'मिशन शक्ति' : हाईकोर्ट पर उप्र सरकार का हल्लाबोल, पढिये दिमाग की बत्ती जल जायेगी जानकर!
यह भी सोचना होगा कि कहीं यह मुख्यमंत्री के लिए ख़तरे की घंटी तो नहीं? घंटी है तो इसे बाँध कौन रहा है? गृहमंत्री या प्रधानमंत्री स्वयं?
अनिल शुक्ल
'आप बड़े तीसमारखाँ हैं तो हम पर छींटे डालने से पहले ज़रा अपने गिरेबान में झांकिए!' कहने के इरादे यही हैं लेकिन 'अनुरोध' की नर्म भाषा में उप्र० सरकार ने उस इलाहबाद हाईकोर्ट के ख़िलाफ़ 'हल्ला बोल' दिया है जिसने 29-30 सितंबर की रात परिजनों की अनुपस्थिति में हाथरस पुलिस द्वारा निर्भया के शव को आनन-फ़ानन में जलाने की कार्रवाई का स्वतः संज्ञान लेते हुए इसे असंवैधानिक माना और अपने यहाँ प्रदेश के छोटे-बड़े अधिकारियों की पेशी तलब कर डाली।
'हल्लाबोल' की यह सारी कार्रवाई एक पत्र के जरिये हुई है। मुख्यमंत्री की ओर से 'हाईकोर्ट' को भेजे एक पत्र में राज्य सरकार के 'मिशन शक्ति' का उल्लेख करते हुए इसे क़ामयाब बनाने का 'अनुरोध' किया गया है। अब यह 'मिशन शक्ति' क्या है? ऊपर से देखने में यह बड़ी अनोखी और शानदार योजना दिखती है लेकिन है बेहद कूटनीतिक और कपटपूर्ण। बेशक़ यह प्रदेश सरकार की 'योजना' है लेकिन इसका सारा दारोमदार ' उच्च न्यायालय' पर डाल दिया गया है, वह भी बिना उसे विश्वास में लिए।
मुख्यमंत्री की ओर से प्रदेश के अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) अवनीश अवस्थी द्वारा इलाहबाद हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार को भेजे इस ख़त में अपने उपरोक्त 'मिशन शक्ति' का उल्लेख करते हुए लिखा है "नवरात्रि के दौरान (17-25 अक्टूबर) चलने वाले उक्त 'मिशन' के सन्दर्भ में मुझे आपसे यह अनुरोध करने का आदेश मिला है कि माननीय उच्च न्यायलय अपने अधीनस्थ ज़िला न्यायालयों को 'पॉस्को' और 'महिला विरुद्ध अपराधों' की सुनवाई और निबटान को तुरत गति से करने को निर्देशित करें ताकि उक्त 'मिशन' को कामयाब' बनाया जा सके।
एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध अनुसन्धान ब्यूरो) के आंकड़ों के हवाले से राज्य सरकार ने अपने इस पत्र में कहा है कि 'सन 2019 में प्रदेश' में 15,116 मुक़दमों को निबटाया गया है जो देश में सर्वाधिक है। इनमें 8559 मामलों में सजा हुई है। इसके अलावा इसी वर्ष महिला सम्बन्धी अपराधों के 1.84 लाख मामले लंबित हैं जिनमें 20 हज़ार बलात्कार से सम्बंधित हैं और इसी प्रकार 40 हज़ार 'पॉस्को' के मामले लंबित हैं। 'इसीलिये हम चाहते हैं कि नवरात्रि के दौरान (17 अक्टूबर-25 अक्टूबर) इस सन्दर्भ में एक विशेष अभियान चलाया जाए ।
ज़ाहिर है कि न्याय व्यवस्था और सञ्चालन की जो वर्तमान दशा है, उसके चलते लंबित इन सवा 2 लाख मुक़दमों को 9 दिन में निबटना असंभव है। तब क्या इस बात का पता राज्य सरकार को नहीं था? यदि वह अदालतों में लंबित पड़े बाल और महिला विरोधी अपराधों के निबटान के लिए सचमुच गंभीर थी तो उसे न्यायाधीशों के सहयोग से एक ऐसी 'कमेंटी' गठित करनी चाहिए थी जो इस समूचे मामले का एक समयबद्ध हल निकाल पाती। सबसे बड़ी बात यह है कि न्यायपालिका से जुड़े किसी 'मिशन' को इतने कम समय में बिना उच्च न्यायलय को विश्वास में लिए 'लॉन्च' किया जा सकता है? क्या यह क़ामयाब हो सकता है? यदि नहीं तो इसकी उद्घोषणा क्यों हुई? क्या उच्च न्यायलय के सिर नाक़ामयाबी का ठीकरा फोड़ने की दृष्टि से? हाथरस मामले में सरकार और उसके अधिकारियों की जैसी भद्द पिटी है, क्या यह इसका जवाब है? इस राजनीति के पीछे क्या है?
10 अप्रैल, 2018 को लंदन के वेस्टमिनिस्टर हॉल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कहा- "बलात्कार तो बलात्कार है। इसका राजनीतिकरण मत करें। जब किसी छोटी बलिका के साथ बलात्कार होता है तो उसके लिए कितना दर्दनाक होता है? आप कैसे पूछ सकते हैं कि तुम्हारी सरकार में कितने बलात्कार हुए थे या हमारी सरकार में कितने बलात्कार हुए ? बलात्कार तो बलात्कार होता है ! इसका राजनीतिकरण मत करें।"
यह वह दौर था जब कठुआ और उन्नाव में हुए बलात्कार के बाद अपराधियों के बचाव में कुंडली मार कर बैठ गई भाजपा की राज्य सरकारों की भूमिका पर सारी दुनिया में सवाल उग आए थे। विवेकवान प्रधानमंत्री विवेकपूर्ण स्टाइल में लंदन में उन्हीं सवालों का जवाब दे रहे थे।
29-30 सितम्बर 2020 की रात बूलगढ़ी के खेत में चंद लकड़ियों के बीच पेट्रोल और डीज़ल में भीग कर सुलगते निर्भया के क्षत-विक्षत शव ने प्रधानमंत्री से ज़रूर पूछा होगा-"यह बात आप यूपी के मुख्यमंत्री से क्यों नहीं कहते?"
राजनीति की इस लहूलुहान धारा में अब केंद्र सरकार और उसका गृह मंत्रालय भी शामिल हो गया है? बीते शनिवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक नयी एडवाइज़री (परामर्शी) जारी कर के राज्यों को सख़्त हिदायत दी- औरतों के विरुद्ध होने वाले अपराधों के मामलों में फ़ौरन एफआइआर लिखी जाए और सारी जांच 2 महीने में पूरी कर ली जाए !
हाथरस, झाँसी, बलरामपुर, बुलंदशहर और न मालूम कितने शहरों के कितने क़िस्से सुन-सुन कर ज़ख़्मी हुए लोगों ने जब इन घोषणाओं को सुना तो उन्हें जैसे बड़ी रहत मिली होगी। वे लेकिन जब इनकी जड़ में जाकर स्वयं से पूछने लग गए होंगे कि इसमें नया क्या है? यह सारी बातें तो क़ानून की शक़्ल में संसद सन 2013 में ही पारित कर चुकी है। बीच-बीच में केंद्र का गृह और स्वास्थ्य मंत्रालय इन पर अपनी 'गाइडलाइन' और 'एडवाइज़री' भी जारी कर चुके हैं तो अब आकर यह निर्णय क्यों? क्या यह बिहार चुनावों की पृष्ठभूमि में उभरा एक राजनीतिक 'ढोंग' है और केंद्र हाथरस प्रकरण में बिखरे खून के छींटों से अपना दामन बचाना चाहता है ? यह भी सोचना होगा कि कहीं यह मुख्यमंत्री के लिए ख़तरे की घंटी तो नहीं? घंटी है तो इसे बाँध कौन रहा है? गृहमंत्री या प्रधानमंत्री स्वयं?