जदीद उर्दू फ़िक्शन का बादशाह -प्रेमचंद

उर्दू का अफ़सानवी अदब जितना प्रेमचंद से प्रभावित हुआ उतना किसी दूसरे लेखक से नहीं हुआ। प्रेमचंद की एक बड़ी ख़ूबी उनकी सादा और सरल भाषा और शफ़्फ़ाफ़-ओ-बेतकल्लुफ़ लेखन शैली है।

Update: 2022-07-31 09:13 GMT


अब्दुल ग़फ़्फ़ार

उर्दू का अफ़सानवी अदब जितना प्रेमचंद से प्रभावित हुआ उतना किसी दूसरे लेखक से नहीं हुआ। प्रेमचंद की एक बड़ी ख़ूबी उनकी सादा और सरल भाषा और शफ़्फ़ाफ़-ओ-बेतकल्लुफ़ लेखन शैली है।उन्होंने सामान्य बोल-चाल की भाषा को रचनात्मक भाषा में बदल दिया और काल्पनिक साहित्य को ऐसी जीवंत और कोमल शैली दी जो बनावट और औपचारिकता से मुक्त है। उन्होंने ऐसे वक़्त लिखना शुरू किया था जब इश्क़ व मुहब्बत की फ़र्ज़ी दास्तानों और तिलिस्मी क़िस्सा कहानियों का दौर-दौरा था। प्रेमचंद ने आकर उस तूफ़ानी दरिया के धारे का रुख मोड़ दिया और कहानी को एक नए मोड़ पर ला खड़ा किया। प्रेमचंद ने अपने अफ़सानों और नाविलों में क़ौमी ज़िंदगी के बुनियादी हक़ायक़ की तर्जुमानी करके उर्दू अदब को नए किरदार, नए माहौल और नए ज़ायक़े से रूशनाश कराया। वो अपने पाठकों को शहर की रौशन और रंगीन दुनिया से निकाल कर गांव की अँधेरी और बदहाल दुनिया में ले गए। ये उर्दू के अफ़सानवी अदब में एक नई दुनिया की दरयाफ़्त थी। उस दुनिया की वुस्अत और गहराई को समझे बिना प्रेमचंद के मुताल्आ का हक़ अदा नही हो सकता। क्योंकि प्रेमचंद की कला का सौंदर्य और उसकी मूल सच्चाईयां उसी व्यापक परिदृश्य में परवरिश पाकर इस क़ाबिल हुईं कि उर्दू और हिन्दी कथा साहित्य की स्थायी परंपरा का दर्जा हासिल कर सकें।

"पूस की रात" से एक मिसाल :-

हल्कू ने आकर अपनी बीवी से कहा, "शहना आया है लाओ जो रुपये रखे हैं उसे दे दो। किसी तरह गर्दन तो छूटे।"

मुन्नी बहू झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिरकर बोली, "तीन ही तो रुपये हैं, दे दूँ, तो कम्बल कहाँ से आएगा। माघ-पूस की रात खेत में कैसे कटेगी! उससे कह दो फ़सल पर रुपये देंगे। अभी नहीं है।"

हल्कू थोड़ी देर तक चुप खड़ा रहा और अपने दिल में सोचता रहा पूस सर पर आ गया है, बग़ैर कम्बल के खेत में रात को वो किसी तरह सो नहीं सकता। मगर शहना मानेगा नहीं, घुड़कियाँ देगा। ये सोचता हुआ वो अपना भारी जिस्म लिए हुए (जो उसके नाम को ग़लत साबित कर रहा था) अपनी बीवी के पास गया और ख़ुशामद करके बोला, "ला दे दे गर्दन तो किसी तरह से बचे। कम्बल के लिए कोई दूसरी तदबीर सोचूँगा।"

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आँखें टेढ़ी करती हुई बोली, "कर चुके दूसरी तदबीर। ज़रा सुनूँ कौन तदबीर करोगे? कौन कम्बल ख़ैरात में दे देगा। न जाने कितना रुपया बाक़ी है जो किसी तरह अदा ही नहीं होता। मैं कहती हूँ तुम खेती क्यों नहीं छोड़ देते। मर-मर कर काम करो, पैदावार हो तो उस से क़र्ज़ा अदा करो। चलो छुट्टी हुई, क़र्ज़ा अदा करने के लिए तो हम पैदा ही हुए हैं। ऐसी खेती से बाज़ आए। मैं रुपये न दूँगी, न दूँगी।"

हल्कू रंजीदा हो कर बोला, "तो क्या गालियाँ खाऊँ।"

मुन्नी ने कहा, "गाली क्यों देगा? क्या उसका राज है?" मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भवें ढ़ीली पड़ गईं। हल्कू की बात में जो दिल दहलाने देने वाली सदाक़त थी। मालूम होता था कि वो उसकी जानिब टकटकी बाँधे देख रही थी। उसने ताक़ पर से रुपये उठाए और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली, "तुम अब की खेती छोड़ दो। मज़दूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी अच्छी खेती है, मज़दूरी कर के लाओ, वो भी उसमें झोंक दो। उस पर से धौंस।"

हल्कू ने रुपये लिए और इस तरह बाहर चला, मालूम होता था, वो अपना कलेजा निकाल कर देने जा रहा है। उसने एक-एक पैसा काट कर तीन रुपये कम्बल के लिए जमा किए थे। वो आज निकले जा रहे हैं। एक-एक क़दम के साथ उसका दिमाग़ अपनी नादारी के बोझ से दबा जा रहा था।....

प्रेमचंद के लेखन में बीसवीं सदी के शुरुआती 30-35 सालों की सियासी और सामाजी ज़िंदगी की जीती-जागती तस्वीरें मिलती हैं। उन्होंने अपने किरदार आम ज़िंदगी से लिये लेकिन ये आम किरदार प्रेमचंद के हाथों में आकर ख़ास हो जाते हैं। वो अपने किरदारों के अन्दर झाँकते हैं, उनमें छुपे हुए अच्छे-बुरे गुणों का अनुभव करते हैं, उनके अंदर जारी कश्मकश को महसूस करते हैं, और फिर उन किरदारों को इस तरह पेश करते हैं कि वो किरदार पाठक को जाने-पहचाने मालूम होने लगते हैं। औरत की अज़मत, उसके नारीत्व के आयाम और उसके अधिकारों की पासदारी का जैसा एहसास प्रेमचंद के यहां मिलता है वैसा और कहीं नहीं मिलता। प्रेमचंद एक आदर्शवादी, यथार्थवादी लेखक थे। उनके लेखन में आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच संतुलन की तलाश की एक निरंतर प्रक्रिया जारी नज़र आती है।

"बड़े घर की बेटी" से एक मिसाल :-

एक रोज़ दोपहर के वक़्त लाल बिहारी सिंह दो मुरग़ाबियाँ लिए हुए आए और भावज से कहा, जल्दी से गोश्त पका दो, मुझे भूक लगी है। आनंदी खाना पकाकर उनकी मुंतज़िर बैठी थी। गोश्त पकाने बैठी मगर हाँडी में देखा तो घी पाव भर से ज़्यादा न था। बड़े घर की बेटी, किफ़ायत-शआरी का सबक़ अभी अच्छी तरह न पढ़ी थी। उसने सब घी गोश्त में डाल दिया। लाल बिहारी सिंह खाने बैठे तो दाल में घी न था। "दाल में घी क्यूँ नहीं छोड़ा?"

आनंदी ने कहा, "घी सब गोश्त में पड़ गया।"

लाल बिहारी, "अभी परसों घी आया है। इस क़दर जल्द उठ गया।"

आनंदी, "आज तो कुल पाव भर था। वो मैंने गोश्त में डाल दिया।"

जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है। उसी तरह भूक से बावला इंसान ज़रा-ज़रा बात पर तुनक जाता है। लाल बिहारी सिंह को भावज की ये ज़बान-दराज़ी बहुत बुरी मालूम हुई। तीखा होकर बोला। "मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो।"

औरत गालियाँ सहती है, मार सहती है, मगर मैके की निंदा उससे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह फेर कर बोली, "हाथी मरा भी तो नौ लाख का। वहाँ इतना घी रोज़ नाई-कहार खा जाते हैं।"

लाल बिहारी जल गया। थाली उठा कर पटक दी। और बोला, "जी चाहता है कि तालू से ज़बान खींच लें।"

आनंदी को भी ग़ुस्सा आ गया। चेहरा सुर्ख़ हो गया। बोली, "वो होते तो आज इसका मज़ा चखा देते।"

अब नौजवान उजड्ड ठाकुर से ज़ब्त न हो सका। उसकी बीवी एक मामूली ज़मींदार की बेटी थी। जब जी चाहता था उस पर हाथ साफ़ कर लिया करता था। खड़ाऊँ उठा कर आनंदी की तरफ़ ज़ोर से फेंकी और बोला, "जिसके गुमान पर बोली हो, उसे भी देखूँगा और तुम्हें भी।"

आनंदी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी, सर बच गया। मगर उँगली में सख़्त चोट आई। ग़ुस्से के मारे हवा के हिलते हुए पत्ते की तरह काँपती हुई अपने कमरे में आकर खड़ी हो गई। औरत का ज़ोर और हौसला, ग़ुरूर-ओ-इज़्ज़त शौहर की ज़ात से है, उसे शौहर ही की ताक़त और हिम्मत का घमंड होता है। आनंदी ख़ून का घूँट पी कर रह गई।....

मुंशी प्रेमचंद 31 जुलाई 1880 को बनारस के नज़दीक लमही गांव में पैदा हुए। उनका असल नाम धनपत राय था और घर में उन्हें नवाब राय कहा जाता था। इसी नाम से उन्होंने अपनी अदबी ज़िंदगी का आग़ाज़ किया। उनके पिता अजायब राय डाकखाने में 20 रुपये मासिक के मुलाज़िम थे और ज़िंदगी तंगी से बसर होती थी। ज़माने के मुताबिक़ प्रेमचंद ने आरंभिक शिक्षा गांव के मौलवी साहब से मकतब में हासिल की, फिर उनके पिता का तबादला गोरखपुर हो गया तो उन्हें वहां के स्कूल में दाख़िल किया गया। लेकिन कुछ समय बाद उनके पिता अपने गांव वापस आ गए। जब प्रेमचंद की उम्र सात साल थी तो उनकी मां का इंतक़ाल हो गया और पिता ने दूसरी शादी कर ली। उसके बाद घर का माहौल तनावपूर्ण रहने लगा। पंद्रह साल की उम्र में उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उनकी शादी उनसे ज़्यादा उम्र की एक कुरूप लड़की से कर दी गई। कुछ दिन बाद अजायब राय चल बसे और बीवी के अलावा सौतेली माँ और दो सौतेले भाईयों की ज़िम्मेदारी प्रेमचंद के सर पर आ गई। उन्होंने अभी दसवीं जमात भी नहीं पास की थी। वो रोज़ाना नंगे पैर दस मील चलकर बनारस जाते, ट्युशन पढ़ाते और रात को घर वापस आकर दीये की रौशनी में पढ़ते। प्रेमचंद का अपनी पहली पत्नी से निबाह नहीं हो सका और वो अपने मायके चली गईं। उनके अलग हो जाने के बाद प्रेमचंद ने समाज और घर वालों की मर्ज़ी ख़िलाफ़ एक कमसिन विधवा शिवरानी देवी से दूसरी शादी कर ली। उनसे एक बेटी कमला और दो बेटे श्रीपत राय और अमृत राय पैदा हुए।

1920 में, जब असहयोग आंदोलन शबाब पर था और जलियांवाला बाग़ का वाक़िया गुज़रे थोड़ा ही अरसा हुआ था, गांधी जी गोरखपुर आए। उनके एक भाषण का प्रेमचंद ने ये असर लिया कि अपनी बीस साल की नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और एक बार फिर आर्थिक तंगी का शिकार हो गए। 1922 में उन्होंने चर्खों की दुकान खोली जो नहीं चली तो कानपुर में एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली। यहां भी नहीं टिक सके। तब उन्होंने बनारस में सरस्वती प्रेस लगाया जिसमें घाटा हुआ और बंद करना पड़ा। 1925 और 1929 में दो बार उन्होंने लखनऊ के नवलकिशोर प्रेस में नौकरी की, पाठ्य पुस्तकें लिखीं और एक हिन्दी पत्रिका "माधुरी" का संपादन किया। 1929 में उन्होंने हिन्दी/उर्दू पत्रिका "हंस" निकाली। सरकार ने कई बार उसकी ज़मानत ज़ब्त की लेकिन वो उसे किसी तरह निकालते रहे। 1934 में वो एक फ़िल्म कंपनी के बुलावे पर बंबई गए और एक फ़िल्म "मज़दूर" की कहानी लिखी लेकिन उद्योगपतियों ने बंबई में उसकी नुमाइश पर पाबंदी लगवा दी। ये फ़िल्म दिल्ली और लाहौर में रीलीज़ हुई लेकिन बाद में वहां भी पाबंदी लग गई क्योंकि फ़िल्म से उद्योगों में तसादुम का ख़तरा था। उस फ़िल्म में उन्होंने ख़ुद भी मज़दूरों के लीडर का रोल अदा किया था। बंबई में उन्हें फिल्मों में और भी लेखन का काम मिल सकता था लेकिन उन्हें फ़िल्मी दुनिया के तौर-तरीक़े पसंद नहीं आए और वो बनारस लौट गए। 1936 में प्रेमचंद को लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ (अंजुमन तरक़्क़ीपसंद तहरीक) का अध्यक्ष चुना गया। प्रेमचंद की ज़िंदगी के अंतिम दिन बेहद तकलीफ़ में गुज़रे। 8 अक्तूबर 1936 को उनका स्वर्गवास हो गया। (लेखक:अब्दुल गफ्फार)

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