ये निब्बू मुशहर है, माटी पानी और पेड़ की जितनी समझ इन्हें होती है, शायद किसी कृषि स्नातक को भी नहीं होती होगी
वह जो महुए के पत्ते का दोना होता है उसके सप्लायर यही निब्बू जैसे कारोबारी होते हैं।
संजय तिवारी विस्फोट
ये निब्बू मुशहर है। पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक घुमंतू जाति। अगर हमारे समाज में आसपास कोई माटी का लाल है तो वो यही लोग हैं। माटी पानी और पेड़ की जितनी समझ इन्हें होती है, शायद किसी कृषि स्नातक को भी नहीं होती होगी।
लेकिन इनकी अपनी जीवन शैली है। जैसे पानी को एक जगह रोक दो तो वह सड़ जाता है उसी तरह ये प्रजाति है। घूमना इनका जीवन है। निब्बू भी घूमता है। गाजीपुर से मेरे गांव तक चला आया सिर्फ पत्तों की खोज में। बनारस शहर में महुआ के पत्तों के दोने में गरम गरम समोचे, कचौडी, जलेबी और मिठाई परोसने की परिपाटी है। वह जो महुए के पत्ते का दोना होता है उसके सप्लायर यही निब्बू जैसे कारोबारी होते हैं।
दूर दूर तक घूमकर महुए का पत्ता इकट्ठा करते हैं। दो सौ तीन सौ किलोमीटर तक का सफर कर लेते हैं। ये अकेले नहीं निकलते। परिवार और समाज भी साथ चलता है। किसी बाग बगीचे में डेरा लग जाता है फिर वहीं से महुए का पेड़ खोज खोजकर उसके पत्ते तोड़े जाते हैं, फिर उन्हीं पत्तों के साथ "घर वापसी" होती है और दोना बनाकर सालभर की आय निश्चित की जाती है।
ये सामाजिक संरचना का व्यापार है इसलिए इस व्यापार पर इनका संपूर्ण आरक्षण है। कोई दूसरा इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। ये जिस पेड़ में पत्ते तोड़ते हैं उसके मालिक से पूछते तक नहीं है। पूछने की जरूरत भी नहीं है। पेड़ चाहे जिसका हो, महुआ का पात इन्हीं का है। इसलिए कोई कभी रोकता भी नहीं।
मैंने निब्बू से न सिर्फ बात की बल्कि काफी देर तक उसे पत्ते तोड़ते हुए देखता रहा। मैं देखना चाहता था कि वह पत्ते तोडता कैसे है। क्योंकि इसी से उसके स्वभाव का पता चलता। मैंने देखा निब्बू अपनी अंगुलियों से सिर्फ पत्ते तोड़ रहा था, टहनियां नहीं। महुए की एक टहनी में दस बीस पत्ते होते हैं। वो एक टहनी तोड़ ले तो उसे न तो दस बीस पत्ते तोड़ने की जरूरत होगी और न इकट्ठा करने की। लेकिन वह ऐसा नहीं करता। उसे मालूम है उसका महुए के पेड़ से अघोषित समझौता सिर्फ पत्तों तक है। टहनियां तोड़ लिया तो अगली बार पेड़ पत्ते नहीं देगा। लेकिन इससे सुखद आश्चर्य ये देखकर हुआ कि नह हर टहनी के शीर्ष पर दो चार पत्ते छोड़ता जा रहा था, ताकि उसके उतरने के बाद पेड़ एकदम वीरान भी न लगे।
मैं उसको काम करते हुए देखकर सोच रहा हूं ऐसे ही लोग हमारा व्यावसायिक आदर्श हो सकते हैं। हम इन प्रकृति पुत्रों की ओर कभी क्यों नहीं देखते? क्या निब्बू जैसे व्यवसाइयों को किसी आईआईएम में पढाने के लिए नहीं बुलाया जा सकता जो सतत विकास के सच्चे संदेशवाहक हैं?