चुनाव परिणाम: राजनीतिक मनोविज्ञान की गुत्थी अब और पेचीदा हो गई है
क्या अब यह मान लिया जाना चाहिए कि सीमित लाभ की योजनाएं चुनाव में जीत का मंत्र बन गई हैं?
देश के दो राज्यों में आए चुनाव परिणाम राजनीति में एक दूसरे के बिलकुल विपरीत सामाजिक बोध, सामाजिक मूल्यों व निर्णय की धारा को दर्शाते हैं, ऐसा माना जा सकता है। दो महत्वपूर्ण राज्यों महाराष्ट्र और झारखंड में जीत हासिल करना देश के सत्ताधारी दल भाजपा के लिए एक स्वाभाविक लक्ष्य था। अपनी सरकार को इन राज्यों में स्थापित करके देश में अपनी सत्ता की मजबूती को स्थापित करने का सन्देश देना भी उतना ही आवश्यक था, लेकिन एक राज्य में अप्रत्याशित जीत और दूसरे राज्य में अप्रत्याशित हार ने भाजपा को भी हतप्रभ कर दिया है।
यह किस प्रकार का वैचारिक प्रवाह है जिसके निर्णय में सभी राजनीतिक आदर्श और सिद्धांत एक प्रदेश में धूमिल होते दिखाई देने लगे तो दूसरे प्रदेश में स्पष्टता और दृढ़ता पा गए? ऐसी राजनीतिक परिघटना राजनितिक दलों के साथ-साथ राजनीति के विश्लेषकों के लिए भी किसी पहेली से कमतर नहीं है। इसके ठोस और स्पष्ट कारकों को रेखांकित करना फिलहाल लगभग दूभर ही है।
लोकसभा में प्रतिनिधित्व के हिसाब से उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र दूसरा सबसे बड़ा राज्य है जहां भाजपा को केवल चार महीने पहले हुए आम चुनाव में करारी हार मिली थी। ऐसे राज्य में, जहां भाजपा पर एक चुनी हुई सरकार को गिराने और विरोधी राजनीतिक दलों को तोड़ने का आरोप भी था, बड़ी जीत हासिल करना सहज ही कई तरह के सवाल खड़े करती है। भाजपा ने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए हर राजनीतिक दांव अपनाया और अपनी पूरी ताकत झोंक रखी थी, लेकिन उसके पास अपने दल की कोई विशेष उपलब्धि न हो कर गठबंधन की सरकार द्वारा अपनाई गई कुछ योजनाएं ही थीं जो लोकसभा चुनावों के बाद लागू की गईं। आम जनजीवन में न्यूनतम को प्राप्त करने के सवाल जहां हर चौखट पर खड़े हों, वहां समान्य समझ की सतह के नीचे की हलचल क्या दिशा अपनाती है ये सवाल भी राजनीतिक रहस्य बन कर उभरा है।
क्या अब यह मान लिया जाना चाहिए कि सीमित लाभ की योजनाएं चुनाव में जीत का मंत्र बन गई हैं? प्रदेश की जनता की कठिनाइयों के समाधान का कोई औचित्य बचा नहीं। लोकतंत्र केवल तात्कालिक सीमित लाभ की योजनाओं तक सिमट गया है। सियासत के नए मायने लाभ में ही लिपटे हुए हैं। इन सीमित लाभ से होने वाले दूरगामी परिणामों से जनता को कोई वास्ता है नहीं। सामाजिक अस्तित्व से बढ़ कर आर्थिक सुलभता ही निर्णय का नया केंद्रबिंदु बन गई है या अदृश्य कारक कुछ और हैं?
मतदाता के व्यवहार को चुनावों के दौरान मापने के हालांकि कोई ठोस पैमाने हैं नहीं, फिर भी उनकी पहल और पक्ष का अनुमान सामान्य विमर्श और राजनीतिक सभाओं में मिलता है। राजनीतिक प्रभाव और परिवर्तन के प्रतिबिम्ब मतदाताओं के आचार विचार में प्रकट होते हैं। अलग-अलग मुद्दों पर जनता की धारणाएं उनके अपने समूहों में निर्मित हो जाती हैं।
प्रदेश के चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा जिस प्रकार का राजनीतिक माहौल विभिन्न मुद्दों को लेकर बनाया गया उसमे अपेक्षित तीव्रता की मात्रा भी भरपूर थी। राजनीतिक दलों की अपनी रणनीति और प्रचार किस हद तक मतदाताओं को प्रभावित करते हैं यह सफलता असफलता को निर्धारित करता है।
इन परिणामों से राजनीतिक मनोविज्ञान की गुत्थी और भी पेचीदा हो गई है। परिणामों का अवलोकन करने पर मतदाताओं के जनादेश को सामाजिक व्यवहार के तत्वों की कसौटी यथार्थवाद, संशयवाद, तटस्थता पर जांचना भी जरूरी हो जाता है। यहां मतदाताओं का दृष्टिकोण सुरक्षित भविष्य के प्रति आश्वस्त होने के तथ्यों की सत्यता का मूल्यांकन सही से कर पता है या नहीं, यह भी महत्वपूर्ण हो जाता है।