परशुराम सिंह ने वर्षों तक अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी
सन 1942 के आंदोलन के दौरान बड़ा क्रांतिकारी पालने वाला जमदाहा गांव के आसपास के सात गांवों के लोगों को करीब पांच साल तक वनवास झेलना पड़ा था
आजादी के आंदोलन के महानायक थे परशुराम सिंह। बांका जिला में स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभायी थी। परशुराम दल का अंग्रेजों में भारी खौफ था। उन्हें मारने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने सूट वारंट जारी किया था। यहीं नहीं उनकी सेना में बागी महेन्द्र गोप, सोरी गोप एक साथ फांसी पर लटका दिए गए थे। संग्रामी जागो शाही लक्खी शाही तथा इन लोगों के बड़े भाई जागो शाही एव दल के सेनापति भुवनेश्वर मिश्र आदि भी इसी बैनर में रहकर अंग्रेजों से लोहा लेते रहे। आजादी के मतवालों की आमसभा मतवाला पहाड़ पर होती थी। जहां प्रत्येक वर्ष उन्हें पुण्यतिथि दिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित कर इनके और इनके साथियों की शहादत को याद किया जाता है। परशुराम सिंह 1952 में सबसे पहले कांग्रेस कमेटी भागलपुर जिला अध्यक्ष बने थे।
सन 1942 के आंदोलन के दौरान बड़ा क्रांतिकारी पालने वाला जमदाहा गांव के आसपास के सात गांवों के लोगों को करीब पांच साल तक वनवास झेलना पड़ा था। उन गांवों में इक्का दुक्का महिलाओं के सिवा कोई नहीं था। इसका कारण देश को आजादी दिलाने के लिए परशुराम दल के क्रांतिकारी अगुआ परशुराम सिंह द्वारा फिरंगियों से लोहा लेना था।
उनके कारनामों से अंग्रेज इतने दशहत से भर उठे थे कि जमदाहा आंदोलन के तुरंत बाद ब्रिटिश पुलिस ने बसमत्ता गांव जाकर वहां के एक-एक घर को ध्वस्त कर दिया था। उस वक्त गांव में मुस्लिम और सूर्यवंशी क्षत्रिय के मुश्किल से दस घर थे। बसमत्ता के अलावा कचनसा, फागा, नकटी, पिलुआ, पटवारा आदि में किसी घर की खड़ी दीवारें नहीं बची थीं। क्रांतिकारी परिवारों के सदस्यों को यातनाएं झेलने के लिए उन्हें भी घर से भगा दिया गया।
उनके सारे सामान दुश्मानों की तरह नष्ट कर दिए गए थे। परशुराम सिंह के साथ बचपन में काम करने वाले विद्याधर सिंह बताते हैं कि गांव की सभी महिलाओं व बच्चों को मौका मिलते ही रिश्तेदारों के यहां भेज दिया गया था। पुरुष भी दिन रात जंगल में भटक कर समय बिताते थे। फिरंगियों की नजर से बचकर जान पहचान वाले गांव में जाकर किसी तरह छिपकर भोजन का इंतजाम करना पड़ता था।
उस दौरान सभी क्रांतिकारियों का ठिकाना मतवाला पहाड़ था। पहाड़ भी चारों तरफ से नहरों और नदियों से घिरा था। उस पर घना जंगल था। वहां परशुराम सिंह की अगुआई में अक्सर सियाराम सिंह और महेंद्र गोप जैसे प्रसिद्ध क्रांतिकारी भी जमे रहते थे। वहीं से योजनाएं बना कर गुप्त रूप से स्थानीय क्रांतिकारियों को अंग्रेजी शासन के खिलाफ कार्रवाई करने भेजा जाता था। कई बार ऐसी आशंका हाने पर ब्रिटिश सेना का हेलीकॉप्टर को पहाड़ के ऊपर मंडराते देखा गया था। परशुराम सिंह की बड़ी बहू आभा देवी, छोटी बहू रामा देवी, स्वतंत्रता सेनानी स्व. गणेश सिंह की पत्नी आदि ने बताया कि शादी के बाद बाबू जी दुल्हन लेकर घर पर पहुंचे ही थे कि अंग्रेजी फौज उन्हें गिरफ्तार करने पहुंच गई थी।
नव विवाहिता को किसी तरह घर में प्रवेश करा कर अंग्रेज सरकार के चंगुल से बचने के लिए वे भागकर मतवाला पहाड़ पर जा छिपे थे। उसके बाद दुल्हन की बजाय मतवाला पहाड़ से ही उनकी यारी हो गई थी। आभा देवी ने बताया कि 1943 के ही आसपास उनके जेठ राजेंद्र सिंह की युवा अवस्था में ही मौत हो गई थी। उसकी खबर मतवाला पहाड़ पर भेजी गई, लेकिन बाबू जी ने खबर भिजवाया कि श्मसान घाट पर उनका विधि पूर्वक दाह संस्कार करने की व्यवस्था कर दो। वे वहां आएंगे तो अंग्रेज पुलिस भी पहुंच जाएगी और पूरे गांव पर जुल्म ढाहेगी।
जमदाहा की घटना के बाद परशुराम सिंह की गिरफ्तारी के लिए अंग्रेज सरकार ने ईनाम की घोषणा कर दी थी। उनकी टोह लेने के लिए ब्रिटिश सरकार के जासूस गांव-गांव में घूमने लगे थे। एक बार महेंद्र गोप को सरैया के एक गोस्वामी द्वारा जासूसी करने का का पता चल गया। उनके साथ पूरा दस्ता ही उसके गांव पहुंच गया था। महेंद्र गोप को देखते ही गोस्वामी भय से भाग खड़ा हुआ। लेकिन उन्होंने दीवार फांद कर उसे पकड़कर उसकी खूब खबर ली थी।
गोप के समझाने-बुझाने के बाद स्थानीय लोगों ने अंग्रेज सरकार के लिए गुप्तचर का काम करना बंद कर दिया। उन स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में गांव से कोई खबर न मिलते देख अंग्रेजी फौज ने उस इलाके में गोरखा पलटन के तीन कैंप स्थापित कर दिए। उनमें से एक कैंप परशुराम सिंह के बचे हुए एक घर पर बनाया गया था। दूसरा मतवाला पहाड़ के नीचे और तीसरा कैप जमदाहा में स्थापित किया गया था। उन कैंपों पर तैनात गोरखा सिपाहियों की चौकसी व सघन तलाशी अभियान के कारण एक साल के अंदर इलाके के अधिकांश क्रांतिकारी पकड़ लिए गए थे या भारत माता के प्यारे हो गए थे।
प्रसिद्ध इतिहासकार केके दत्ता सहित कई इतिहासकारों ने भी स्वतंत्रता आंदोलन में भागलपुर और संथाल में सक्रिय परशुराम दल का जिक्र किया है। दत्ता लिखते हैं कि परशुराम दल छापामार और हिसात्मक तरीके से आंदोलन कर रहे थे। भागलपुर के अंग्रेज अधिकारियों के लिए यह सबसे बड़ी चिता की बात थी। इस दल को गंगा किनारे से लेकर संथाल तक के लोगों का साथ मिल रहा था।
(कुमार कृष्णन)