" कृषि मूलम जगत सर्वम" वाया "एमएसपी कमेटी" की दुखांतिका नौटंकी

Update: 2022-08-02 06:14 GMT

हमारी देश के प्राच्य वांग्मय में कृषि तथा कृषकों की बड़ी महिमा गाई गई है ।

पराशर नाम के एक ऋषि द्वारा रचित मूल ग्रंथ 'कृषि पराशर' में उन्होंने लिखा है " कृषिर्धन्या कृषिर्मेध्या जन्तूनां जीवनं कृषि "

अर्थात कृषि धन और ज्ञान प्रदान करती है, कृषि हीऔर मानव जीवन का आधार है।चाणक्य अर्थात कौटिल्य जिन्हें विष्णुगुप्त के रूप में भी पहचाना जाता है। इन्होंने आर्थिक नीति, राज्य शिल्प और युद्ध की रणनीति पर एक ग्रंथ अर्थशास्त्र लिखा था। इनके उद्धरण आज भी समाज को राह दिखाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भी जीवन कर्मों में कृषि को सर्वोच्च महत्ता देते हुए इसे प्रथम स्थान दिया गया है। कहा गया है कि, ,"कृषि मूलम जगत सर्वम" । एक कृषि विश्वविद्यालय ने तो इसे ध्येय वाक्य बना डाला है।

खेती किसानी को लेकर हमारे देश में एक कहावत बड़ी मशहूर है,

" उत्तम खेती मध्यम बान, अधम चाकरी भीख निदान "

खेती किसानी की वर्तमान दशा , तथा देश में लाखों किसानों की आए दिन आत्महत्या की घटनाओं को देखते हुए भले ही आज इस कालजयी कहावत में कही गई बात से कोई सहमत हों अथवा ना हों ,परन्तु शायद ही कोई ऐसा होगा जो इस कहावत से परिचित न हो।

पिछले कई शताब्दियों से भारतवर्ष कृषि प्रधान देश के रूप में जाना माना जाता रहा है। इस देश में किसानों को अन्नदाता का दर्जा दिया गया है। यह देश अगर विश्व में सोने की चिड़िया कहलाता था तो इसके पीछे तत्कालीन समृद्ध भारतीय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के पीछे लगभग समस्त व्यापार योग्य उत्पादों की धुरी तत्कालीन खेती किसानी तथा आत्मनिर्भर किसानों की मजबूत ताकत ही थी। अब सवाल यह उठता है की आखिर ऐसा क्या घटित हुआ, अथवा देश के किसानों ने ऐसे कौन से पाप किए हैं, कि ये आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाते हैं। आखिर क्यों अन्नदाताओं के दूर्दिन खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं । ज्यादातर खेती घाटे का सौदा बन गया है। किसान परिवारों की नई पीढ़ी अब खेती छोड़ इतर रोजगार तलाशने छोटे बड़े शहरों की ओर दौड़ लगा रही है। ऐसा भी नहीं कि सरकारों ने खेती तथा किसानों की दशा सुधारने के लिए कोई प्रयास ही नहीं किये हैं, कई नई नई कई योजनाएं भी बनी पर हालात यह है कि , मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की। हाल के दिनों में तो देश के किसानों की दशा बेहद शोचनीय हो गई है। यह कहना अनुचित न होगा कि देश की खेती किसानी और बहुसंख्य किसान मानो आईसीयू में पड़े हैं। पिछले ढाई साल कोरोनावायरस और आंदोलन की भेंट चढ़ गए। हालांकि इन कठिन परिस्थितियों में भी किसानों ने खेती के पहिए को रुकने तो नहीं दिया, और समूचा देश जब अपने घरों में दुबका हुआ था तब भी सबका पेट भरा। लेकिन मौसम और कोरोना की बेहिसाब बंदिशों का खेत किसानों के खेत से लेकर बाजार के बीच हजारों कठिनाइयां पैदा कर दी, जिनके कारण जिसकी छोटे बड़े सभी किसानों ने भारी घाटा उठाया है। देश की कृषि जिंसों के बाजार ने कभी भी किसानों की खून पसीने की कमाई के साथ कभी न्याय नहीं किया और उनके उत्पादों का वाजिब मूल्य कभी भी नहीं मिल पाया। किसानों से बिना सलाह चर्चा के लाए गए तीनों विवादास्पद कानूनों को नाराज किसानों के ऐतिहासिक लंबे आंदोलन के बाद सरकार ने बेमन से तीनों कानूनों को वापस तो ले लिया पर इस पूरे मसले को सरकार दे अपनी हार जीत जोड़ते हुए इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया। आंदोलन की वापसी के समय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून लाने हेतु कमेटी गठन की बात हुई थी। पर अन्य कई मौकों की तरह इस बार भी सरकार अपने वादे से सीधे पलट गई । कृषि मंत्री ने तो हाल में एक बयान में यहां तक कह दिया कि किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून लाने बाबत की कोई बात ही नहीं हुई थी, बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को और अधिक कारगर तथा पारदर्शी बनाने की बात की गई थी। इन महाशय से कोई यह पूछें की न्यूनतम समर्थन मूल्य की आप की व्यवस्था अगर कारगर और पारदर्शी नहीं थी तो आप लोग आखिर पिछले 8 सालों में कौन सी घुंइया छील रहे थे।

इससे समझ में आ जाता है कि सरकार की मंशा किसी भी हालत में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की नहीं है। सरकार दरअसल तीनों कानूनों के वापसी के मुद्दे पर अपनी हार को पचा नहीं पा रही है, किसानों से नाराज है और मानो अपना बदला भंजाने की मूड में नजर आती है। कहते हैं दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक कर पीता है, किसान संगठन भी सरकार के पिछले किसान विरोधी क्रियाकलापों से सरकार की नीयत को लेकर शंकित हैं , इसलिए किसान संगठन कमेटी के गठन की घोषणा के साथ ही उसके स्वरूप को देखते ही सरकार की मंशा को भांप गए । यही कारण है कि किसान हितों के लिए वास्तविक रूप से संघर्षशील सभी किसान संगठनों ने इस कमेटी से कन्नी काट लिया। संयुक्त किसान मोर्चा ने भी इसमें भाग लेने से इनकार कर दिया। देश के 40 से अधिक किसान संगठनों के राष्ट्रीय महासंघ आईफा ने तो एमएसपी पर गठित इस कमेटी को *"दुखान्तिका नौटंकी" ही कह दिया । अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) के राष्ट्रीय संयोजक डॉ राजाराम त्रिपाठी कहते हैं, कि दरअसल सरकार की नीयत वास्तव में किसानों को MSP देने की है ही नहीं। अगर सरकार की मंशा सभी किसानों को वाजिब MSP देने की होती तो इस तरह से कमेटी कमेटी खेलने की जगह सरकार MSP पर सक्षम कानून लेकर आती। गौरतलब है कि हाल में ही सरकार द्वारा MSP पर कमेटी गठित की गई है, जिसके 29 सदस्यीय इस कमेटी में शामिल लगभग सभी सदस्य या तो सरकार में शामिल लोग हैं, या फिर सरकार से वेतन भोगी अधिकारी हैं , अथवा सत्तारूढ़ पार्टी से जेबी संगठनों के लोग हैं,, अथवा सरकार के कृपा पात्र तथा लाभार्थी कंपनियों के लोग शामिल हैं। इन लोगों का इतिहास देश के किसानों को भली-भांति पता है। इसलिए इनसे किसान हितों के बारे में ईमानदारी से सोचने की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। इस कमेटी में शामिल ज्यादातर लोग किसान आंदोलन के समय में सरकारी पाले में खड़े होकर, आंदोलनकारी किसानों को भला बुरा कहते हुए पानी पी पीकर कोसते रहते थे,और उन काले कानूनों को लेकर सरकार की तरफ से अधिवक्ता की तरह कार्य करते हुए सरकार का बचाव किसानों, मीडिया तथा जनता के समक्ष करते थे। यह भी गौरतलब है कि किसान संगठनों के जले घाव पर नमक छिड़कते हुए सरकार ने इस कमेटी का अध्यक्ष उन्हीं संजय अग्रवाल महोदय को बनाया है, जिनकी अगुवाई में उन तीनों कार्पोरेट परस्त कानूनों का ड्राफ्ट तैयार किया गया था । समझने वाली बात यह है कि, आखिर जिनकी तनख्वाह या मानदेय सरकार देती है,भला उनसे किसानों के हित के लिए सरकार के खिलाफ जाने की कोई उम्मीद कैसे की जा सकती? एक और महत्वपूर्ण तथ्य है इस कमेटी को मूल लक्ष्य से विचलित करने हेतु जानबूझकर नन्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ ही जैविक खेती, जीरो बजट आदि की ऐसे विवादास्पद मुद्दों पर विचार हेतु भी अधिकृत किया है, जिनमें कोई भी हल कभी नहीं निकलना वाला। जाहिर है कि इस अर्थ प्रधान युग मे जब आत्महत्या करने वाले अभागे किसान को "जीरो बजट" में खेती तो छोड़िए, मौत भी नहीं मिलती। उसके लिए भी बेचारे को बाजार जा कर जहरीली रसायनिक दवाई पीने के लिए खरीदना पड़ता है। ऐसे में जीरो बजट खेती किसानों को बहकाने के लिए एक छलावा एक जुमला मात्र है। यह भी एक विचारणीय तथ्य है कि आज हर देश अपने कृषि सेक्टर को मजबूत बनाने के लिए खेती में जबरदस्त अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक निवेश कर रहा है , जबकि हमारा कृषि प्रधान देश खेती में निवेश को हतोत्साहित करते हुए तथाकथित "जीरो बजट" का झुनझुना बजा रहा है।

अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण की बात करें तो माना जाता है कि "कृषि मूल्य लागत आयोग" अलग अलग फसलों की खेती में होने वाले सभी खर्चे जोड़कर उसकी लागत निकालता है, हालांकि यह आकलन हमेशा वास्तविक कृषि लागत से काफी कम होता है, इसीलिए किसान को 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' मिलने के बावजूद खेती में घाटा होता है। समझने वाली बात यह है कि जब इस सरकारी जीरो बजट फार्मूले से खेती होगी, तब तो खेती की लागत ही जीरो होगी। अर्थात खेती जीरो बजट यानि शून्य लागत में हो जाएगी, कुल मिलाकर बिना 1 टके लागत के खेती में थोड़ा बहुत जो भी उत्पादन हो जाए, वह किसान का सौ टका फायदा माना जायो । बिना हींग फिटकरी लगाए, ऐसा चोखा रंग यह सरकार ही दे सकती है। मतलब यह कि, ना तो इस नामुराद जीरो बजट पर खेती होनी है, ना उससे कोई लाभ होना है, ना किसानों को सही समर्थन मूल्य देना है, ना ही इन मुद्दों पर कोई फैसला होना है। दीवाल पर लिखी यह इबारत बड़े आराम से पढ़ने में आ रही है कि, इस कमेटी से ना तो किसानों को MSP मिलनी है, और ना ही एमएसपी गारंटी कानून मिलना है। अब लाख टके का सवाल यह उठता है कि जब किसानों को न एमएसपी देना है ना ही एमएसपी गारंटी कानून देना है, तो भला इस कमेटी को गठित क्यों किया गया है। यह दरअसल आने वाले चुनावों के मद्देनजर देश के किसानों को भ्रमित करने हेतु सोच समझकर उठाया गया यह राजनैतिक रणनीतिक कदम है।

इस कदम के जरिए सरकार किसानों को यह संदेश देना चाहती कि, लो जी हमने तो बड़ी मेहनत करके आपके एमएसपी के लिए एक कमेटी भी बना दी है, अब खुश हो जाओ और हमारे गुण गाओ ।और आपके ये किसान संगठन तो मूर्ख और नासमझ और अड़ियल हैं, जो आपके हित में बनाई गई इस कमेटी में भाग नहीं ले रहे हैं,, हम तो आपके MSP देना चाहते थे लेकिन यह किसान संगठन आप को MSP देने नहीं दे रहे हैं, अड़ंगे डाल रहे हैं। सरकार को उम्मीद है कि इस भ्रम जाल में फंस कर शायद किसान उन्हें आंख मूंदकर वोट दे देंगे। पिछले कई मौको की तरह इस बार भी सरकार देश के किसान समुदाय को निरा मूर्ख समझने की गलती कर रही है।

परिस्थितियां बदल गई है, सरकार की कलई पूरी तरह से खुल गई है। किसान समझने लगे हैं कि सही तथ्य यही है कि सरकार वास्तव में देश के किसानों को MSP देना ही नहीं चाहती। क्योंकि इससे किसानों की अरबों खरबों की उपज हर साल औने पौने दामों में खरीदने वाले उनके पसंदीदा व्यापारियों की तिजोरी पर भार पड़ेगा । सरकार उन चुनिंदा व्यापारियों के खजाने की रक्षा हेतु कृत संकल्प प्रतीत होती है । आईफा तथा साथी किसान संगठनों ने तो सरकार से साफ साफ कहा था, कि आप तो वैसे भी दिन प्रतिदिन नये नये क़ानून ला रहे ही हैं, तो किसानों पर कृपा कर एक कानून आप MSP पर भी लेकर आ जाइये, जिसमें सीधे-सीधे उल्लेख हो कि किसानों के उत्पाद को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर यदि कहीं भी कोई भी खरीदता है तो वह कानूनन जुर्म होगा। इस मुद्दे पर सरकार लगातार यह सफेद झूठ बोलती है कि सरकार के पास इतना पैसा नहीं है वह सरकारों व किसानों का पूरा उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद सके। हम तो यह कहते ही नहीं कि किसानों का सारा का सारा उत्पाद सरकार खरीदे। सरकार को जरूरत है तो खरीदें वरना एक दाना भी किसानों से न खरीदे। वैसे भी सरकार जो भी खरीदी किसानों से जो भी खरीदी करती है, वह प्राय: समर्थन मूल्य पर ही करती है, इसलिए MSP कानून लाने पर सरकार पर कोई अतिरिक्त आर्थिक भार नहीं पड़ने वाला। हां सरकार को तो बस यही कानून लागू करना है कि जो भी कंपनी, संस्था अथवा व्यापारी किसानों का माल खरीदते हैं तो सरकार बस यह सुनिश्चित करे कि, किसानों से ये खरीदी किसी भी हालत में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर न की जाए। सीधी सी बात है ऐसे खरीदी में व्यापारियों को किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देना पड़ेगा, सरकारी खजाने से इसमें ₹1 भी अतिरिक्त नहीं खर्चा होने वाला। हां व्यापारियों को जरूर अपनी थैली का मुंह किसानों के लिए थोड़ा सा और खोलना पड़ेगा।

लेकिन इस नौटंकी कमेटी के गठन से सरकार के चेहरे का किसान हितैषी का मुखौटा अब पूरी तरह से गिर गया है । जाहिर है ये देश के किसानों की कीमत पर चुनिंदा बड़े व्यापारियों के हित रक्षा हेतु समर्पित हैं, और शायद इसीलिए यह नहीं चाहते कि इनके चहेते व्यापारियों की जेबें ढीली हो। अब रहा सवाल इस कमेटी के नाम पर खड़ी की गई नौटंकी का तो जाहिर है कि कोई भी गैरतमंद किसान संगठन इसमें शामिल होने की सोच भी नहीं पाएगा। इस कमेटी में किसान हितों के लिए ईमानदारी से सोचने वालों के लिए कोई जगह भी नही है, जैसा कि रहीम ने लिखा है कि " कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग ? सरकारी बाबूओं और सत्तारूढ़ दल के हितैषी संगठनों के लोगों से भरी हुई यह कमेटी केवल सरकार के चहेते व्यापारियों के हितों के बारे में ही सोच सकती है । वैसे भी हमारे देश में यह कहा जाता है कि जिस समस्या को हल ना करना हो उसके लिए आप एक कमेटी बना दो, फिर उस कमेटी ने क्या किया इसकी जांच के लिए एक और कमेटी बना दो,फिर उन दोनों कमेटियों के कार्यों के मूल्यांकन के लिए एक और कमेटी बना दो।

यह कहना पूरी तरह से गलत नहीं होगा कि ये कमेटी केवल आगामी चुनावों में लाभ प्राप्त करने के लिए बनाई गई दिखावा नौटंकी कमेटी है। हमारा निष्पक्ष आकलन है कि, इस नौटंकी कमेटी से देश के किसानों को अंततः दुख ही प्राप्त होगा इसलिए इसे "दुखांतिका नौटंकी" कहा है। किसी भी कोण से ये कमेटी यह किसानों को समुचित न्यायपूर्ण न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलवाने के लिए बनाई गई कमेटी तो कतई प्रतीत नहीं होती । इस कमेटी के गठित होते ही, इसके स्वरूप, इसके सदस्यों तथा इसके एमएसपी के अलावा अन्य नाना प्रकार के उद्देश्यों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अंततः इस कमेटी किसानों को एमएसपी इससे किसानों को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला।

यह भी गौरतलब है कि सरकार द्वारा वापस लिए गए तीनों कृषि कानूनों का शुरुआत में जब सरकारी मीडिया के द्वारा फैलाए गए भ्रम जाल से भ्रमित कुछेक किसान संगठन स्वागत कर रहे थे, तब सर्वप्रथम अखिल भारतीय किसान महासंघ(आईफा) ने ही तीनों कृषि कानूनों के खतरनाक प्रावधानों के बारे में देश के किसानों को सचेत करते हुए इनके व्यापक विरोध का सूत्रपात किया था और राकेश टिकैत समेत देश के प्रमुख किसान नेताओं की एक वर्चुअल बैठक बुलाकर आईफा के डॉ राजाराम त्रिपाठी ने ही कृषि कानूनों की बिंदुवार एक एक परतें खोलकर सभी संगठनों के सामने रख दी थी। और बताया कि कैसे ये कानून केवल पसंदीदा कारपोरेट के लिए गढ़े गए हैं। एक बार जब किसान नेताओं को पूरी बात समझ में आ गई, उसके बाद का किस्सा तो इतिहास में दर्ज ही है।

किसानों के लिए जरूरी MSP कानून को लेकर भी "आईफा" लंबे समय से लड़ाई लड़ रही है। विगत दिनों MSP को लेकर देश के जाने माने वरिष्ठ किसान नेता वी एम सिंह , महाराष्ट्र से राजू शेट्टी, राजस्थान से रामपाल जाट , पंजाब के संयोजक जसकरण सिंह,हिमाचल प्रदेश से संजय कुमार, जम्मू कश्मीर से यवर मीर, झारखंड से संजय ठाकुर, बिहार से छोटे लाल श्रीवास्तव, आंध्र प्रदेश से जगदीश रेड्डी, तमिलनाडु से पलनी अप्पन, गुजरात से सरदूल सिंह, पंजाब से जसविंदर सिंह विर्क, कुलदीप सिंह दौंधर , हरियाणा से जगबीर घसौला, दिल्ली से संदीप कुमार शास्त्री, उत्तराखंड से अवनीत पंवार, पूर्वोत्तर से कमांडर शांगपलिङ्ग, अल्फोंड बर्थ, एथीना चोहाई तथा आईफा के राष्ट्रीय संयोजक डॉ राजाराम त्रिपाठी समेत देश के लगभग 200 दिग्गज किसान नेताओं* ने दिल्ली में लगातार बैठकें की और सर्वसम्मति से "एक सूत्रीय कार्यक्रम" के तहत देश के सभी कृषि उत्पादों के लिए एमएसपी कानून लाने के लिए "राष्ट्रीय एमएसपी गारंटी मोर्चा" का गठन किया गया है। इनके द्वारा देश के सभी राज्यों के गांव - गांव में एमएसपी गारंटी कानून हेतु "जनजागरण अभियान" जोर शोर से चलाया जा रहा है। इसी संदर्भ में आगामी 6 -7 तथा 8 अक्टूबर को देश के सारे किसान नेता तथा अग्रणी किसान समूह दिल्ली में इकट्ठे होने वाले हैं। इस तीन दिवसीय महा सम्मेलन में देश के हर राज्यों की खेती की दिशा दशा तथा " एमएसपी गारंटी मोर्चा" की राष्ट्रीय रूपरेखा तय कर दी जाएगी । सरकार यह समझना होगा कि सरकार के तनखैय्या कलाकारों की इस "दुखांतिका नौटंकी" कमेटी से भरमाने वाले नहीं हैं। इससे पहले कि देश के किसान इस कमेटी को खारिज करें, सरकार को आगे बढ़कर सार्थक पहल करनी चाहिए तथा देश के किसान संगठनों से चर्चा कर इस दिशा में तत्काल जरूरी ठोस कदम उठाना चाहिए। अपने उत्पादन का न्याय पूर्ण न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP )प्राप्त करना किसानों का वाजिब हक है,और किसानों को उनका यह हक हर हाल में मिलना ही चाहिए !! बात-बात पर पांच विद्वानों की दुहाई देने वाली इस सरकार को कौटिल्य के अर्थशास्त्र के संस्कृत श्लोक के निहितार्थ भी समझना चाहिए, तथा अपने पसंदीदा धनकुबेरों को भी समझाना चाहिए ;

" अलबद्ध लाभार्थ, लब्ध परिरक्षणी "

अर्थात जो प्राप्त न हो उसे प्राप्त करना, जो प्राप्त हो गया उसे संरक्षित रखना और जो संरक्षित हो गया है उसे समानता के आधार पर बांटना से शुरू करें। अब देखने वाली बात यह है कि प्राच्य संस्कृति तथा ज्ञान के संरक्षण संवर्धन के साथ ही उनके अनुकरण करने का दावा करने वाली यह सरकार , प्राचीन वांग्मयों में सदैव पूजित सम्मानित तथा रक्षित इस देश के अन्नदाता कृषक समुदाय के साथ उचित न्याय कब करती है।

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