डॉ. मलखान सिंह
'न भूल जाना खुशी के दिन, तुम वतन परस्तों के वे फ़साने।
कि जिनके बदले हुए मुयस्सर हैं ये जश्न महफिलें और तराने।'
जिस शख़्स ने देश की आजादी के लिए लड़ने वाले दीवानों के लिए यह पंक्तियां लिखी थी, आज हमने उसी शख्सियत को इतिहास के पन्नों में दफना दिया। वह शख़्स थे - विजय सिंह पथिक। जो ताउम्र जागीरदारों-सामन्तों और ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ लड़ते रहे और जिनकी तीन पीढ़ियां 1857 की क्रांति से लेकर 1947 तक अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ती रही। पथिक जी की भूमिका स्वतंत्रता सेनानी, बिजौलिया किसान आंदोलन के प्रणेता, पत्रकार-साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में रही। उस शख़्स को इतिहास में वो सम्मान और जगह नहीं मिली,जिसके वो हकदार थे।
विजय सिंह पथिक उर्फ भूप सिंह का जन्म 27 फरवरी 1882 को उत्तरप्रदेश के बुलन्दशहर जिले के गांव गुठावली में किसान परिवार में हुआ। इनके दादा इंद्रसिंह राठी 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हुए। इनकी माता कँवल कुंवर और पिता हम्मीर सिंह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष करते रहे।
विजय सिंह पथिक अपने संस्मरण में लिखते हैं कि ज़ुल्म के खिलाफ़ लड़ने का विचार उनके अंदर परिवार के क्रांतिकारी माहौल से पैदा हुआ। माँ उन्हें 1857 की क्रांति के किस्से और खुद के अंग्रेजों के खिलाफ किए संघर्ष की दास्तान सुनाती थी। बहादुरी की बातें सुनकर भूप सिंह के मन में भी क्रांति के बीज पड़े और वह साहसी बने। बचपन में ही उन्होंने पिता को खो दिया। माँ की मौत के बाद भूप सिंह इंदौर में बहन के पास रहने लगे। जहाँ 1907 में उनकी मुलाकात शचीन्द्र नाथ सान्याल से हुई। शचीन्द्र ने भूप सिंह के क्रांतिकारी तेवर देखते हुए उनकी भेंट रास बिहारी बोस से करवाई। उसी समय रास बिहारी बोस के नेतृत्व में क्रांतिकारियों का दल पूरे भारत में फैल रहा था। इस दल के साथ भूप सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाने लगे।
'अभिनव भारत समिति' ने योजना बनाई कि 21 फरवरी 1915 को अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का बिगुल बजाया जाए। इस योजना को सफल बनाने के लिए पंजाब की जिम्मेदारी रास बिहारी बोस ने ली। उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी शचीन्द्र नाथ सान्याल, बंगाल की जतिन्द्र नाथ बनर्जी और राजस्थान की जिम्मेदारी भूप सिंह और गोपाल सिंह खरवा को दी गई। यह भूप सिंह की नेतृत्व क्षमता का ही परिणाम था कि राजस्थान में 2 हजार युवकों का दल तैयार हो गया और उन्होंने हजारों बंदूकें इकट्ठी कर ली। अब क्रांतिकारियों को 21 फरवरी का इंतजार था। राजस्थान में अजमेर, ब्यावर और नसीराबाद में बम धमाका करना था। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत को इस योजना की भनक लग गई । अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों की धर-पकड़ शुरू कर दी, जिससे सशस्त्र क्रांति की योजना असफल हो गई। भूप सिंह को भी साथियों सहित गिरफ्तार करके टाडगढ़ जेल में डाल दिया गया। अभी तक भूप सिंह पर आरोप तय नहीं हुआ था। लेकिन उसी वक्त 1912 के लाहौर षडयंत्र केस की सुनवाई चल रही थी जिसमें मुखबिर ने भूप सिंह के शामिल होने की गवाही दे दी। जब भूप सिंह को इस बारे में पता चला तो वो टाडगढ़ जेल से फरार हो गए।क्रांतिकारियों की धर-पकड़ से क्रांतिकारी दल बिखर गया।रासबिहारी बीस को भी देश छोड़कर विदेश जाना पड़ा।
1915 में जेल से फरार होने के बाद भूप सिंह महीनों तक राजस्थान के गांवों की खाक छानते रहे। उन्होंने अपनी दाढ़ी और सिर के बाल बढ़ाकर साधु का वेश धारण कर लिया और अपना नाम बदलकर विजय सिंह पथिक रख लिया। कांकरोली, भाना, मोही गांवों के बाद ओछड़ी गाँव को अपना ठिकाना बनाया। यहां 1915 में उन्होंने हरिभाई किंकर के साथ मिलकर 'विद्या प्रचारणी सभा' की स्थापना की। इस सभा के माध्यम से पथिक नौजवानों को पढ़ाते और उनमें देशभक्ति की भावना पैदा करते।
यह वो समय था जब राजस्थान में राजाओं ने रियासतों में शासन करने के लिए अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था। ऐसी ही एक रियासत थी - मेवाड़ (उदयपुर) रियासत। जिसमें बिजौलिया एक प्रमुख ठिकाना था, जो फसल उत्पादन में समृद्ध क्षेत्र था। इस ठिकाने में किसानों पर 84 प्रकार के लगान, लाग-बाग और बेगारी के कर थे। गुलामी के इस दौर में किसान तिहरे शोषण की चक्की में पिस रहे थे। एक ओर स्थानीय सामन्त-जागीरदार, दूसरी ओर रियासत के राजे और तीसरी ओर ब्रिटिश हुकूमत। किसानों के शोषण की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता था कि किसानों को उनके 87 फीसदी उत्पादन से वंचित होना पड़ता था।
बिजौलिया में साधु सीताराम के नेतृत्व में किसान आंदोलन कर रहे थे। बिजौलिया का यह किसान आंदोलन भारतीय इतिहास का सबसे लंबा चलने वाला आंदोलन था। जो 44 वर्षों में 1897 से 1941 तक कई चरणों में चला। 1916 में विजय सिंह पथिक ने साधु सीताराम के कहने से बिजौलिया किसान आंदोलन का नेतृत्व सम्भाला।
पथिक बिजौलिया में मांझी की धर्मशाला में रहने लगे। मांझी में उन्होंने विद्यालय, पुस्तकालय और अखाड़े खोले। पथिक यह समझ गए थे कि जब तक किसानों को जागरूक और संगठित नहीं किया जाएगा तब तक वो सामन्तों-रजवाड़ों-अंग्रेजों से नहीं लड़ सकते। उन्होंने 1917 में बेरिसाल में ऊपरमाल पंच बोर्ड (किसान पंचायत बोर्ड) की स्थापना की। जिसके माध्यम से किसानों को जागरूक करना शुरू किया। पथिक की संगठन क्षमता और कार्यशैली से प्रभावित होकर माणिक्यलाल वर्मा ठिकाने की नौकरी छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े। हर गाँव में किसान पंचायत बोर्ड के सदस्य बनने लगे। प्रेमचंद भील, भंवरलाल प्रज्ञाचक्षु गीतों के माध्यम से किसानों को चेतन करने लगे।माणिक्यलाल वर्मा का 'पंछीड़ा' और पथिक का 'किसानों का झण्डा' गीत जन - जन में प्रचलित हो चुका था–
'लहरावेगो, लहरावेगो झण्डो यो किरसाणां को, घर महलां पर मींदरांपे, कोट किलां पर भंडारां पै।
गांव – गली में बाजारांपै, पुर द्वारापै, दीवारांपै, यो हलमण्डित ध्वज निशान है करसां का अरमानां को।।'
अलग – अलग जगहों पर नेतृत्वकारी भूमिका निभाते हुए पथिक गुरिल्ला युद्ध लड़ते रहे। पथिक के नेतृत्व में किसानों के मन से ठिकाने का डर निकलना शुरू हो गया और किसानों ने ठिकानेदार की बेगार करने और लाग-बाग एवं अधिक लगान देने से मना कर दिया।
1917 में 14 रुपए 'युद्ध कर' लगाने से किसानों में और गुस्सा भर गया। किसानों ने जमीन को खाली छोड़कर सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया। यानी जब फसल ही नहीं होगी तो कर किस पर लगेगा। किसानों की बगावत से ठिकानेदार ने किसान नेताओं को पकड़ना शुरू कर दिया। किसान पंचायत बोर्ड के नेता नारायण पटेल को भी पकड़ लिया गया। पथिक के नेतृत्व में हजारों किसानों ने ठिकानेदार के घर पर धावा बोल दिया और कहा, "या तो पटेल को छोड़ दो या हमें भी जेल दो" आखिरकार पटेल को छोड़ना पड़ा। अब किसानों के इस आंदोलन की गूँज प्रताप, अभ्युदय, मराठा पत्रों के माध्यम से पूरे भारत में गूँजने लगी।गणेशशंकर विद्यार्थी ने 'प्रताप' में बिजौलिया किसान आंदोलन को प्रमुखता से छापा।
अंग्रेज अधिकारी विलकिन्सिन ने खुफिया एजेंसी की रिपोर्ट में लिखा कि, "पथिक बिजौलिया में रूस के बोल्शेविकों की तरह किसानों को संगठित करके समानांतर सरकार चला रहे हैं और भविष्य में यह आंदोलन रियासतों से बाहर निकलकर पूरे देश में फैल सकता है।" इस पर मेवाड़ रियासत में पथिक के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
1919 में महात्मा गांधी जी ने पथिक को वर्धा बुलाया। वर्धा में पथिक ने 'राजस्थान सेवा संघ' की स्थापना की। साथ में जमनालाल बजाज के खर्चे से 'राजस्थान केसरी' नाम से समाचार-पत्र निकालने लगे। यहां उन्हें रामनारायण चौधरी कार्यकर्ता के रूप में मिला जो बेहद मेहनती था। वर्धा से राजस्थान के किसानों की आवाज़ उठाई जाने लगी।
1920 में नागपुर में ऐतिहासिक कांग्रेस हुई।पथिक ने अपने सहयोगियों की सहायता से देशी राज्यो के अत्याचारों की एक प्रदर्शनी इस अवसर पर आयोजित की।यह पथिक की मौलिक सूझ का एक नया तरीका था।सामन्तशाही का यह क्रूर चेहरा कांग्रेस के प्रतिनिधियों एवं कार्यकर्ताओं ने पहली बार देखा।और इसका यह असर हुआ कि कांग्रेस ने देशी राज्यों से स्वतंत्रता का लक्ष्य अपने एजेंडा में शामिल किया।महात्मा गांधी ने पथिक की कार्यशैली को देखते हुए 'यंग इंडिया' में लिखा था "पथिक जी कार्यकर्ता हैं जबकि दूसरे लोग केवल बातें करने वाले हैं।"
राजस्थान से दूर रहकर पथिक के लिए बिजौलिया की लड़ाई लड़ना मुश्किल था और पथिक 'राजस्थान केसरी' में मेवाड़ रियासत के खिलाफ़ तीखा लिखते थे,जबकि जमनालाल बजाज चाहते थे कि अंग्रेजों के खिलाफ तो पत्र में छपे,लेकिन देशी रियासतों के खिलाफ नहीं।पथिक जी कहते थे कि किसानों पर सीधा जुल्म करने वाले तो यही सामंत हैं। वर्धा में पथिक को इस वैचारिक मतभेद के कारण घुटन होने लगी।पथिक को अपने विचारों से समझौता करना मंजूर नहीं था और वह वर्धा छोड़कर अजमेर आ गए।अजमेर में उन्होंने राजस्थान सेवा संघ के माध्यम से किसान आंदोलन को गति दी। यहां उन्होंने 'नवीन राजस्थान' नाम से अख़बार निकाला, जिसका आदर्श वाक्य होता था :-
'यश वैभव सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं, जीवन रहे या न रहे,
बस इच्छा है यह जग में, स्वेच्छाचार,दमन न रहे। '
बिजौलिया के किसानों ने उन लोगों का सामाजिक बहिष्कार करना शुरू कर दिया जो ठिकाने के वफादार थे। अब किसान खुल्लमखुल्ला ठिकाने के खिलाफ़ हो गए। किसानों की बगावत के सामने सामन्तों और अंग्रेजों को झुकना पड़ा। 1922 में मेवाड़ रियासत, ब्रिटिश सरकार और किसानों के प्रतिनिधियों में बातचीत हुई। किसान रजवाड़ों और ब्रिटिश हुकूमत की आँख में आँख डालकर बात कर रहे थे। 37 प्रकार के लाग-बाग एवं कर खत्म कर दिए गए। बिजौलिया किसान आंदोलन के इतिहास में यह अब तक की सबसे बड़ी जीत थी। इस आंदोलन का असर यह हुआ कि आस पास के क्षेत्रों में भी किसान आंदोलन उभरने लगे। 'राजस्थान सेवा संघ' के नेतृत्व में बेंगू, पारसोली, भींडर, बासी, उदयपुर में भी शक्तिशाली आंदोलन हुए।
1923 में बेंगू में महिला और पुरुष किसान कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे थे। यहाँ भी 53 प्रकार के लगान और लाग - बाग थे। विजय सिंह पथिक के प्रवेश पर प्रतिबंध होने के बाबजूद वह इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। बेंगू में मेवाड़ रियासत के बंदोबस्त आयुक्त जी सी ट्रेंच के नेतृत्व में किसानों पर दमन की कार्रवाई की गई, उन पर गोलियां चलाई गई। सैंकडों किसान घायल हुए। महिलाओं के नाड़े काटकर उन्हे नंगा किया गया। बेंगू में हुई इस घटना के बाद भेष बदलकर पथिक किसानों के बीच पहुँचे। बेंगू में भी किसानों पर लगे लगभग 34 लाग बाग खत्म करने पड़े। लेकिन पथिक की इन नेतृत्वकारी गतिविधियों से राजसत्ता में बौखलाहट बढ़ गई। 10 सितंबर 1923 को पथिक को गिरफ़्तार कर लिया गया। पथिक पर विशेष अदालत में सुनवाई हुई और उन्हें लगभग साढ़े तीन साल की सजा एवं 15000 रुपए के जुर्माने से दंडित किया गया।
जेल से रिहाई के समय किसानों ने ग्वालियर राज्य के सिंगोली गांव में पथिक का भव्य स्वागत किया। उनकी रिहाई के साथ ही मेवाड़ सरकार ने भविष्य के लिए रियासत में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी।हजारों स्त्री-पुरुष उन्हें देखने और मिलने के लिए एकत्रित हुए।कुछ लोगों ने कसम खा रखी थी कि जब तक पथिक जेल से रिहा नहीं होंगे तो वो अपनी दाढ़ी-बाल नहीं कटवाएंगे।
पथिक के जेल में रहते हुए 'राजस्थान सेवा संघ' की नीति एवं कार्यशैली में बदलाव आ चुके थे। पथिक जी का 1928 में राजस्थान सेवा संघ के नेतृत्वकर्ताओं के साथ वैचारिक मतभेद पैदा हो गए,जिससे पथिक जी बिजौलिया किसान आंदोलन में नेतृत्व की भूमिका से हट गए। बिजौलिया किसान आंदोलन बेशक अपनी आखिरी मंजिल तक नहीं पहुंच पाया, लेकिन पथिक के नेतृत्व में यह आंदोलन किसानों में सामन्तशाही-राजशाही एवं साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोही चेतना का संचार करने में सफल रहा। बिजौलिया आंदोलन के बाद राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में किसान आंदोलन उभरने लगे और राजस्थान में प्रजामण्डल आंदोलन की नींव पड़ी।
राजस्थान सेवा संघ समाप्त होने के बाद पथिक ने रेलवे मजदूरों के बीच काम किया और उन्हें संगठित किया।बी०बी एंड सी.आई रेलवे वरकर्स फेडरेशन के वो जनरल सेक्रेटरी भी चुने गए।पथिक के नेतृत्व में रेलवे कर्मचारियों ने कई बार अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया और सफल भी हुए।
1930 में वो राजपूताना मध्य प्रान्त कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए।1930 में कांग्रेस अधिवेशन में गाया जाने वाला प्रसिद्ध झंडा गीत पथिक द्वारा ही लिखा गया था -
'प्राण मित्रो भले ही गंवाना, पर यह झंडा नीचे न झुकाना।
है इसी से छिड़ा यह तराना, होना आज़ाद या मिट ही जाना।।'
1930 में ही पथिक का विवाह विधवा अध्यापिका जानकी देवी से हुआ। विवाह के एक महीने बाद ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल से छूटने के बाद 1932 में अजमेर में उन्होंने भगत सिंह के नाम से वाचनालय खोला।पथिक जी क्रांतिकारियों के विचार और बलिदान को भविष्य की पीढ़ी के लिए जिंदा रखना चाहते थे।
पथिक के अंदर टीस बनी रही कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ने और आजादी के बाद सच्चा जनतंत्र स्थापित करने के लिए राजस्थान सेवा संघ जैसा ही कोई संगठन खड़ा किया जाए। उन्होंने अंतिम दिनों में देश में बौद्धिक और विचार क्रांति पैदा करने के लिए,राजनैतिक एवं ऐतिहासिक साहित्य पर शोध करने तथा किसानों को संगठित कर सच्चे जनतंत्र को स्थापित करने के लिए 'राजस्थान सेवाधाम' और 'राजस्थान किसान संघ' नामक संस्था को स्थापित करने की योजना तैयार की।इन संस्थाओं को स्थापित करने के सम्बंध में पथिक जी ने विज्ञप्ति निकाली थी,जिसमें उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त करते हुए लिखा था कि "क्रांति का कार्य समाप्त हुआ।प्रत्येक क्रांति के दो भाग होते हैं।पहला पराधीनता से मुक्ति पाना,दूसरा पराधीनता और लंबे संघर्ष से समाज में जो अज्ञानजन्य अनेक दुर्गुण आ जाते हैं एवं मानवीय संस्कृति की जगह जो कृत्रिम तथा विघटनकारी तत्व जड़ पकड़ लेते हैं,उन्हें विचार क्रांति के द्वारा नष्टकर,वास्तविक मानवी संस्कृति को प्रतिष्ठित करना।क्योंकि जब तक समाज में विचार क्रांति न हो,तब तक केवल कानूनों के द्वारा न कोई व्यवस्था स्थायी हो सकती है, न शासन।और यह विचार क्रांति सबसे जल्दी होती है, देश के अपने इतिहास के वैज्ञानिक पुनरुद्धार द्वारा।"
पथिक इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि किसान आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलानी है तो उसका माध्यम अखबार हो सकता है। इसलिए वे शोषितों एवं पीड़ितों की आवाज़ को आमजन तक पहुंचाने के लिए एक समाचार पत्र पर प्रतिबंध लगने के बाद नए नाम से समाचार पत्र निकालते रहे। उन्होंने इस बात को भी बखूबी समझा कि लंबे आन्दोलनों की लड़ाई लोगों के खर्चे से ही चलेगी और उनकी बोली-भाषा में ही उनसे संवाद स्थापित करके संगठन को मजबूत बनाया जा सकता है। इसलिए पथिक ने ऊपरमाल (बिजौलिया) के किसानों की लड़ाई को व्यापक बनाने के लिए 'ऊपरमाल के डंकों' नाम से अख़बार निकाला। इसके अलावा राजस्थान केसरी, नवीन राजस्थान, तरुण राजस्थान, नवीन सन्देश आदि अखबार निकाले।
क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ – साथ जनता में जागृति लाने के लिए पथिक जी ने अनेक साहित्यिक रचनाएं भी की। जेल में रहते हुए उन्होंने अधिकत्तर साहित्य की रचना की, उनके इस साहित्य की गहनता और गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों द्वारा उनका बहुत सा साहित्य जब्त कर लिया गया। पथिक की पुस्तकों में पथिक प्रमोद (कहानी संग्रह), पथिक विनोद (कविता), प्रह्लाद विजय (खण्ड काव्य), जेल में दिया ऐतिहासिक बयान, what are indian states, चुनाव पद्धतियां और जनसत्ता, संस्मरण, उपन्यास (बिकरा भाई) और घनश्याम शलभ के संपादकत्व में 'क्रांतिचेता पथिक' पुस्तक में कुछ रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं।पथिक ने लियो टॉलस्टॉय की प्रसिद्ध पुस्तक का 'अध्यापक और अभिभावक' के नाम से और प्रिंस क्रोपाटकिन की पुस्तक 'कौ क्वेस्ट ऑव ब्रेड' का 'गरीबों का स्वराज्य' नाम से अनुवाद किया।इनके अलावा उनकी गज़लें, नारी जाति का इतिहास, निबंध, वेदों में विश्व इतिहास व अन्य विधाओं में लिखा गया अधिकतर साहित्य पथिक के चले जाने के 69 साल बाद भी अप्रकाशित है। उनकी पांडुलिपि राजस्थान के अभिलेखागारों में रखी हुई हैं।
पथिक की रचनाओं में अन्याय, जाति व्यवस्था, अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों पर करारा व्यंग्य किया गया है। असल में पथिक ऐसी व्यवस्था चाहते थे जिसमें कोई जोर-ज़ुल्म न हो। आर्थिकता, जाति-नस्ल, लिंग एवं धर्म के आधार पर कोई भेद न हो। वे लिखते हैं -
'लोग कहते हैं पथिक हुक्काम का उदू। भाती नहीं उसे हुकुमरानों की बात बू।।
लेकिन ख़्याल खाम है ये,खुद दी मुझे तो। है सल्तनतें उल्फ़त की हमेशा से जुस्तजू।।
हाँ वादिये ज़ुल्मत का हो सकता न मैं हामी। कहता हूँ सच कि झूठ की मुझमें नहीं है खूँ।।
मैं चाहता हूं सल्तनत,न जिसमें जब्र हो। खुदगर्ज़ हो न खून,नहीं जंगों जंगजू।। '
इसी तरह अपने साहित्य और वास्तविक जीवन में अन्याय और भेदभाव के खिलाफ लड़ते हुए यह महान योद्धा 28 मई 1954 को इस संसार को अलविदा कह गए। क्रांतिनायक विजय सिंह पथिक के आंदोलन की गूँज राजस्थानी लोकगीतों में आज भी जिंदा है -
"म्हाने विजय सिंह आज जगायो, ए मांय थारो गुण मैं नहीं भूलां।
म्हाने जुत्यां सूँ पिटता बचायो, म्हाका टाबर ने वीर बणाया,
म्हाने देस प्रेम सिखलायो, ए मांय थारो गुण मैं नहीं भूलां। "