आज क्रन्तिकारी कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की जयंती, जिनकी वो पंक्ति इंदिरा को भी सत्ता से बेदखल कर दिया था
कविताओं से भारतीय समाज का रिश्ता पुराना है. अगर बात ऐसे कवियों की हो जिन्होंने आजादी की लड़ाई से लेकर, उसके बाद तक अपनी लेखनी से जनता को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक किया हो, तो उनमें रामधारी सिंह दिनकर का नाम जरूर आता है। जो अपने लिखे के लिए कभी विवादित नहीं रहे, जिंदगी के लिए भले ही थोड़े-बहुत रहे हों. वे ऐसे कवि रहे जो एक साथ पढ़े-लिखे, अपढ़ और कम पढ़े-लिखों में भी बहुत प्रिय हुए. यहां तक कि अहिंदी भाषा-भाषियों के बीच भी वे उतने ही लोकप्रिय थे. पुरस्कारों की झड़ी भी उनपर खूब होती रही, उनकी झोली में गिरनेवाले पुरस्कारों में बड़े पुरस्कार भी बहुत रहे - साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मविभूषण, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार इस बात की तस्दीक खुद करते हैं. बावजूद इसके वे धरती से जुड़े लोगों के मन को भी उसी तरह छूते रहे।
दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगुसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था. तीन साल की उम्र में सिर से पिता का साया उठ जाने के कारण उनका बचपन अभावों में बीता. लेकिन घर पर रोज होने वाले रामचरितमानस के पाठ ने दिनकर के भीतर कविता और उसकी समझ के बीज बो दिए थे. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने हिंदी साहित्य में न सिर्फ वीर रस के काव्य को एक नई ऊंचाई दी, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया.
70-80 के दशक में भी नेता अक्सर कविताओं का सहारा लेकर अपने विरोधियों पर हमला बोलते थे. रामधारी सिंह दिनकर और दुष्यंत कुमार की कई कविताओं का प्रयोग नेता कर रहे हैं. दिनकर ऐसे कवियों में से हैं जिनकी कविताएं आम आदमी से लेकर बड़े-बड़े विद्वान पसंद करते हैं. देश की आजादी की लड़ाई से लेकर आजादी मिलने तक के सफर को दिनकर ने अपनी कविताओं द्वारा व्यक्त किया है. यहीं नहीं देश की हार जीत और हर कठिन परिस्थिति को दिनकर ने अपनी कविताओं में उतारा. इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के समय उन्होंने लिखा था-
''सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.''
''सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'' इस कविता का प्रयोग लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा इंदिरा गांधी के विरोध में किया गया था. ''सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'' के नारे के साथ दिल्ली के रामलीला मैदान में मौजूद लोग उस समय उसी तरह जेपी के पीछे चल पड़े थे,दिनकर की पहली रचना 'प्राणभंग' मानी जाती है. इसे उन्होंने 1928 में लिखा था. इसके बाद दिनकर ने 'रेणुका', 'हुंकार', 'कुरुक्षेत्र', 'बापू', 'रश्मिरथी' लिखा. 'रेणुका' और 'हुंकार' में देशभक्ति की भावना इस कदर भरी हुई थी कि घबराकर अंग्रेजों ने इन किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया था. दिनकर ने निर्भीक होकर अंग्रेजों के खिलाफ तो लिखा ही, लेकिन आजादी के बाद के सत्ता चरित्र को भी उजागर करने से नहीं हिचके. दिनकर जवाहर लाल नेहरू के प्रशंसकों में से थे. लेकिन 1962 के युद्ध में सैनिकों की मौत के मुद्दे पर वह नेहरू की आलोचना से भी नहीं चूके।
स्वतन्त्रतापूर्व के इस विद्रोही कवि और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के इस राष्ट्रकवि ने देश में नवजीवन के संचार के लिए शुरू में 'परशुराम' और 'कर्ण' जैसे उपेक्षित पात्रों को चुना, वीरता और पुरुषार्थ जिनका निज स्वभाव थी. इनका 'कुरुक्षेत्र' भी महाभारत की कहानी को केंद्र में लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया. कुरुक्षेत्र कहता है कि - युद्ध कोई नहीं चाहता, लेकिन जब युद्ध के सिवाय और कोई चारा नहीं हो तो लड़ना ही आखिरी विकल्प है. अंग्रेजी सरकार की नौकरी के बावजूद उनका रवैया सदा उस शासन के विरुद्ध रहा. सरकार को भी यह महसूस होने लगा था कि वे शासन विरोधी हैं. इसका उदाहरण चार साल के वक़्त के बीच हुए उनके 22 तबादले हैं और बार-बार उनकी पेशी भी. 'हुंकार' के लिए जब उन्हें कहा गया कि उन्होंने इसे लिखने के लिए इजाजत क्यों नहीं ली, तो उनका साफ़ जवाब यह था – 'मेरा भविष्य इस नौकरी में नहीं साहित्य में है और इजाजत लेकर लिखने से बेहतर मैं यह समझूंगा कि मैं लिखना छोड़ दूं.