बजट को सामान्यतः अंग्रेजी शब्द माना जाता है, हालांकि बजट शब्द फ्रेंच के बुल्गा से निकला है , कालांतर में इससे अंग्रजी शब्द बोगेट आया और इसी बोगेट शब्द से बजट शब्द की उत्पत्ति हुई। दरअसल इसलिए पहले अंग्रेजी संसद में साल भर के आय व्यय का ब्यौरा चमड़े के बैग में लेकर आया जाता था, और यही बजट कहलाता था। अंग्रेजों के नक्शे कदम पर चलते हुए हमारे देश के वित्त मंत्री बजट सूटकेस में लेकर आते रहे। वर्तमान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अंग्रेजी "बजट" पर ही भारतीयता का मुलम्मा चढ़ाते हुए पिछले दो बजट महाजनी बही-खाते की तरह लाल रेशमी वस्त्रों में लपेट कर पेश किये हैं। भारतीय परंपरा रही है कि शुभकार्यों से पहले मुंह मीठा कराया जाता है सो बजट के दिन वित्त मंत्री से द्वारा बजट से संबंधितअधिकारियों तथा कर्मचारियोंमें हलवा बांटा जाता है। इसे 'हलवा सेरेमनी' कहा जाता है। अब इस बजट के हलवे की मिठास संसद से आगे आम जनता तथा विशेषकर इस देश की जनसंख्या के सबसे बड़े वर्ग 70 करोड़ किसानों तक कितनी पहुंच पाएगी, लौकरिया बजट कुल मिलाकर यह बजट किसानों के लिए कितना मीठा अथवा फीका या फिर हमेशा की तरह कड़वा रहेगा यह तो यह बजट ही बताएगा।
पिछले सालों की तुलना में अगर सरकार की आमदनी की बात करें, तो वित्त वर्ष 2021-22 के लिए 2021 सकल प्रत्यक्ष कर संगह , 2021-22 तथा 2019-20 में इसी अवधि के लिए सकल संग्रह के आंकड़ों की तुलना में क्रमशः 48.11% और 18.15% की वृद्धि दर्शाता है यादें की सरकार के खजाने में धन की वर्षा में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। सरकारी संपत्तियों तथा कंपनियों के अंधाधुंध मौद्रीकरण से भी सरकार पूंजी उगाने में लगी हुई है। यह जिगर बात है की 70 सालों में अर्जित जनता की परिसंपत्तियों को नीलाम कर यह सरकार इसे नए संसद भवन, नये मंत्रालय,नये कार्यालय तथा अन्य गैरजरूरी ताम-झाम पर लुटा रही है। इसलिए अगर आप यह सोच रहे हैं कि सकल कर संग्रह में हुई वृद्धि का मतलब देश की आम जनता की आमदनी और खुशहाली में वृद्धि से है तो माफ करिएगा,आपका यह अंदाजा सरासर गलत है। सच्चाई तो यही है कि,देश के छोटे-छोटे काम धंधे, कारोबार और छोटे छोटे उद्योग कोरोना की मार से अभी तक नहीं उबर पाए हैं और मूर्छित अवस्था में हैं, बड़ी संख्या में ऐसी इकाइयां या तो पूरी तरह से बंद हो गए क्या बंद होने की कगार पर है। इस अवसर को बाजार की बड़ी मछलियों ने भरपूर भुनाया है। यही कारण है की छोटे-छोटे उद्योग का कारोबार घाटे में डूबे जा रहे हैं जबकि चंद बड़ी कंपनियां आपदा के इस अवसर का भरपूर फायदा उठाकर रिकॉर्ड मुनाफा कमा रही हैैं।अफसोस की हमारे सरकारों की नीतियां भी चुनिंदा बड़ी कंपनियों के पक्ष में गढ़ी दिखाई देती हैं।
पिछले साल भर से आंदोलनरत किसान वापस खेतों की ओर जरूर लौट गए हैं, लेकिन किसानों का दिलो-दिमाग व निगाहें अभी भी समझौते के अन्तर्गत सरकार द्वारा किए गए वायदों में अटकी हुई हैं। किसान आंदोलन के दरमियान सरकार के दमन बेरुखी तथा बदनाम करने की कोशिशो से देश का किसान नाराज है। समझौते के बाद सरकार की हालिया वादाखिलाफी से देश का पूरा किसान समुदाय अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहा है और उसका भरोसा सरकार से लगभग उठ चुका है। यह स्थिति किसी भी सरकार के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती ।
सरकार के किसान विरोधी रवैए को देखते हुए इस सरकार से इस बजट से भी किसानों को कोई विशेष पैकेज, कोई खास राहत मिलने की कोई खास उम्मीद नहीं है। ऐसे हालातो में सरकार किसानों के लिए कुछ विशेष कृषक कल्याणकारी योजनाएं तथा अभूतपूर्व बड़े पैकेज की घोषणा कर अप्रत्याशित छक्का मार कर किसानों की बढ़ती बेरुखी और नाराजगी दूर कर, पूरे खेल का रुख पलटने की सकारात्मक कोशिश कर सकती है ।
दरअसल सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था। अब आय तो दुगुनी हुई नहीं, उल्टा खाद,बीज ,दवाई और डीजल की बढ़ती कीमतों ने खेती की लागत दुगुनी कर दी है। लगातार लॉकडाउन की श्रृंखलाओं के बाद मंडी,बाजार अभी भी पूरी तरह से पटरी पर नहीं आ पाया है। फसल का वाजिब मूल्य तो छोड़िए, कृषि का लागत मूल्य भी नहीं मिल रहा है। साग सब्जी,फूल मसाले और औषधीय- सुगंधीय फसलों के किसान पूरी तरह से बर्बाद हो गए हैं। गन्ने का भुगतान अभी भी लटका हुआ है। कुल मिलाकर कर देश के किसान के कंधों पर घाटे का बोझ बढ़ गया है, और दिनोंदिन इसमें इजाफा हो रहा है।
भाजपा की घोषणा पत्र के अनुसार 5 सालों में 25 लाख करोड़ कृषि के समग्र विकास पर खर्च किए जाने का वायदा था पर हकीकत यही है कि आज किसानों के लिए बनी अधिकांश योजनाएं लगभग ठप्प पड़ी हैं खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान बेहाल है। औषधीय फसलों की खेती को बढ़ावा देने के लिए घोषित 4 हजार करोड़ रुपए की राशि का 10% हिस्सा भी इसमें लगे वास्तविक किसानों तक नहीं पहुंच पाया है।
ले-देकर किसानों के कल्याण के नाम पर साल पर दो- दो हजार की तीन किस्तों में दिए जाने वाले 6 हजार रुपए सालाना की "पीएम किसान योजना" का एकमात्र दिया टिमटिमा रहा है, इस दिये की रोशनी भी बड़ी सीमित है, देश के सभी वर्गों के लगभग 20 करोड़ किसानों में से केवल 10-11 करोड़ किसानों तक ही इसकी रोशनी या फायदा पहुंच पा रहा है। ऊपर से इस दिए में जरूरत के मुताबिक तेल भी नहीं दिया जा रहा है। इसे ऐसे समझें कि हमारे देश में किसान जमीनों का स्वामित्व, नामांतरण,बटांकन, भूमि बंदोबस्त के आज भी सबसे ज्यादा अव्यवस्थित हैं तथा देश में ऐसे लंबित प्रकरणों की संख्या करोड़ों में होगी। भूमि स्वामित्व व तत्संबंधी जरूरी दस्तावेजीकरण तथा अन्य सभी शासकीय औपचारिकताएं पूरी न कर पाने के कारण जरूरतमंद किसानों का बहुत बड़ा वर्ग इस योजना के लाभ से भी वंचित है। नजूल की भूमि, वन भूमि, भूमिहीन काबिज काश्त, बटाई की भूमि आदि पर खेती करने वाला किसानों का एक बहुसंख्य वर्ग इस योजना के लाभ के दायरे में ही नहीं आता। हकीकत यही है कि इस देश के कृषि उत्पादन में सबसे ज्यादा योगदान देने वाला लघु तथा मध्यम वर्ग का किसान भी इस योजना के लाभ से शतप्रतिशत वंचित है। अर्थात देश का बहुसंख्य किसान वर्ग इस योजना के लाभ से वंचित है।
युक्तियुक्त तरीके से इस योजना का दायरा बढ़ाने के बजाय सरकार ने वित्त वर्ष 2021-22 के लिए इस स्कीम के बजट पर कैंची चलाई थी। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने पीएम-किसान के लिए 65,000 करोड़ रुपये का एक बड़ा आवंटन किया गया था, जबकि पिछले बजट में इस मद में 75,000 करोड़ रुपये आवंटित किए थे।
इसलिए चुनावी मौसम के बीच पेश होने वाले इस बजट में किसानों के लिए कुछ बड़े ऐलान की उम्मीद की जा रही है। उम्मीद की जाती है कि अबकी बार इस योजना के दायरे को बढ़ाकर लघु, मध्यम, बड़े, भूमिहीन, काबिज काश्त तथा बटाईदार किसानों को भी इसके दायरे में लाया जाएगा। खाद बीज दवाई तथा डीजल के दाम बढ़ने के बाद तथा खेती में बढ़ते घाटे को देखते हुए इसकी सालाना राशि भी बढ़ाकर 16 हजार से 20 हजार तक करते हुए किसानों को वास्तविक राहत प्रदान किया जा सकता है। इससे किसानों को तात्कालिक राहत भी मिलेगी, यह पैसा वापस बाजार में पहुंचेगा और अर्थव्यवस्था में भी गति आएगी और किसानों का सरकार पर विश्वास भी कायम होगा। कृषि उपकरणों मशीनरी खाद बीज दवाई पर जीएसटी घटाकर भी किसानों को राहत दी जा सकती है डीजल के बढ़ते दामों को देखते हुए सरकार अपने डीजल पर लिए जा रहे हैं अपने भारी लाभ में से कटौती कर किसानों को सस्ते दर पर डीजल उपलब्ध करा सकती हैं।
किसान-पेंशन योजना का वर्तमान स्वरूप उम्र दराज किसानों के लिए किसी भी भांति व्यावहारिक नहीं है। इस महत्वाकांक्षी एवं बहु उपयोगी योजना का रूप इसे बनाने वालों ने इसके उद्देश्य को नष्ट करते हुए इसे एक प्रकार से पीयरलेस, पोस्ट ऑफिस की आवर्ती जमा योजना की तरह का रूप दे दिया गया है, इसका स्वरूप बदला जाए तथा इसे कृषकोन्मुखी एवं व्यावहारिक बनाया जाए।
अव्वल तो कृषि प्रधान देश में कृषि को सही मायने में प्राथमिकता देते हुए कृषि के लिए पृथक बजट पेश किया जाना चाहिए। अब देखना यही है कि निर्मला सीतारमण जी के रेशमी बही-खाते में से तथा हलवे की कड़ाही से किसानों के लिए कितना कुछ हिस्सा निकलता है, और यह किसानों की कड़वी जिंदगी में भी कुछ मिठास घोल पाता है, अथवा हर बार की तरह यह बजट भी किसानों के लिए ऊंची दुकान का फीका पकवान बन के रह जाएगा।
लेखक डॉ राजाराम त्रिपाठी राष्ट्रीय संयोजक अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)