लखनऊ-झांसी नेशनल हाई वे नंबर 25 पर झांसी से 30 किमी पहले एक कस्बा है चिरगाँव। हिंदी कवियों की एक त्रिवेणी यहां भी बही। इनमें से सिर्फ मैथिलीशरण गुप्त को ही याद किया जाता है मगर उनके छोटे भाई सियारामशरण गुप्त भी बहुत अच्छे कवि थे और इन सबकी कविता में रस भरते थे मुंशी अजमेरी जी। मुंशी अजमेरी जी इन दोनों महाकवियों के अंगरक्षक, दोस्त और संरक्षक तीनों थे। मुंशी अजमेरी जी चिरगाँव में ही एक अत्यंत गरीब मुसलमान कुल में पैदा हुए थे। वे गुप्त बंधुओं के पिता के यहां गुमाश्ता थे। मगर उनकी त्वरा बुद्घि को देखकर उन्होंने मुंशी अजमेरी जी को अपने बेटों का संरक्षक बना दिया। मैथिलीशरण गुप्त का सारा काव्य मुंशी जी ने अपनी हस्तलिपि से लिखा करते थे। मुंशी जी ने बुंदेली और ब्रज में तमाम छप्पय भी लिखे हैं। गांधी जी जब चिरगाँव गए तो मुंशीजी उनके साथ रहे। आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी ने मुंशी अजमेरी की कुछ कविताएं सरस्वती में प्रकाशित की थीं। द्विवेदी जी स्वयं भी मुंशी जी से डरते थे क्योंकि सच बात के लिए वे किसी से भी झगड़ लेते थे। चिरगाँव में जब महाबीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन समारोह हुआ तो उसकी सदारत करने स्वयं महाराजा ओरछा वहां तशरीफ लाए। उनके बीच द्विवेदी जी ने कहा कि भले हिंदी समाज मुझे भयभीत रहता हो पर मैं खुद मुंशी अजमेरी जी से डरता हूं। उन्होंने जो लिख दिया सो लिख दिया और वही हिंदी की मानक भाषा है।
मुंशी जी थे तो मुसलमान पर संस्कार वैष्णवों के। गाढ़े का कुरता और धोती तथा बुंदेली फाग और हाथ में लठ यही उनकी पोशाक थी। एक बार तो इसी पोशाक में वे कानपुर के प्रताप कार्यालय पहुंच गए। गणेश जी के साथ उनका घंटों वाद विवाद हुआ और अंत में गणेश जी ने हार मान ली। एक बार उनको कोई रोग हो गया। उन्होंने ठान लिया कि वे ओरछा के रामराजा मंदिर में जाकर कीर्तन करेंगे। अब ओरछा का रामराजा मंदिर में एक मुसलमान को अंदर जाने की इजाजत नहीं तो वे दहलीज पर ही बैठकर कीर्तन करने लगे। अंत में ओरछा महाराज की दखल से वे विग्रह के समीप पहुंच पाए। संयोग से वे चंगे हो गए तो फिर उनका मन रामराजा के प्रति ऐसा रमा कि वे बस वैष्णवी बन कर रह गए। वे शुद्घ वैष्णव थे और उन्होंने पैगंबर साहब की स्तुति में एक उर्दू कविता भी लिखी थी। एक बार हिंदू संगठनों ने उनसे कहा कि मुंशी जी आप कर्म और विचारों से हिंदू ही हैं तो शुद्घ होकर हिंदू क्यों नहीं बन जाते तो मुंशी जी ने जवाब दिया कि 'क्यों मुझमें अशुद्घ क्या है जो मैं शुद्घ हो जाऊँ?'