घातक है नाम बदलने की राजनीति

किसी चीज का नाम बदल देने से भी चीज वही रहेगी. गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, गुलाब ही रहेगा।'

Update: 2018-10-17 12:59 GMT

यूसुफ़ अंसारी

अंग्रेज़ी के मशहूर लेखक विलियम शेक्सपियर ने एक बार कहा था- 'नाम में क्या रखा है? किसी चीज का नाम बदल देने से भी चीज वही रहेगी. गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, गुलाब ही रहेगा।' लेकिन नहीं साहब, शेकसपीयर ग़लत थे. हमारे यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदितयनाथ सही हैं. नाम में बहुत कुछ रखा है. बल्कि सबकुछ नाम ही में तो रखा है. व्यवहार, गुण-अवगुण ये सब बाद की बातें हैं. किसी व्यक्ति, चीज़ या फिर जगह का नाम उसका एक ऐसा ख़ाका खींच देता है, जो ज़हन में उसकी एक अलग तसवीर बना देता है.




 शायद यही वजह है कि नाम बदलने को लेकर योगी आदित्यानाथ कुछ ज्यादा ही सक्रिय हैं. उन्होंने इलाहबाद का नाम प्रयागराज कर दिया है. वो कहते हैं कि इलाहबाद का पुराना नाम प्रयाग ही था. साल 1574 में तब के मुग़ल बादशाह अकबर ने इसका नाम बदलकर इलाहबाद रख दिया था. कहा जाता है कि यहीं से अकबर ने अपने नए धर्म दीन-ए-इलाही की शउरुआत की थी. प्रयाग में एक किले की नींव रखी थी तभी उन्होंने इसका नाम इलाहबाद रखा. आज 444 साल बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गंगा, यमुना और लुप्त हो चुकी सरस्वती नदियों के संगम की इस जगह को उसका पुराना नाम लौटा दिया.

इसे लेकर योगी सरकार की राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हो रही है. उऩपर योजनाबद्ध तरीके से धीरे-धीरे मुस्लिम पहचान मिटाने के आरोप लग रहे हैं. इलाहबाद का नाम बदलने को लेकर योगी सरकार की अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक और पाकिसतान से लेकर अरब देशों तक के मीडिया में आलोचना हो रही है. द गार्जियन, खलीज टाइम्स, पाकिस्तान टूडे और इंडिपेंडेंट जैसे अखबारों ने इस खबर को तरजीह देते हुए लिखा है कि इलाहबाद का नाम इस लिए बदला गया क्योंकि यह मुस्लिम नाम था इसे एक मुस्लिम बादशाह ने रखा था. इन आलोचनाओं से घिरे योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि उन्होंने इलाहबाद का नाम बदलकर इस शहर की प्राचीन धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान लौटाई है.




 यहां यह सवाल पैदा होता है कि क्या इलाहबाद नाम से कुंभ मेले की अहमियत कम होती है. 400 साल से ज्यादा से वहां कुंभ का मेला लग रहा है. आगे भी अगर इसका नाम इलाहबाद ही रह जाता तो क्या हर्ज था. इससे कुंभ के मेले की धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान पर कैसे फर्क पड़ता. इसका कोई तर्क मुख्यंमत्री योगी आदित्यनाथ या फिर केंद्र सरकार के पास नहीं है. दरअसल मुस्लिम विरोध बीजेपी का प्रमुख एजेंडा है. बीजेपी मध्यकाल को हिंदुओं के लिए ग़ुलामी का काल मानती है. इसी लिए वो मध्यकाल से जुड़ी हर पहचान को धीरे-धीरे ख़त्म करने पर उतारू है. इसके लिए बस उसे कोई बहाना चाहिए.

कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के मशहूर रेलवे स्टेशन मुग़ल सराय का नाम बदलकर पंडित दीन दयाल उपाध्याय स्टेशन कर दिया गया. बहाना था पंडित दीन दयाल उपाध्याय की जन्मशती का. उन्हें श्र्धाजंजिली देने के लिए मुगल सराय रेलवे स्टेशन का नाम बदला गया. दरअसल यह क़दम पंडित दीन दयाल उपाध्याय को सम्मान देने से ज्यादा मुगल कालीन पहचान को मिटाने के लिए उठाया गया. अगर पंडित दीन दयाल को सम्मान देने की बात होती तो उनके नाम पर देश में कहीं भी बड़ा स्मारक, शोध संस्थान वगैरह बनवाया जा सकता था. इसके लिए स्टेशन का नाम बदलने की कोई तुक नहीं थी.

मुग़ल सराय स्टेशन का नाम दलने के लिए लचर वजह का सहारा लिया गया. साल 1968 में इसी स्टेशन पर पंडित दीन दयाल उपाध्याय का संदिग्ध परिस्थितियों में शव मिला था. बीजेपी इस साल दीनदयाल शताब्दी वर्ष मना रही है. उनको सम्मान देने के लिए राज्य सरकार ने केंद्र को मुग़ल सराय स्टेशन का नाम बदलकर उनके नाम पर करने सुझाव दिया. केंद्र ने इसे फौरन मान लिया. इसका विरोध भी हुआ. लेकिन बेअसर रहा. स्टेशन का नाम बदले बगैर भी पंडित दीन दयाल को सम्मान दिया जा सकता था. उनके नाम पर स्टेशन के पास कोई नया संग्राहलय वगैरह बनवाया जा सकता था.

वैसे तो देश में नाम बदलने का इतिहास काफी पुराना है. आज़ाद भारत में साल 1950 में सबसे पहले पूर्वी पंजाब का नाम पंजाब रखा गया. 1956 में हैदराबाद का नाम आंध्रप्रदेश किया गया तो 1959 में मध्यभारत का नाम मध्यप्रदेश किया गया. सिलसिला यहीं नहीं खत्म हुआ. 1969 में मद्रास राज्य को तमिलनाडु नाम दिया गया तो 1973 में मैसूर को कर्नाटक नाम दे दिया गया. इसके बाद पांडिचेरी का नाम बदल कर पुडुचेरी हो गया और उत्तरांचल का उत्तराखंड. साल 2011 में उड़ीसा का नाम ओडिशा कर दिया गया. इससे पहले मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, शिमला, कानपुर, जबलपुर लगभग 15 शहरों के नाम बदले गए हैं. इस सिलसिले को आगो बढ़ाते हुए जुलाई 2016 में मद्रास, बंबई और कलकत्ता उच्च न्यायालय के नाम भी बदले गए.

ये तमाम उदाहरण मिलते-जुलते नामों के बदलने के हैं. इनको लेकर ज्यादा विवाद नहीं हुआ. बीजेपी का ज़ोर मुस्लिम नामों बदलने को लेकर रहता है. इस वजह से ये मामले तूल पकड़ते हैं. इन्हें लेकर सियासी विवाद भी होता है. इलाहबाद का नाम बदलने को लेकर इसी लिए योगी सरकार की आलोचना हो रही है. इसी तरह लखनऊ का नाम बदलकर लक्ष्मण पुर करने के प्रस्साव पर भी सियासी बवाल मचा. लखनऊ के मशहूर हज़रत गंज चौक का नाम पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर अटल चौक किया गया. संविधान निर्माता डॉ. भीमराम अंबेडकर के नाम के बीच में उनके पिता रामजी का नाम जोड़ने को लेकर भा काफी बवाल मचा था. योगी के इस क़दम को अंबेडकर के भगवाकरण के रूप में देखा गया था.

दो साल पहले दिल्ली में औरंगज़ेब रोड का नाम बदल कर पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर रखा गया. इसे लेकर केंद्र सरकार और एनडीएमसी का काफी आलोचना हुई. तब बीजेपी की तरफ से कहा गया कि मुसलमानों को औरंगज़ेब की बजाय डॉ कलाम को अपना आदर्श बनाना चाहिए. दिल्ली में अकबर रोड का नाम बदलकर महाराणा प्रताप के नाम पर रखने की मांग हो रही है. मुस्लिम नाम खासकर मुग़लों से जुड़े नाम बदलना बीजेपी का छिपा हुआ एजेंडा है. ज़रा सा बहाना मिलते ही ये एजेंडा सामने आ जाता है.

दरअसल विचारधारा के आधार पर या फिर किसी खास तबक की पहचान मिटाने के मकसद से सड़कों, चौराहों, शहरों या फिर इमरतों के नाम नाम बदलने की राजनीति देश के लिए घातक है. इससे न समाज को कोई फायदा है और न ही देश को. इससे समाज में एक तबके का जहां उत्साह वर्धन होता है वहीं दूसरा तबक़ा हीन भावना क शिकार हो जाता है. नया नाम ज़हन और ज़ुबान पर चढ़ने में वक्त लगता है. यूपीए सरकार के समय में कनाट प्लेस और कनाट सर्कस का नाम बदलकर राजीव चौक और इंदिरा चौक रखा गया था. इस बात को एक दशक से भी ज्यादा हो चुका है लेकिन आज भी लोग कनाट प्लेस ही जाते हैं. अगर कनाट प्लेस का नाम बदल जाने से कांग्रेस को फायदा होना होता तो वो आज हाशिये पर नहीं होती. इसी तरह मुग़ल सराय, इलाहबाद और लखनऊ का नाम बदलने से बीजेपी को कोई खास फायदा नहीं होने वाला.

कई लोग ये तर्क देते हैं कि कांग्रेस ने किया तो बीजेपी क्यों न करे..? कांग्रेस की गल्तियां दोहरने से बीजेपी की अपनी अलग पहचान नहीं बनेगी. बीजेपी आज केंदेर से लेकर देश के लगभग 20 राज्यों में सत्ता में हैं. वो जहां चाहे, जिस सड़क, चौराहे, गली, मुहल्ले, शहर या इमारत का नाम बदल सकती है. लेकिन नाम बदलने से पहले उसे अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के 'वासुधैव कुटुंबकम' और पीएम नरेंद्र मोदी के 'सबका साथ, सबका विकास' नारे को ध्यान में रखना चाहिए. अगर बीजेपी राज में मुस्लिम पहचान वाले शहरों का नाम बदलने का सिलसिला जारी रहता है तो इससे बीजेपी और उसकी सरकरों के में मुस्लिम समाज का अविश्वास बढ़ेगा. ये स्थिति न मुस्लिम समाज के लिए अच्छी है न बीजेपी के लिए और न ही देश के लिए.

नाम बदलने की राजनीति देश के लिए घातक है. इस पर रोक लगनी चाहिए. बेहतर हो कि नाम बदलने को लेकर केंद्र और राज्यों में एक विशेष समिति बने. सभी पक्षों की राय जानने के बाद यह कमेटी नाम बदलने के फैसला करे. नाम बदलने के लिए ठोस कारण भी होने चाहिए.     

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