उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ एक बार फिर ऐतिहासिक क्षण का गवाह बनने जा रही है। राजधानी स्थित जनेश्वर मिश्र पार्क में छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर आधारित महानाट्य ‘जाणता राजा’ का मंचन होने जा रहा है। रंगमंच सज चुका है और छत्रपति शिवाजी की शौर्य गाथा से दर्शक अभिभूत होंगे। जाणता राजा एक बार दहाड़ते नजर आएंगे कि ‘जो लोग बुरे से बुरे समय में भी अपने लक्ष्य की ओर लगातार काम करने के लिए दृढ़ संकल्पित होते हैं उनके लिए समय स्वयं बदल जाता है।’
छत्रपति महाराज ने इसी विचार के दम पर अपने शौर्य, बुद्धिमता और निडरता से भारत राष्ट्र की अप्रतिम सेवा की। उन्होंने अन्याय के खिलाफ तनकर प्रतिरोध का प्रस्तावना रचा और उसे मूर्त रुप देकर अपनी प्रजा को संगठित किया। उनकी सोच थी कि ‘स्वतंत्रता एक वरदान है जिसे पाने का अधिकारी हर कोई है।’ वे अपने लोगों का हौसला बढ़ाते हुए कहते थे कि ‘जब हौसले बुलंद हो तो पहाड़ भी एक मिट्टी का ढे़र लगता है।’ ऐसे महानायक थे हमारे जाणता राजा छत्रपति शिवाजी महाराज। शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ। उनके पिता शाहजीराजे भोंसले एक शक्तिशाली सामंत राजा थे। उनकी माता जीजाबाई जाधवराव कुल में उत्पन असाधारण प्रतिभाशाली महिला थी। शिवाजी की माता बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी जिसका प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा। 1674 में रायगढ़ में उनका राज्याभिषेक हुआ और वे छत्रपति बने। छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी अनुशासित सेना एवं सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों की सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया। उन्होंने समर विद्या में अनेक नवाचार किए तथा छापामार युद्ध गोरिल्ल युद्धनीति की नई शैली विकसित की।
उन्होंने प्राचीन हिंदू राजनीतिक प्रथाओं तथा दरबारी शिष्टाचारों को जीवंतता प्रदान की। मराठी और संस्कृत को राजकाज का भाषा बनाया। रोहिदेश्वर का दुर्ग सबसे पहला दुर्ग था जिसपर शिवाजी महाराज ने सबसे पहले अधिकार जमाया। उसके बाद तोरणा, राजगढ़, चाकन, कोंडना सरीखे अनेक दुर्गों पर अपना परचम लहराया। छत्रपति महाराज शिवाजी ने मुगलों के नाक में दम कर दिया। औरंगजेब के शागिर्द शाइस्ता खान को शिवाजी महाराज के डर से जान बचाकर भागना पड़ा। शिवाजी महाराज ने मुगल क्षेत्रों में आक्रमण बढ़ाकर मुगल सेना में भय पैदा कर दिया। औरंगजेब द्वारा आगरा बुलाए जाने पर शिवाजी महाराज गए लेकिन उचित सम्मान न मिलने से भरे दरबार में मुगल शहंशाह की लानत-मलानत की। औरंगजेब ने शिवाजी महाराज को नजरबंद करा दिया। लेकिन अपनी विलक्षण बुद्धि चातुर्य से महाराज शिवाजी औरंगजेब की कैद से निकलने में कामयाब रहे। छत्रपति महाराज शिवाजी ने बीजापुर की आदिलशाही हुकूमत के रणनीतिकार अफजल खान को बघनख से मार डाला। उनका बघनख बाघ के नाखून से बना था।
भारत आने वाले विदेशी यात्रियों ने भी छत्रपति महाराज शिवाजी जी की जमकर प्रशंसा की है। फ्रांसीसी यात्री आॅबकरे 1670 में भारत का भ्रमण किया। उसने अपने गं्रथ ‘वाॅयस इंडीज ओरिएंटेल’ में छत्रपति शिवाजी महाराज के शौर्य गाथा का उल्लेख करते हुए कहा है कि ‘वह सिकंदर से कम कुशल नहीं हैं। उनकी गति इतनी तेज है कि लगता है कि उनकी सेना पंख लगाकर उड़ती है।’ इसी ग्रंथ में यह भी उल्लेख है कि ‘शिवाजी केवल तीव्र ही नहीं है बल्कि जुलियस सीजर जैसे दयालु और उदार भी हैं।’ कवि भूषण जी ने शिवाजी महाराज के शौर्य गाथा का अदभुत वर्णन करते हुए लिखा है कि- साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि, सरजा शिवाजी जंग जीतन चलत हैं, भूषण भनत नाद विहद नगारत के, नदी नद मद गैबरन के रत हैं। ऐसे महान योद्धा थे शिवाजी महाराज जिन्होंने तत्कालीन समाज की अपमानित और उत्पीड़ित करने वाली शत्रुओं द्वारा दिए जाने वाले घाव को सहा। प्रारंभ में उनके पास न तो विजेता की सैन्य शक्ति थी और न ही हुकूमत का सिंहासन। लेकिन उन्होंने अपने विचारों के बल के बूते हाशिए के लोगों को जोड़कर राष्ट्र निर्माण की साधना को फलीभूत कर दिया। उनका नीतिगत वाक्य था कि ‘जब लक्ष्य जीत की हो, तो हासिल करने के लिए कितना भी परिश्रम, कोई भी मूल्य, क्यों न हो, उसे चुकाना ही पड़ता है।’
शिवाजी महाराज के समय जो दौर था वह बाहरी आक्रमणकारियों का था। उन आक्रमणकारियों का मकसद भारतीयता के पोषित मूल्यों को उखाड़ फेंकना था। भारतीय पंथों-परंपराओं को तहस-नहस करना था। मठ-मंदिरों के अस्तित्व को मिटा डालना था। लेकिन छत्रपति शिवाजी महाराज तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे अपनी सर्जनात्मक जिद् पर डटे रहे। उनका ध्येय एक महान मराठा साम्राज्य की नींव डालना भर नहीं था। बल्कि भारतीय जनमानस में व्याप्त हीन भावना खत्म कर एक उनमें विजेता का भाव पैदा करना था। उन्होंने अपने संकल्पों को आकार देकर हिंदू पद पादशाही की नींव डाली। उसी का परिणाम रहा कि 1761 में मुगलिया सल्तनत की सांसे थम गई और मराठा पताका फहर उठा। विचार करें तो छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदू पद पादशाही भारत की भावी पीढ़ी के लिए सुशासन और सेवाभाव का चिरस्मरणीय प्रेरणास्रोत है। जिस जवाबदेही, पारदर्शिता, सहभागिता और नवाचार को आज हम आधुनिक भारत के सुशासन का परम लक्ष्य मानते हंै वह शिवाजी महाराज के सुशासन और सेवा भाव का बीज मंत्र रहा। हाशिए के लोगों को न्याय और अधिकार से सुसज्जित करने का कवच रहा। समाज के बेसहारा और जरुरतमंद लोगों की सेवा का सतत प्रवाह रहा।
आज की तारीख में वे संस्थाएं और संगठन बधाई के पात्र हैं जो जाणता राजा छत्रपति शिवाजी महाराज के आदर्श मूल्यों और विचारों से प्रेरित होकर मानवता की सेवा का व्रत और बीड़ा उठाए हैं। वे लोग भी बधाई के पात्र हैं जो इन संस्थाओं में निष्काम भाव से अपना योगदान दे रहे हैं। वे लोग विशेष बधाई के पात्र हैं जो छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन और संघर्ष को नाटक मंचन कर राष्ट्र की भावी पीढ़ी में चेतना और देशभक्ति का प्रसार कर रहे हैं। गौर करें तो भारत का सनातन और चिरंतन मूल्य सेवा धर्म है। हमारे सभी शास्त्र, पुराण, उपनिषद्, महाकाव्य और स्मृति ग्रंथ मानवता की निःस्वार्थ सेवा पर बल देते हैं। सेवाभाव हमारे लिए आत्मसंतोष भर नहीं है। बल्कि लोगों के बीच अच्छाई के संदेश को स्वतः उजागर करते हुए समाज को नई दिशा और दशा देने का काम करता है। सेवा भाव के जरिए समाज में व्याप्त कुरीतियों और विद्रुपताओं को समाप्त किया जा सकता है। इस संपूर्ण ब्रहमांड में सेवा भाव से बड़ा कोई परोपकार नहीं हैं। श्रीरामचरितमानस जी में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई’। स्वयं भगवान श्रीराम सेवाभाव के उच्चतम आदर्श हैं।
उन्होंने अपने पिता और अयोध्या नरेश श्री दशरथ जी महाराज के मित्र जटायू की सेवा की। उनका अंतिम संस्कार किया। माता भीलनी के जुठे बेर को खाकर सत्ता और प्रजा के बीच के भेदभाव को खत्म किया। वन में रहने वाले साधु-संतो और जनों की सेवा की। भगवान श्रीकृष्ण भी कंस के आताताई शासन से लोगों को मुक्त कर सेवा प्रदान की। छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन पर प्रभु श्रीराम की आदर्शवादिता और प्रजाप्रेम का स्पष्ट प्रभाव पड़ा। शिवाजी महाराज अपने लोगों को शिक्षा देते हुए भगवान श्रीराम का आदर्श और उनकी प्रजावत्सलता का उदाहरण देते थे। वे कहते थे कि सेवा ही वह संकल्प है जो स्वयं के जीवन को समुन्नत बनाने के साथ-साथ समाज व देश की भाषा, संस्कृति, विविधता, सर्वधर्म समभाव और लोकमान्यताओं को संवारने और सहेजने का आत्मबल देता है।
विचार करें तो छत्रपति शिवाजी महाराज के इसी सेवा संकल्पों के जरिए भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी और धार्मिक-सांस्कृतिक टकराव को मिटाया जा सकता है। इसी सेवा भाव से भारत राष्ट्र के सनातन मूल्यों को सहेजा जा सकता है। इसी सेवा भाव से लोककल्याण के मार्ग के विध्न-बाधाओं को दूर किया जा सकता है। आज के दौर में बस संकल्पों को साधने की जरुरत है। छत्रपति शिवाजी महाराज अकसर कहते थे कि हम सेवा भाव का यह कार्य छोटे-छोटे प्रयासों से कर सकते हैं। आज हम इन प्रयासों के जरिए जाणता राजा छत्रपति शिवाजी महाराज के सपने को पूरा कर सकते हंै।