देश का सबसे पिछड़ा राज्य, सबसे ज्यादा बेरोजगारी, सबसे ज्यादा आउटवर्ड इमिग्रेशन, इकॉनमिक खंडहर का जीता जागता नमूना!
इसकी शुरुआत कैसी थी??
इसकी शुरुआत कैसी थी??
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1947 में बिहार की शुरुआत वैसी ही थी, जैसे शेष भारत की थी। आर्थिक खंडहर, मुर्दा शांति, डरावना वीरान रेगिस्तान। बम्बई प्रान्त ( गुजरात+महाराष्ट्र) और मद्रास के कुछ हिस्से छोड़कर, सारे भारत का यही हाल था।
तो बिहार भी वैसा ही था। लेकिन कृषि इसकी ताकत थी, तो उस पर जोर दिया गया। पचास के दशक में देश का एक चौथाई शक्कर, बिहार देने लगा। फलों और हार्टिकल्चर में इसका योगदान 50 प्रतिशत के लगभग था। चावल गेंहूं, देश का 30 प्रतिशत बिहार उगाता।
डालमिया नगर, एग्रो प्रोसेसिंग इंडस्ट्री हब बना। शुगर मिल्स लगाई गई। उद्योग और भी आये। बरौनी में रिफाइनरी, फर्टिलाइजर कारखाना, थर्मल पावर प्लांट लगे। फतूआ में स्कूटर कारखाना आया, मुजफ्फरपुर में पावर प्लांट, मोकामा में भारत वैगन एंड इंजीनियरिंग आये। बोकारो में सेल का प्लांट था। जमशेदपुर में टाटा स्टील प्लांट था ही, वहाँ और भी उद्योग लगे।
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यह एकीकृत बिहार था। दक्षिणी हिस्से में अधिक उद्योग आये। बोकारो, धनबाद, रांची, नैचुरल रिसोर्स से नजदीकी की वजह से कोई भी वहीं उद्योग लगाना चाहता। जो इलाका अब झारखंड है, तब बिहार था।
नैचुरल रिसोर्सेस में धरती का शायद सबसे रिच हिस्सा तब बिहार के पास था। यह क्षेत्र आदिवासियों की उपेक्षा, और बिहारियों की दादागिरी से तंग आकर अलग होने की मांग कर रहा था।
मांग पुरानी थी, मगर इकोमिकली फिजीबल नही थी। तो सरकारें ठुकराती रहीं। मगर फिर एक सरकार आयी, जिसने एक चुनाव के राजनीतिक लाभ के लिए झारखंड को अलग कर दिया।
फिर बिहार के पास कुछ बचा नही।
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झारखंड भी कोई खास फायदा नही उठा सका है। जब से आजाद हुआ, देश मे निजीकरण और एफिशिएंसी का जोर है। इसलिए सरकार बोकारो या बरौनी बनाने का जिम्मा नही लेती, पहले मौके में उसे बेच देती हैं।
एक एक खदान बिक गयी, उद्योग बिके। गोड्डा में एक अकेले पावर प्लांट के लिए टैक्स फ्री SEZ बना है। जिसमे कोयला, बगल के झरिया से नही, सात समंदर पार ऑस्ट्रेलिया से आएगा। और बिजली आम झारखंडी नही, बांग्लादेश खरीदेगा। नो प्राइजेज फ़ॉर गेसिंग, कि ये किसका प्लांट है।
झारखंड, जिसे देश का रिचेस्ट स्टेट हो जाना चाहिए था, नेता-व्यापारी लूटतंत्र का शिकार हो गया है। उधर बिहार सामाजिक न्याय के नाम पर एक अलग तरह की राजनीति का शिकार हुआ।
इसमे क्रांति तो भतेरी होती है
आर्थिक दर्शन नही होता।
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आज गीत बनते है, पूछा जाता है- बिहार में का बा??
आज बिहार केंद्र को 25 पैसे देता है, उसे खर्च करने को 1 रुपया मिलता है। तमिलनाडु 1 रुपया देता है, उसे 47 पैसे मिलते है। 53 पैसे कोई बिहार, कोई यूपी चाट जाता है।
ये एक बार नही, हर साल होता है। साल, दर साल, दर साल, लुटने के कारण तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र सिंगापूर बन नही पाते। यह समझ आता है।
मगर उसे साल दर साल लूटकर भी उत्तर भारत सिंगापुर नही बन पाता। उन्हें बनना नही है। परिवार की कमाई पर गुण्डई की मौज करने वाले ये गैर जिम्मेदार लोग हैं।
तो बिहार में जो रोड, सड़क, विकास पिछले 10-20 सालों में है, उसके दिल्ली की सरकारों पर उसकी राजनीतिक पकड़ की वजह से है। यह विकास, डकैती के पैसे का है। क्या कभी बिहारी यह रियलाइज करेंगे??
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मोकामा में का बा??
अनंत सिंह बाड़ें। जी हां, एक दौर का इंडस्ट्रियल हब रहा मोकामा, आज बन्द उद्योग और "मानबे नही करते है" वाले विधायक की वजह से फेमस है। दरअसल बिहार, वह क्लासिक केस है, जो बताता है कि घटिया राजनीति, दादागिरी, मूर्खता, जाति- धर्म, क्रांति के चक्कर मे कैसे पीढियां नष्ट होती हैं। अपने साथ सबको लेकर डूबती हैं।
बिहार, यूपी, नफरत के निर्यात का के बड़े केंद्र है। पैसा लेते हैं, नफरत देते हैं।
90 के दशक वाली राजनीति, (मंदिर, मस्जिद, जाति, गुंडई) दबंगई, सम्पत्ति की बिकवाली, बेशर्म भ्र्ष्टाचार, नेताओ का भगवानकरण और उनका धनपशुओं से नापाक गठबंधन। अगर इसने ही बिहार को आज का बिहार बनाया है, तो जान लीजिए।
एक दिन मजाकिया गीत बनेगा
हिंदुस्तान में का बा