ऐतिहासिक धरोहरों का केंद्र नालन्दा, राजगीर और बड़गांव- प्रभात वर्मा

राजगीर के ऐतिहासिक धरोहर पांडू पोखर का सौदर्यीकरण ने इसे अंतरराष्ट्रीय पटल पर ला खड़ा कर दिया है।

Update: 2021-07-17 13:06 GMT

नालन्दा और राजगीर अतीत काल की ऐतिहासिक गौरवमयी इतिहास समेटे आज भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। जहां प्रतिदिन हजारो की संख्या में इन धरोहरों के दर्शन को उपस्थित होते हैं।नालन्दा और राजगीर प्राचीन काल से ही लोगों के आकर्षण का केंद्र बना रहा है। नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में कहा जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय की खोज अलेक्जेंडर कनिंघम ने की थी। पुरातात्विक और साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 450 ईसा के आसपास हुई थी।

गुप्त वंश के शासक कुमार गुप्त ने इसकी स्थापना की थी। हर्षवर्द्धन ने भी इसको दान दिया था। हर्षवर्द्धन के बाद पाल शासकों ने भी इसे संरक्षण दिया था । स्थानीय शासक व विदेशी शासकों ने भी इसे दान दिया था। इस विश्वविद्यालय का अस्तित्व 12वीं शताब्दी तक बना रहा। इतिहासकारों के अनुसार यहां करीब 780 साल तक पढ़ाई हुई थी। तब बौद्ध धर्म, दर्शन, चिकित्सा, गणित, वास्तु, धातु और अंतरिक्ष विज्ञान की पढ़ाई का यह महत्वपूर्ण केन्द्र माना जाता था, लेकिन कुछ उपद्रवियों ने इस विश्वविद्यालय को जला डाला।

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय में तीन लाइब्रेरी थीं। इनके नाम रत्नसागर, रत्नोदधि व रत्नरंजिता थे। माना जाता है जब विश्वविद्यालय में आग लगाई गई तो ये पुस्तकालय छह माह तक जलते रहे थे। इतना ही नहीं, यह भी माना जाता है कि विज्ञान की खोज से संबंधित बहुत सारे पुस्तकें विदेशी लुटेरे लेकर चले गए थे।

विश्वविद्यालय पांचवी से बारहवीं शताब्दी में नालंदा बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन चुका था। सातवीं शताब्दी में ह्वेनसांग भी यहां अध्ययन के लिए आया था। दुनिया के इस पहले आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दुनिया भर से आए 10 हजार छात्र रहकर शिक्षा लेते थे और 2,000 शिक्षक उन्हें शिक्षा देते थे। यहां आने वाले छात्रों में बौद्ध सन्यासियों की संख्या ज्यादा थी।

राजगीर गिरिव्रज – राजगृह

दुनिया के नक्शे पर ऐतिहासिक तथा रमणीय पर्यटन स्थल के रूप में ख्यात है राजगीर। इतिहास की पुस्तकों के अनुसार राजगीर को बसुमति, बृहद्रथपुर, गिरिवगज, कुशाग्रपुर एवं राजगृह नाम से पुकारा जाता रहा है. राजगीर में ऐतिहासिक, प्राचीन एवं धार्मिक स्थलों का संग्रह है. यहां एक तरफ सप्तकर्णि गुफा, सोन गुफा, मनियार मठ, जरासंध का आखाड़ा, तपोवन, वेनुवन, जापानी मंदिर, सोनभंडार (स्वर्ण भंडार) गुफाएं, बिम्बिसार कारागार, आजातशत्रु का किला है तो रत्नागिरी पहाड़ पर बौद्ध धर्म का शांति स्तूप भी है।

नालंदा से 19 किमी दूर राजगीर हिन्दू, बौद्ध एवं जैन धर्मों का पवित्र स्थल है, जो प्राचीनकाल में मगध राज्य की राजधानी था। जिसका भग्नावशेष आज भी विद्यमान है पाटलिपुत्र की स्थापना से पूर्व राजगीर अपने उत्कर्ष पर था, जहाँ खण्डहरों के रूप में क़िला, रथों के पथ, स्नानागार, स्तूप और भग्न महल हैं। राजगीर में अनेक गुफाएं हैं, जिसमें एक स्वर्ण भंडार है। इसमें एक विशाल दरवाजा है। जिसमें अकूत संपत्ति छिपी है। जो सदियों से बंद इस दरवाजे को आज तक कोई खोल नहीं पाया। कहा जाता है कि यह खजाना महाभारत कालीन राजा जरासंध का है। वहीं कुछ लोग इसे मगध साम्राज्य के राजा बिंबसार का भी मानते हैं।

बिंबसार के कार्यकाल के दौरान कई राजाओं ने उनकी अधीनस्थता स्वीकार की थी और अपनी संपत्ति राजा को समर्पिंत की थी। महल में रहते हुए बिंबसार के दुश्मनों की भी कमी नहीं थी। इसलिए उन्होंने विभारगिरि पर्वत के आस-पास अनेक गुफाओं का निर्माण करवाया। जहां उन्होंने महल का सारा सोना, हीरे और जवाहरात सुरक्षित रखे। इन गुफाओं की सुरक्षा के लिए राजा का सबसे अच्छा सैनिक दस्ता हर वक्त तैनान रहता था। इन गुफाओं का निर्माण और खजाने को रखने के राज के बारे में विश्वसनीय सैनिकों के अलावा किसी और को कोई जानकारी नहीं थी।

बिंबसार को राजगीर में ही गौतम बुद्ध से ज्ञान प्राप्त हुआ था। उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाकर उसका संरक्षण करने का निर्णय लिया। इस बात से बिंबसार का पुत्र आजातशत्रु नाराज था। वह जल्द से जल्द राजा बनना चाहता था, साथ ही अपने पूर्वजों के खजाने का भी पता लगाना चाहता था। उसने अपने ही पिता को बंदी बनवा लिया और तब तक उन्हें भोजन नहीं दिया, जब तक वे खजाने का पता नहीं बता दे। बिंबसार ने आखिरी वक्त तक मुंह बंद रखा और एक दिन उनकी मृत्यु हो गई।

कहा जाता है कि तब से यह खजाना एक राज ही बना हुआ है। खजाने का दरवाजा खोलने की विधि केवल बिंबसार जानता था। कहा जाता है कि तब से लेकर आज तक कोई भी दरवाजे के पीछे का रहस्य नहीं जान पाया।राजगीर ने अपने भीतर कई युगीन इतिहास छुपा रखा है। डेढ़ लाख वर्ष पूर्व प्राग ऐतिहासिक काल में वहां पाषाणयुगीन संस्कृतियां थीं। मगध की राजधानी राजगृह इतिहास में कई नामों से जानी गयी– यथा वसुमति बार्हद्रथपुर गिरिव्रज कुशाग्रपुर राजगृह।

रामायण के अनुसार ब्रह्मा के चौथे पुत्र वसु ने गिरिव्रज नामक नगर की स्थापना की। पुराणों के अनुसार मगध पर सर्वप्रथम बार्हद्रथ वंश का शासन था। इसी वंश का राजा जरासंध था जिसने गिरिव्रज को अपनी राजधानी बनाया। तत्पश्चात् वहाँ प्रद्योत वंश का शासन स्थापित हुआ। प्रद्योत वंश का अन्त करके शिशुनाग ने अपने वंश की स्थापना की। शिशुनाग वंश के बाद नन्द वंश ने शासन किया।

बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार बार्हद्रथ वंश का कोई अस्तित्व ही नहीं है जबकि प्रद्योत का सम्बन्ध अवन्ति से था। इनके अनुसार मगध का सर्वप्रथम शासक बिम्बसार ही था। बिम्बिसार हर्यंक वंश का शासक था जिसने 544-492 ई.पू. के मध्य शासन किया। बिम्बिसार का विवाह तत्कालीन प्रभावशाली गणराज्य वैशाली के शासक चेटक की पुत्री चेलना से हुआ था। गंगा नदी इन दोनों राज्यों के बीच की सीमा बनाती थी। बिम्बिसार का अन्त बहुत दुःखद हुआ। वह अतिसाम्राज्यवादी था। अन्य राज्यों के अलावा उसने अपनी कूटनीति के बल पर वज्जि संघ को पराजित किया।

लिच्छिवियों से अपने राज्य को सुरक्षित रखने के लिए उसने पाटलिग्राम में दुर्ग का निर्माण कराया। इसके अलावा उसने अपनी राजधानी राजगृह के चारों तरफ सुरक्षा दीवार का निर्माण कराया। अजातशत्रु के शासन के आठवें वर्ष में भगवान बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ। महापरिनिर्वाण के पश्चात् बुद्ध के अवशेषों पर उसने राजगृह में स्तूप का निर्माण कराया। अजातशत्रु के शासन काल में सोतपर्नी गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया जिसमें बुद्ध की शिक्षाओं को सुत्तपिटक तथा विनयपिटक में विभाजित किया गया।

अजातशत्रु के पुत्र उदायिन या उदयभद्र ने उसकी हत्या कर दी और शासक बना। उदायिन ने गंगा और सोन नदियों के संगम पर पाटलिपुत्र नामक नगर की स्थापना की। उदायिन ने 460-444 ई.पू. तक शासन किया। ये मगध के इतिहास के आरम्भ की कहानी है। आगे आने वाले समय में शिशुनाग वंश और नंद वंश के शासन के दौरान मगध का अत्यधिक विस्तार हुआ लेकिन राजगीर के साथ जितनी नजदीकी से बिम्बिसार और अजातशत्रु का नाम जुड़ा है उतना और किसी का नहीं।

वैशाली में उसकी प्राचीनता के जो भी अवशेष पाये जाते हैं उनमें से अधिकांश बिम्बिसार और अजातशत्रु से ही जुड़े हैं। और इन अवशेषों के पास से गुजरते हुए लगता है कि इतिहास अभी ज़िंदा है। राजगीर की पंच पहाड़ियों, विपुलगिरी, रत्नागिरी, उदयगिरी, सोनगिरी और वैभारगिरी न केवल प्राकृति सौन्दर्य से परिपूर्ण है, बल्कि मान्यता है कि जैन धर्म के 11 गंधर्वों का निर्वाण भी राजगीर में ही हुआ था। आज भी इन पांचों पहाड़ियों पर जैन धर्म के मंदिर हैं. इसी तरह भगवान महात्मा बुद्ध ने रत्नागिरी पर्वत के नजदीक गृद्धकूट पहाड़ी पर बैठकर लोगों को उपदेश दिया था।

मध्यकाल में सूफी-संतों का इतिहास यहां रहा है। राजगृह वर्तमान समय में राजगीर नाम से जाना जाता है। यह बिहार की राजधानी पटना से 105 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित है। यह सड़क और रेलमार्ग से जुड़ा है। देश के किसी भी भाग से यहाँ सविधापूर्वक आया जा सकता है। यहाँ पर एक अंतराष्ट्रीय हवाईअड्डा बनने वाला है। जिस पर कम चल रहा है। मगध के इतिहास में, भारत के इतिहास के भी, अनेक अमिट पृष्ठ गिरिव्रज-राजगृह की ही कहानी कहते हैं। गिरिव्रज की भूमि राजनीतिक, धार्मिक,सांस्कृतिक, अतः सामाजिक क्रांतियों के लिए बड़ी उर्वर रही है।

गिरिव्रज का इतिहास उतना ही पुराना है जितना 'ऋग्वेद' का। 'ऋग्वेद' में गिरिव्रज का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं हुआ है, पर परोक्षतः उसके प्रति हीन और अनादर की भावना का संकेत उसमें है। इसका कारण है तदयुगीन गिरिव्रज (अर्थात् मगध) - वासियों का ऋग्वैदिक यज्ञीय उपासना-विधि के प्रति उदासीन रहना, उससे भिन्न प्रकार की उपासना पद्धति में विश्वास करना। इस अनुमान का पोषण 'अथर्ववेद' के व्रात्यकाण्ड से होता है। 'गिरिव्रज' शब्द 'गिरि' (पहाड़ी) और 'व्रज' (गोस्थान, गोष्ठ) के योग से बना है।

आर्थीव्युत्पत्ति से 'गिरिव्रज' का अर्थ है वह पहाडी या पहाड़ियों वाला क्षेत्र जहाँ गायें रखी-पाली-चरायी जाती हों, वह पहाड़ी भूमि जहाँ गोपालकों की बस्ती हो। प्राचीन साहित्यिक, साक्ष्यों के आधार पर विद्वानों को कीकट (मगध) में गायों की बहुलता स्वीकार्य है। यह स्वीकृति गिरिव्रज की अर्थसंगति के अनुरूप है। भगवान महावीर ने लगभग 14 साल राजगीर और नालंदा में बिताए थे, जिसमें से वर्षा ऋतु के लगभग चार महीने राजगीर में बिताए थे। इस वजह से राजगीर जैनियों के लिए भी महत्वपूर्ण स्थान बना। यहां पर जैन और बौद्ध धर्म को मानने वाले बहुत लोग हैं।

राजगीर सात पहाड़ों वैभरा, रत्ना, सैल, सोना, उदय, छठा और विपुला से घिरा है। राजगीर हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म के लिए बेहद पवित्र माना जाता है। दूसरे मुख्य आकर्षण में पहाड़ पर बना विश्व शांति स्तूप, मखदूम कुंड और मोनेस्ट्री हैं, जिसे जापानी भक्तों ने रत्नागिरी पहाड़ की चोटी पर बनवाया था। विश्व शांति स्तूप को 1969 में बनाया गया था।

विश्व शांति स्तूप का निर्माण 400 मीटर की ऊंचाई पर, रत्नागिरी पहाड़ी के उच्चतम बिंदु पर 1978 में गौतम बुद्ध की 2600 जयंती के मौके पर किया गया था। जापान के फूजी गुरुजी के प्रयास से इसका निर्माण कराया गया था। इसका डिजाइन वास्तुकार उपेंद्र महारथी ने तैयार किया था। स्तूप का गुंबद 72 फुट ऊंचा है। भगवान बुद्ध ने इसी स्थल से विश्व को शांति का उपदेश दिया था। यहां हर वर्ष विश्व शांति स्तूप का वार्षिकोत्सव मनाया जाता है। इस अवसर पर देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु बड़ी संख्या में यहां जमा होते हैं।

यह दुनिया के 80 शांति स्तूपों में शामिल है, जो शांति और अहिंसा का प्रचार करता है। यहां मौजूद कृत्रिम वेनू-वाना जंगल दर्शनीय है। इसके बगल में जापानी मंदिर भी देखा जा सकता है। राजगीर के दूसरे मुख्य आकर्षण हैं- बिंबिसार कारागार, अजातशत्रु किला और जरासंघ अखाड़ा।

पांडु पोखर

पांडु पोखर राजगीर में 22 एकड़ क्षेत्रफल में फैला हुआ है। इतिहासकारों के अनुसार पांडवों के पिता राजगृह पर हमला किया और इसे घोड़े के अस्तबल में परिवर्तित कर दिया । यह कहा जाता है कि जब वह इस जगह को छोड़ दिया, एक छोटी घाटीनुमा जैसा बनाया गया था और बाद में बारिश के पानी के जमा होने से ऐतिहासिक पांडु पोखर अस्तित्व में आया है। यह एक विरासत है जो प्राकृतिक संपदा के गौरवशाली इतिहास के बारे में स्मरणीय है।

राजगीर के ऐतिहासिक धरोहर पांडू पोखर का सौदर्यीकरण ने इसे अंतरराष्ट्रीय पटल पर ला खड़ा कर दिया है। ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए पर्यटन विभाग ने पांडू पोखर का व्यापक सौंदर्यीकरण किया विदेशी पर्यटकों को ध्यान में रखते हुए पांडू पोखर परिसर को विकसित किया गया है। पांडव के पिता महाराज पांडू यहां स्नान करने आते थे। इस कारण इसका नामाकरण पांडू पोखर किया गया है। सरोवर के मध्य उनकी लगभग 40 फीट उंची प्रतिमा को स्थापित की गई है।

पांडू पोखर सरोवर में नौकायान का लुत्फ उठाते हुए पर्यटक इनकी प्रतिमा को करीब से अवलोकन कर सकेंगे। जापानी हाउस व तालाब, सतरंगी जल का फब्वारा, पर्यटकों के बैठने के लिए पवेलियन ने पोखर के सौंदर्य में चार चांद लगा दिया है। वीआईपी सुविधा से लैस कमरे तथा भुल-भुलैया भी इसके आकर्षण का केन्द्र है। पोखर पार्क में संगमरमर निर्मित बुद्ध की प्रतिमा लगभग 300 किलो ग्राम की है। वहीं रोज गार्डेन व विभिन्न प्रकार के फूलों से सजी बगीचों में शुद्ध व ताजा पर्यावरण का भी पर्यटक आनंद उठाते हैं।

मनियार मठ

माना जाता है कि यह स्मारक तत्कालीन राजगृह नगर के मध्य में अवस्थित था। पालि ग्रन्थों के अनुसार इसका नाम मणिमाल चैत्य था जबकि महाभारत के अनुसार इसका नाम मणिनाग मंदिर था। इस स्थान पर एक कुएं जैसी संरचना बनी हुई है जिसका व्यास 3 मीटर तथा दीवारों की मोटाई 1.20 मीटर है। इसकी वाह्य भित्ति पर बने आलों में पुष्पाहार से सुसज्जित लिंग,चतुर्भज विष्णु,सर्प से लिपटे गणेश तथा छः भुजाओं वाले नृत्यरत शिव की 0.6 मीटर आकार की गच प्रतिमाएं थीं जिनमें से अधिकांश नष्ट हो गयी हैं।

कला शैली की दृष्टि से ये प्रतिमाएं गुप्तकाल की मानी जाती हैं। कुण्ड,चबूतरे व मंदिर आदि के रूप में आस–पास स्थित अन्य छोटी संरचनाएं प्रायः सर्प पूजा से सम्बन्धित धार्मिक अनुष्ठान और कर्मकाण्ड से जुड़ी प्रतीत होती हैं। उत्खनन से प्राप्त सामग्री में पहली–दूसरी शताब्दी ई. का मथुरा के चित्तीदार लाल बलुए पत्थर से बना एक उभयमुखी मूर्तिपट्ट अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जिस पर सर्प फण से युक्त नाग और नागिन मूर्तियां बनी हुई हैं तथा एक मूर्ति के नीचे मणिनाग अंकित है। इसके अतिरिक्त पक्की मिट्टी से बने सर्पफण बहुमुखी पात्र तथा पूजा में काम आने वाली वस्तुएं बहुतायत में प्राप्त हुई हैं जिसमें से अधिकांश सामग्री नालन्दा स्थित पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित रखी गयी हैं। इस पुरास्थल के ऊपर एक टिन शेड डालकर इसे सुरक्षा प्रदान की गयी है।

जरासंध का अखाड़ा

सोन भण्डार से 1.5 किमी की दूरी पर जंगल के रास्ते आगे बढ़ने पर जरासंध का अखाड़ा या जरासंध की रण भूमि बनी हुई है। चारों तरफ से पत्थरों को चुनकर दीवार जैसी संरचना बनायी गयी है और बीच में मिट्टी भरकर इस अखाड़े का स्वरूप प्रदान किया गया है। कहते हैं कि इस अखाड़े की मिट्टी बहुत ही बारीक और सफेद रंग की थी लेकिन कुश्ती के शौकीन लोग इस मिट्टी को खोद ले गये। माना जाता है कि यह जगह महाभारतकालीन है। यहाँ पाँच पाण्डवों में से एक,भीम और जरासंध के बीच एक माह तक मल्लयुद्ध होता रहा। 

राजगीर की पहाड़ियाँ राजगीर के 10 किमी पूर्व में स्थित गिरियक से शुरू होती हैं और दो श्रृंखलाओं में विभाजित होकर दक्षिण–पश्चिम दिशा में जेठियन घाटी होते हुए आगे चलती चली जाती हैं। इनकी पूँछ लगभग 60 किमी दूर बोध गया तक फैली है। राजगीर में यह सड़क पहाड़ियों की श्रृंखलाओं को दो जगह पार करती है। यहाँ पहाड़ियों की श्रृंखला कुछ दूर तक टूटी हुई है। राजगीर बस स्टेशन से लगभग 6 किमी की दूरी पर राजगीर की साइक्लोपियन दीवार के अवशेष मिलते हैं। यहाँ पर सड़क पहाड़ियों को पूरी तरह से पार कर जाती है। यहीं से मुख्य सड़क छोड़कर दाहिने हाथ एक सड़क निकलती है जो बिल्कुल पहाड़ियों के साथ साथ,पहाड़ियों के दक्षिणी किनारे पर,दक्षिण–पश्चिम की ओर चलती रहती है और जेठियन होते हुए आगे जाकर गया वाली मुख्य सड़क में मिल जाती है।

जेठियन से आगे इसी सड़क पर दशरथ मांझी का गाँव का गहलौर पड़ता है। गहलौर पहाड़ी, कठोर पहाड़ी को काटने में दशरथ मांझी ने अपना सारा जीवन ही न्यौछावर कर दिया। राजगीर से जेठियन की दूरी 19 किमी है जबकि गहलौर जेठियन से 10 किमी है। दशरथ मांझी के गाँव गहलौर में दशरथ मांझी की स्मृति में एक स्मारक बना है। जहाँ दशरथ मांझी ने अपना पसीना बहाया था। दोनों तरफ खड़े दो पहाड़ी कगार और बीच से गुजरती सड़क इस बात की खुलेआम गवाही दे रहे थे कि यहाँ क्या हुआ था। दशरथ मांझी वह शख़्स जिन्होंने अपने दम पर पहाड़ का 360 फ़ीट लंबा और 30 फ़ीट चौड़ा हिस्सा काट कर रास्ता बनाया था 'ग़रीबों का ताजमहल'

नालंदा का धार्मिक गांव बड़गांव

धार्मिक नगरी बड़गांव से शुरू हुई थी भगवान भास्कर को अर्घ्य देने की परंपरा नालंदा जिला का सूर्य पीठ बड़गांव वैदिक काल से सूर्योपासना का प्रमुख केंद्र रहा है। देश में कुल 12 प्रमुख सूर्यपीठ हैं। उन्हीं में से एक बड़गांव है। यह गांव प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के पास है। जिसकी महत्ता किसे से छुपी नहीं है।

नालंदा जिला का सूर्य पीठ बड़गांव वैदिक काल से ही सूर्योपासना का प्रमुख केंद्र रहा है। ऐसी मान्यता है कि यहां छठ करने से हर मुराद पूरी होती हैं। यही कारण है कि देश के कोने-कोने से लाखों श्रद्धालु यहां चैत एवं कार्तिक माह में छठव्रत करने आते हैं। भगवान सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा बड़गांव से ही शुरू हुई थी जो आज यह पूरे भारत में लोक आस्था का पर्व बन गया है। मगध में छठ की महिमा इतनी उत्कर्ष पर थी कि युद्ध के लिए राजगीर आये भगवान कृष्ण भी बड़गांव पहुंच भगवान सूर्य की आराधना की थी, ऐसी मान्यताओं में है। सूर्योपासना की चर्चा सूर्य पुराण में भी है।

धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र साम्ब को मिली थी कुष्ठ रोग से मुक्ति : -

सूर्य पुराण के अनुसार मान्यता है कि महर्षि दुर्वाशा जब भगवान श्रीकृष्ण से मिलने द्वारिका गये थे, उस समय भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी के साथ विहार कर रहे थे। उसी दौरान अचानक किसी बात पर भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र राजा साम्ब को अपनी हंसी आ गई। महर्षि दुर्वाशा ने उनकी हंसी को अपना उपहास समझ लिया और राजा साम्ब को कुष्ट होने का श्राप दे दिया। इस कथा का वर्णन पुराणों में भी है। इसके बाद श्रीकृष्ण ने राजा साम्ब को कुष्ट रोग से निवारण के लिए सूर्य की उपासना के साथ सूर्य राशि की खोज करने की सलाह दी थी।

उनके आदेश पर राजा शाम्ब सूर्य राशि की खोज में निकल पड़े। रास्ते में उन्हें प्यास लगी। राजा शाम्ब ने अपने साथ में चल रहे सेवक को पानी लाने का आदेश दिया। घना जंगल होने के कारण पानी दूर-दूर तक नहीं मिला। एक जगह गड्ढे में पानी तो था, लेकिन वह गंदा था। सेवक ने उसी गड्ढे का पानी लाकर राजा को दिया। राजा ने पहले उस पानी से हाथ-पैर धोया उसके बाद उस पानी से प्यास बुझायी। पानी पीते ही उन्होंने अपने आप में अप्रत्याशित परिवर्तन महसूस किया। इसके बाद राजा कुछ दिनों तक उस स्थान पर रहकर गड्ढे के पानी का सेवन करते रहे। राजा शाम्ब ने 49 दिनों तक बड़गांव में रहकर सूर्य की उपासना और अर्घ्यदान भी किया। इससे उन्हें श्राप से मुक्ति मिली। उनका कुष्ष्ट रोग पूरी तरह से ठीक हो गया। 

धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार राजा साम्ब ने बनवाया था बड़गांव का तालाब :- राजा साम्ब ने गड्ढे वाले स्थान की खुदाई करके तालाब का निर्माण कराया। इसमें स्नान करके आज भी कुष्ट जैसे असाध्य रोग से लोग मुक्ति पाते हैं। आज भी यहां कुष्ठ से पीड़ित लोग आते हैं और तालाब में स्नान कर सूर्य मंदिर में पूजा अर्चना करने पर उन्हें रोग से निजात मिलती हैर।

आज भी मौजूद है मंदिर के अवशेष:-सूर्य तालाब के उत्तर-पूरब कोने पर पत्थर का एक मंदिर था। उस मंदिर में भगवान सूर्य की विशाल प्रतिमा थी, उसका निर्माण पाल राजा नारायण पाल ने 10वीं सदी में कराया था। वर्तमान में वो मंदिर अस्तित्व में नहीं है। वो 1934 के भूकंप में ध्वस्त हो गया था। दूसरे स्थान पर बड़गांव में सूर्य मंदिर का निर्माण कराया गया है। इस मंदिर में पुराने मंदिर की सभी प्रतिमाएं स्थापित की गयी हैं।सभी प्रतिमाएं पालकालीन हैं।

तालाब के खुदाई में मिली मूर्तियां :-तालाब की खुदाई के दौरान कई मूर्तियां मिली, जिसमें भगवान सूर्य, कल्प विष्णु, सरस्वती, लक्ष्मी, आदित्य माता जिन्हें छठी मैया भी कहते है सहित नवग्रह देवता की प्रतिमाएं निकलीं। बड़गांव राजगीर से करीब 15 किलोमीटर उत्तर और पटना से 85 किलोमीटर दक्षिण प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय भग्नावशेष के पास है। बड़गांव का सूर्य मंदिर जितना पुराना है, उतना ही इसका धार्मिक महत्व भी है।

लेखक- प्रभात वर्मा

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