मणों को सबकुछ देने वाली कांग्रेस से वे दूर हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह ब्राह्मणों की वह पीढ़ी है, जिसने न आजादी का संघर्ष देखा है, और न ही देश को बनने का संघर्ष। सुविधाभोगी ब्राह्मण युवा अब उतना ज्ञानवान भी नहीं रहा कि सभी को अपने पीछे चला सके। हालात ये हैं कि वह भी गाय, गोबर और गौमूत्र दिमाग में भरे घूम रहे तमाम लोगों की तरह ही सोशल मीडिया के ज्ञान से पंडित बन रहा है। यही कारण है कि ब्राह्मण सभी राज्यों और स्थानों पर उपेक्षित है। इस दशा के लिए भी कोई और नहीं बल्कि वह खुद दोषी है।
ब्राह्मण को अगर फिर से देश और प्रदेश की सत्ता के साथ ही तमाम निर्णायक स्थानों पर जगह पानी है, तो उसे अपने ज्ञान का दायरा बढ़ाकर वापस लोगों को अपना अनुयायी बनाना होगा। जब लाइन उससे शुरू होगी, तब उसका मान-सम्मान वापस लौटेगा, अन्यथा वह इसी तरह लुटता-पिटता रहेगा। उसकी बेटियां खुशी दुबे की तरह बगैर किसी जुर्म के जेल की सलाखों में पड़ी रहेंगी और उसको इंसाफ दिलाने की लड़ाई लड़ने वाला कोई नहीं होगा।
(लेखक डेली वर्ल्ड के ग्रुप एडीटर हैं।)