'मानव-मंदिरों' को तोड़ने के बढ़ते प्रचलन से सुलगते सवाल मांग रहे हैं दो टूक जवाब!
कमलेश पांडेय/वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार
दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) द्वारा महरौली में चलाए गए अतिक्रमण विरोधी अभियान के दौरान उन मकानों को भी तोड़ डाला गया, जिसकी रजिस्ट्री उनके भूस्वामियों या फ्लैट मालिकों के पास मौजूद है। बिजली, पानी, गैस के बिल के साथ-साथ सभी वैध पहचान पत्र भी उनके पास हैं। अपने आशियाना को बचाने के लिए जब वो सरकार के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन करते हुए दिखाई दिए, तो उनके वेश-भूषा से प्रतीत हो रहा था कि सभी लोग निम्न मध्यम वर्गीय या मध्यम वर्गीय परिवारों से आते हैं। फिर भी उन्हें इस प्रशासनिक अनहोनी का सामना करना पड़ा। अब वो लोग घर से ऐसे बेघर कर दिए गए जैसे कि यहां के निवासी ही नहीं हों और उनके प्रति शासन-प्रशासन का कोई नैतिक दायित्व भी नहीं बनता है।
सच कहूं तो यह अतिक्रमण विरोधी अभियान महज एक बानगी भर है। जबकि ऐसे कई अभियान दिल्ली-एनसीआर समेत देश के किसी न किसी हिस्से में आये दिन चलते ही रहते हैं, जिससे कभी नियम-कानून तो कभी मानवता और कभी-कभी तो दोनों तार-तार होते दिखाई-सुनाई पड़ते हैं। ऐसे अतिक्रमण विरोधी अभियानों के शिकार प्रायः सभी लोग भारतीय होते हैं, लेकिन इनके खिलाफ भारतीय अधिकारियों का व्यवहार गैर-जिम्मेदाराना दिखाई देता और सुनाई पड़ता है। सवाल है कि आखिर यह सब कब तक चलता रहेगा। उससे भी बड़ा सवाल यह कि आखिरकार ऐसे अतिक्रमण विरोधी अभियान ब्रेक के बाद क्यों चलाये जाते हैं, क्यों नहीं पूरे देश में एक साथ चलाये जाते हैं। वहीं, जिन अतिक्रमणों से सरकारी अधिकारी जानबूझकर मुंह फेर लेते हैं, उनके खिलाफ अतिक्रमण विरोधी अभियान कौन चलाएगा।
अनुभव बताता है कि जब तक लोग बाग विकास प्राधिकरण के लोगों, नगर निगम के लोगों, जिला प्रशासन या अनुमंडल प्रशासन के लोगों के इशारे पर उलटफेर करते रहते हैं, तबतक कोई भी अतिक्रमण जायज होता है। लेकिन जैसे ही उस उलटफेर पर सवाल उठने लगते हैं, वह नाजायज हो जाता है और ध्वस्त कर दिया जाता है। नई नवेली अवैध कॉलोनियों, शहरी पार्कों या ग्रीन बेल्ट की जमीनों पर ऐसे अतिक्रमण आम बात बन चुके हैं और उनपर कार्रवाई भी मुंह देखकर की जाती है। पीडब्ल्यूडी की सड़कों व राजमार्गों व रेल की परिसम्पत्तियों से जुड़े अतिक्रमण का भी यही हाल है। रक्षा मंत्रालय या अन्य केंद्रीय या राज्य सरकार के विभागों की अनुपयोगी भूमि की बंदरबांट भी कुछ इसी प्रकार होती आई है। इसलिए केंद्र सरकार, राज्य सरकार और जिला सरकार को ऐसे अतिक्रमणों पर श्वेत पत्र जारी करना चाहिए, अन्यथा पीक एन्ड चूज वाली कार्रवाई बन्द करनी चाहिए।
दरअसल, जिस घर में लोग रहते हैं, उसे मैं 'मानव मंदिर' समझता हूँ, क्योंकि गृह स्वामी और गृह स्वामिनी अपने उसी घर से न केवल अपने बुजुर्गों और बच्चों की परवरिश करते हैं, बल्कि मानव समाज और प्राणी समाज के काम भी वक्त बेवक्त आते रहते हैं। ऐसे ही लोगों से मिलकर यह देश-समाज बनता है। ऐसे में जब उनमें से कुछ घरों यानी झोपड़ियों से लेकर मकानों तक पर बुलडोजर चलते हैं और वैसे ही 'अतिक्रमित देव मन्दिर' छोड़ दिये जाते हैं, तो ऐसी दोमुंही विधि-व्यवस्था पर कुछ सवाल उठने लाजिमी हैं।
कहा भी गया है कि लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, वो तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में। ये चंद पक्तियां भले ही सामाजिक या सांप्रदायिक उन्मादियों को लक्षित करके लिखी गईं हों, लेकिन भारतीय संवैधानिक सत्ता को अपने मन के मुताबिक हांकने वाले प्रशासनिक और न्यायिक अधिकारियों, जिनके 'गुप्त गठजोड़' राजनेताओं-पूंजीपतियों तक से रहते आये हैं, पर भी बड़ी सटीक बैठती हैं! क्योंकि 'हम भारत के लोग' के खिलाफ इनका 'पीक एन्ड चूज' वाला जो रवैया है, वह भारतीय संवैधानिक व्यवस्था से 'बलात्कार' नहीं है तो क्या है?
सुलगता सवाल है कि यदि यह संवैधानिक तंत्र समाज के अंतिम आदमी व उसके परिजनों के आंख की आंसू जब पोंछ नहीं सकता, तो उसे अपने 'अवांछित कृत्यों' से उन्हें रूलाने का भी कोई नैतिक अधिकार नहीं है, लेकिन यह आजादी के अमृतकाल में भी बदस्तूर जारी है! देखा जाए तो देश के विभिन्न हिस्सों से अतिक्रमण विरोधी अभियान का जो क्रूर चेहरा सामने वक्त-बेवक्त आया है, वह ब्रितानी शासकों के अत्याचारों को भी पीछे छोड़ चुका है। मेरा विचार है कि किसी को भी कहीं से उजाड़ने के पहले उसके पुनर्वास की उचित व्यवस्था करना भारतीय प्रशासन का दायित्व है, जिसके निर्वहन में वो कई बार विफल दिखाई देती है। ऐसे मामलों में न्यायालय द्वारा भी स्वतः संज्ञान न लिया जाना लोगों के दुःख-दर्द को बढ़ाने वाला साबित होता है, क्योंकि खर्चीली, दीर्घसूत्री और अपराधियों के बच निकलने वाले तमाम कानूनी छिद्रों के चलते हर कोई भारतीय न्याय व्यवस्था के दरवाजे खटखटाने से पहले सौ बार सोचता है।
इसलिए भारतीयों के बीच से बने नौकरशाहों व न्यायविदों से यह अपेक्षा की जाती है कि संविधान प्रदत्त विवेक के अनुप्रयोग के अधिकारों का बेजा इश्तेमाल किसी को फंसाने या बचाने के वास्ते नहीं करें, बल्कि सिस्टम से किसी न किसी तरह से पीड़ित हुए लोगों को वाजिब न्याय दिलाने के लिए करें। क्योंकि एक की तरफदारी करते हुए दूसरों को न्याय न देने की कोशिश एक ऐसी विकृत मानसिकता है जो देश व समाज को किसी गलत संस्कृति की तरफ़ धकेल रही है। अतिक्रमण विरोधी अभियानों से जो बातें क्षणकर सामने आ रही हैं, वो यह कि जिन मकानों की रजिस्ट्री हुई है, उन्हें भी तोड़ दिया जाता है। क्या यह रजिस्ट्री तंत्र की विफलता नहीं है? यदि हाँ, तो फिर आम आदमी उसे क्यों झेले।
सवाल है कि भारत में कानूनी साक्षरता दर बहुत कम है।अधिकांश लोग रजिस्ट्री हुई संपत्ति या बैंक लोन पास होने वाली सम्पत्ति को सही मानते हैं। जब स्थानीय भू-राजस्व कार्यालय ही भूमि माफियाओं से मिलकर इफ एन्ड बट की बात करे तो आमलोगों का उलझना लाजिमी है। अधिकांश भूमि अतिक्रमण मामलों में कुछ ऐसे ही खेल हुए हैं। इसमें जिम्मेदार अधिकारी-कर्मचारी बच जाते हैं और आम आदमी तबाह हो जाता है। आखिर जब राशन कार्ड, बिजली बिल, पानी बिल, गैस बिल, मतदाता पहचान पत्र आदि वैध दस्तावेज समझे जाते हैं, तो फिर इसके धारक सम्बन्धित भूमि पर अवैध कब्जाधारी कैसे हो गए, प्रशासन खुद आत्मचिंतन, आत्ममंथन करे।
इसलिए यदि किसी भी सरकारी या निजी संपत्ति पर अतिक्रमण हुआ है और अतिक्रमणकारी वहां वर्षों से काबिज हैं और संपत्ति स्वामी अतिक्रमणकारियों के खिलाफ वर्षों से शिकायत नहीं करते हैं, तो फिर ऐसे जगहों पर वर्षों से बसे लोगों को अचानक उजाड़ देना और उनके समुचित पुनर्वास की व्यवस्था नहीं करना लोगों पर अकस्मात थोपित प्रशासनिक आपदा नहीं है तो क्या है?
मानवता के इस हनन को मानवतावादी बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं, इसलिए सरकार से अपेक्षा है कि वह पूरे देश में अतिक्रमण सम्बन्धी एक श्वेत पत्र जारी करे और एक डेटलाइन तय करे कि इसके बाद अतिक्रमित हुई सरकारी सम्पत्तियों पर चरणबद्ध रूप से सख्त कार्रवाई की जाएगी। वहीं, सरकार यह भी स्पष्ट करे कि सरकारी अधिकारियों की लापरवाही या फिर भूमाफियाओं से उनकी परोक्ष सांठगांठ के चलते जिन सरकारी जमीन की रजिस्ट्री किसी व्यक्तिविशेष के नाम हुई है तो वह ऐसा करने वाले गिरोह के खिलाफ क्या कार्रवाई की है, कर रही है और उस गिरोह की कारगुजारियों का शिकार हुए व्यक्ति को क्या क्षतिपूर्ति दे सकती है। क्योंकि जब प्रशासनिक तंत्र विफल या विद्वेषी हो जाता है, तभी समाज में भ्रष्टाचारियों का बोलबाला बढ़ जाता है। जिसकी कीमत आम आदमी को कभी न कभी चुकानी पड़ती है, लेकिन वह कब तक चुकाएगा, यह यक्ष प्रश्न है।
इसके अलावा, वह यह भी स्पष्ट करे कि यदि सरकारी भूमि पर 'मानव मन्दिर' जायज नहीं है तो फिर वैसी ही भूमि पर बने 'धार्मिक मन्दिर' जायज कैसे हो सकते हैं और सरकारी तंत्र ऐसे धर्मस्थलों के खिलाफ क्या कार्रवाई कर सकता है और कबतक कर सकता है। क्योंकि किसी भी संवैधानिक व्यवस्था में कानून व्यवस्था के दो मानदंडों को कदापि जायज नहीं ठहराया जा सकता है।
दरअसल, एक पत्रकार के रूप में मैंने एक नहीं बल्कि कई अतिक्रमित झोपड़पट्टियों और बस्तियों को प्रशासनिक अधिकारियों के नेतृत्व में गठित टीम द्वारा बेरहमीपूर्वक उजाड़ते हुए देखा है। इस आशय की खबरें भी आये दिन मीडिया माध्यमों में छाई रहती हैं। हद तो तब होती है जब लोग-बाग रजिस्ट्री के पेपर, बिजली-पानी-गैस कनेक्शन के बिल दिखाते फिरते हैं, लेकिन अधिकारीगण कभी न्यायालय तो कभी उच्चाधिकारियों के आदेशों का हवाला देकर अपने अमानवीय कृत्य को जायज ठहराते हैं।
सवाल है कि इस देश में बहुत से लोग हैं जो संवैधानिक सत्ता की बार-बार दुहाई देते फिरते हैं, लेकिन वैसे लोग भी तब खामोश हो जाते हैं या अगल-बगल झांकने लगते हैं जब उनसे यह पूछा जाता है कि संवैधानिक सत्ता के समानांतर चल रहे आपराधिक सत्ता के बीच पीसते हुए आम आदमी के हकहुक़ूक़ की रक्षा का उत्तरदायित्व किस पर है? और यदि यह दायित्व संवैधानिक सत्ता के मातहत कार्यरत प्रशासन का है तो फिर वह बताये कि जगह-जगह पर उग आए आपराधिक सत्ता के खिलाफ उसकी कार्रवाई दर क्या है? और आजादी के 75 साल बाद भी उनका निर्मूलन क्यों नहीं सम्भव हो सका? क्या सिर्फ इसलिए कि आपराधिक सत्ता को सफेदपोश नेताओं व कथित पूंजीपतियों का संरक्षण प्राप्त है, जो प्रशासन को अपने इशारे पर नचाने के लिए उनका उपयोग करते हैं!