मणिपुर डायरी: हेड हंटर की वापसी और पूर्वोत्तर में औरतों की आजादी का मिथ, ये दूसरी रिपोर्ट है जिसमें आप सोच नहीं सकते है ये कौन सा भारत है!
यह प्रमोद रंजन की मणिपुर पर केंद्रित डायरी की दूसरी किस्त है। प्रमोद मणिपुर से गहराई से परिचित रहे हैं और इन दिनों पूर्वोत्तर भारत में रह रहे हैं। उन्होंने इसमें मणिपुर में जारी हिंसा को पूर्वोत्तर भारत के इतिहास, संस्कृति और समाज में आ रहे परिवर्तनों से जोड़ते हुए सूचनापरक, संवेदनशील, मर्मस्पर्शी और विचारोत्तेजक आख्यान रचा है। इस डायरी का पहला हिस्सा पढ़ा जा सकता है।
क्या यह एक मिथ है कि पूर्वोत्तर भारत के समाज में स्त्रियों को आज़ादी और सम्मान हासिल है? पूर्वोत्तर भारत में महिलाओं का अतिरिक्त सम्मान और आजादी होने की बात आम दिनों में यहां के कस्बों-शहरों में तो दिखती है। आप उनकी आज़ादी को यहां की सड़कों पर उनके जबरदस्त फैशन-सेंस वाले कपड़ों से लेकर उनके अल्हड़पन और स्वाभिमान से भरी उनकी चाल तक में महसूस कर सकते हैं। वे आपको हर जगह दिखेंगी। जंगलों में लकड़ियां चुनती हुई, फैशनबुल दुकानों में मोलभाव करती हुई, सब्ज़ियों की दुकान चलाती हुई, अंग्रेजी शराब की दुकान का काउन्टर संभालती हुई, कॉलेजों में, डांस और शराब पाटिर्यों में, चर्च में, विभिन्न प्रार्थना स्थलों में भी। मैंने तो उन्हें जब भी देखा, श्रम में पगी हुई, बिंदास, उन्मुक्त देखा।
असम के कुछ समुदायों को छोड़कर पूर्वोत्तर भारत के अन्य राज्यों में लड़कियों को प्रेम करने और जीवनसाथी चुनने की आज़ादी है। मिजोरम, नगालैंड और मणिपुर के जनजातीय समुदायों में युवा होते लड़के-लड़कियों से उम्मीद की जाती है कि वे किसी के साथ प्रेम में अवश्य हों ताकि वे एक सुयोग्य जीवन-साथी के बारे ठीक से फ़ैसला ले सकें। कुछ समुदायों में तो संतान अगर किशोरावस्था पार चुकने के बाद भी अगर प्रेम में न हो, तो माता-पिता चिंतित होने लगते हैं कि कहीं उनकी संतान में कोई खोट तो नहीं।
जहां तक मैंने समझा है, युवावस्था में प्रेम में होना, पूर्वोत्तरी राज्यों की जनजातियों का एक बड़ा सांस्कृतिक मूल्य है, जिसकी छाया उनकी बहुत सारी परंपराओं-परिपाटियों तथा नृत्यों में महसूस की जा सकती है।
मणिपुर डायरी का पहला अंक यहाँ पढ़ें
सामाजिक जीवन पर चर्च के अतिशय प्रभाव के बावजूद पूर्वोत्तर भारत में दैहिक संबंध उतना बड़ा टैबू नहीं है, जितना कि उत्तर भारत में। जिसे लोहिया योनि की शुचिता का पाखंड कहते थे, वह यहां नहीं है। उन्मुक्त काम-संबध जैसी कोई बात भी दूर-दूर तक नहीं है; लेकिन इतना ज़रूर है कि विवाह-पूर्व दैहिक संबंध यहां के समाज में कोई उल्लेखनीय मुद्दा नहीं बन सकता, न ही कोई युवक अक्षत योनि की तलाश में विक्षिप्त बना फिरता है। हां, प्रेम-संबंध एक से हो और उसे निभाया जाए, इस पर ज़ोर होता है। विवाह हो जाने के बाद यह नियम और कड़ा हो जाता है। विवाहेतर संबंधों को पाप माना जाता है।
इन सबके बावजूद, यहां प्रेम संबंध हों या विवाह, उनके टूटने पर भी बहुत हाय-तौबा नहीं होती। परिजनों की कोशिश होती है, विवाह संबंध न टूटें। अपने बच्चों के प्रेम-संबंधों के टूटने पर पूरा परिवार दु:खी होता है तथा उसकी सूचना दूर बसे परिजनों को भी शोक और चिंता के साथ दी जाती है। विवाह संबंधों के टूटने पर मुख्य चिंता पहली जोड़ी से हुए बच्चों की परवरिश की होती है, न कि इसकी कि हाय, एक महिला एक ही जीवन में दूसरे पुरुष से संबंध कैसे बनाएगी! एक विवाह से मुक्त हुई स्त्री किसी अन्य पुरुष से संबंध बनाने के लिए उतनी ही मुक्त होती है, जितनी की एक अविवाहिता। अब वह मुक्त है, उस पर वह नैतिकता लागू नहीं होती, जो विवाहिता होने पर उस पर लागू थी।
अगर आप उपरोक्त लोकाचारों की तलाश जनजातीय समाज पर लिखी मानवशास्त्र की किताबों में करना चाहेंगे, तो मेरा ख्याल है कि निराशा ही हाथ लगेगी। लेकिन यहां रहकर अगर आप अपनी आंखें खुली रखें, तो इन्हें विभिन्न तरीक़ों से महसूस कर सकते हैं। मसलन, आप यह देखें कि इनमें से कई ऐसे समुदाय हैं जिनमें युवक-युवती कई दशक तक साथ रहते हैं, उनके बच्चे भी जवान हो जाते हैं, तब वे विवाह करते हैं। कुछ मामलों में तो, विशेषकर अरुणाचल प्रदेश में, माता-पिता और उनके बच्चों का विवाह एक ही साल में, यहां तक कि एक ही मंडप में भी होता है।
लिव-इन के प्रति यह स्वीकार्यता क्या यौन-जीवन में एक प्रकार के सहजयान के ख़ूब विकसित होने की ओर इशारा नहीं करती? कई जगहों पर ऐसे वार्षिक मेले लगते हैं, जहां लोग अपने बच्चों को किशोरवय से ही जाने के लिए प्रेरित करते हैं, ताकि वे वहां अपने लिए अच्छा-सा विपरीतलिंगी साथी पा सकें।
दूसरी जनजाति से प्रेमसंबंध और विवाह को हतोत्साहित किया जाता है, लेकिन अगर किसी ने प्रेम किया है और उसे जाहिर करता है तो उसे कतई रोका नहीं जाता है। अत: जनजातीय विवाह खूब होते हैं और कोई जनजाति इन्हें प्रतिबंधित नहीं करती। मैतेइ और कुकियों के बीच भी ऐसे विवाह काफी हुए हैं, लेकिन इतिहास बताता है कि इन आजादियों का उस समय कोई मूल्य नहीं रह जाता, जब इनके बीच आपसी संघर्ष होता है।
नगालैंड बनाम मणिपुर
मणिपुर में तीन स्त्रियों को नग्न परेड करवाए जाने का वीडियो देखने के बाद मुझे 2015 का ख़ौफ़नाक मंजर याद आया था। 5 मार्च, 2015 को नगालैंड के दीमापुर में नगा समुदाय की वैसी ही हिंसक भीड़ मार्च कर रही थी, जैसी 4 जुलाई, 2023 को कुकी लड़कियों को निर्वस्त्र परेड करवा मार्च कर रही मैतेइयों की भीड़, लेकिन वहां माजरा उल्टा था।
दीमापुर सेंट्रल जेल में एक 20 वर्षीय सुमी (नगा) युवती के साथ बलात्कार का आरोपी बंद था। उस 35 वर्षीय आदमी ने चार साल पहले उसके गांव की ही एक नगा लड़की से शादी की थी, इस नाते वह उसके घर आता-जाता था। एक दिन उसके एक दोस्त ने उसे झांसे में लेकर कार में बिठाया और एक स्थानीय होटल में पहुंचा दिया, जहां आरोपी पहले से मौज़ूद था। उसके बाद उस आदमी ने उसे नशीला पदार्थ दिया और कई बार उसके साथ बलात्कार किया। आरोपी के बारे में अफ़वाह थी कि वह बांग्लादेशी है। बाद में मालूम चला कि वह असम का था।
बलात्कार के आरोपी को सबक सिखाने के लिए हज़ारों की भीड़ दीमापुर सेंट्रल जेल के दरवाज़े पर पहुंची और उसे जबरन जेल से खींच कर निकाला। पीटते हुए निर्वस्त्र किया और एक मोटरसाइकिल में बांधकर घसीटते हुए सात किलोमीटर दूर स्थित शहर के मुख्य चौराहे, जिसे सिटी टावर कहा जाता है, पर लाए। रास्ते भर लोग उसे पीटते रहे। घसीटते हुए शरीर पर पत्थर और ईंटें बरसाते रहे। मर तो वह रास्ते में ही गया था, लेकिन ग़ुस्साई भीड़ ने ख़ून, मांस और धूल से सनी उसकी लाश को सिटी टावर के ऊपर टांग दिया। जिस समय उसकी लाश को सिटी टावर पर लटकाया जा रहा था, शहर के लगभग 10 हज़ार लोग वहां मौज़ूद थे। यह नगाओं द्वारा बाहरी लोगों को दी गई चेतावनी थी कि अगर किसी ने उनकी लड़कियों की आज़ादी का फ़ायदा उठाने की कोशिश की, तो उसका हश्र यही किया जाएगा।
स्वाभाविक तौर पर उस समय इसका विश्लेषण करते हुए समाचारपत्रों ने प्रकाशित किया था कि पूर्वोत्तर के आदिवासी समुदाय स्त्रियों का बहुत सम्मान करते हैं तथा बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए इन समाजों में कोई जगह नहीं रही है। लेकिन मणिपुर में मई, 2023 से जारी घटनाओं ने इस मिथ पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया है। इस गृह-युद्ध में न सिर्फ महिलाएं निशाने पर हैं, बल्कि बहुत-सी महिलाएं दंगाइयों के समूहों के साथ भी घूम रही हैं।
5 मई को पूर्वी इंफाल में 21 साल और 24 साल की जिन दो कुकी लड़कियों की निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई वे एक ही गांव की थीं। उनके गांव का नाम एच. खोपीबुंग है। यह मणिपुर के पहाड़ी ज़िले कांगपोकपी के सैकुल उप-मंडल में है। सैकुल सदर हिल्स स्वायत्त ज़िला परिषद का मुख्यालय है। यह ज़िला परिषद केंद्र सरकार द्वारा स्थापित छह ऐसी परिषदों में से एक है जिन्हें उस समय बनाया गया था जब सन् 1971 में मणिपुर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया था। इन परिषदों की स्थापना पहाड़ी क्षेत्रों और पहाड़ी जनजातियों की सुरक्षा के लिए किए गए संवैधानिक प्रावधानों के तहत की गई थी।
सन् 1971 के बाद से अब तक उस क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हुआ है। रोज़गार की कमी और युवाओं में नई आकांक्षाओं के जन्म के कारण पिछले कुछ वर्षों में मणिपुर के पहाड़ी इलाकों से पलायन तेज़ी से बढ़ा है। युवा पीढ़ी छोटे-छोटे रोज़गार की तलाश में दिल्ली, मुंबई और बेंगलूरू जैसे सुदूर के शहरों में जाने लगी है। 5 मई को मारी गई लड़कियां भी रोज़गार के लिए राज्य की राजधानी इंफाल में आई थीं। उनमें से एक लगभग एक साल पहले इंफाल आई थी और दूसरी यही कोई एक महीने भर पहले। दोनों एक ही कार-वॉश पर काम करती थीं, जिसका मालिक समोरजीत निंगथौजा मैतेई समुदाय का एक व्यक्ति था। उनमें से एक गाड़ियों को धोती थी, जबकि दूसरी काउंटर पर काम करती थी। उनके माता-पिता खुश थे क्योंकि वे उनकी तुलना में अधिक ख़ुशनसीब थीं, जिन्हें छोटे-छोटे रोज़गार की तलाश में बहुत दूर दूसरे राज्यों में, बिलकुल नए परिवेश में जाना पड़ा है। उनके माता-पिता विशेषकर इसलिए खुश थे क्योंकि उनकी बेटियां अपने गांव जल्दी आ सकती थीं।
5 मई को शाम लगभग 5:00 बजे उन लड़कियों में से एक के नंबर से उसकी माँ को एक फोन आया। फोन के दूसरी तरफ़ कोई और महिला थी, जिसने चीखते हुए कहा, “तुम अपनी बेटी को जिंदा चाहती हो या मरा हुआ?” इससे पहले कि उसकी माँ कुछ कह पाती, महिला ने फोन काट दिया। उसके बाद वह बेटी का नंबर बार-बार डायल करती रही; लेकिन फिर किसी ने फोन नहीं उठाया। कुछ देर बाद फोन बंद हो गया।
उनके पिता ने बाद में इंफाल के एक पत्रकार को बताया कि लगभग रात हो चुकी थी और हमें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें? माहौल ऐसा था कि इंफाल तक ज़िन्दा पहुंचना किसी भी प्रकार से संभव नहीं था।
यह घटना शाम 5:00 बजे की है। पूर्वोत्तर भारत में सूरज जल्दी डूब जाता है और दूर की पहाड़ियों में बहुत जल्दी सांझ गहराने लगती है। कई क़स्बों में तो शाम 4:00 बजे ही सारी दुकानें बंद हो जाती हैं और सड़कों पर सन्नाटा पसर जाता है। यह जल्दी सूरज डूबने के कारण भी होता है और वर्षों से जारी विद्रोह के कारण भी। लोग विभिन्न भूमिगत उग्रवादी संगठनों, जिन्हें पूरे पूर्वोत्तर में संक्षेप में सिर्फ़ ‘अंडरग्राउंड’ कहने का चलन है, के भय से अपनी दुकानें जल्दी बंद कर देना बेहतर समझते हैं। नगालैंड, मिजोरम और मणिपुर के सुदूर अवस्थित छोटे-छोटे क़स्बों में नियम है कि 4:00 बजे दुकानें बंद कर दी जाएं, और दूर जाने वाले सार्वजनिक वाहनों का परिचालन इस प्रकार हो कि वे शाम 4:00 से 5:00 बजे के बीच अपने गंतव्य तक पहुंच जाएं। इन नियमों का पालन नहीं करने पर प्रशासन कार्रवाई करता है।
बहरहाल, उन लड़कियों के परिवार वालों ने उस रात पागल कर देने वाली बेचैनी, आशंका और भय में गुजारी। अगली सुबह उनके साथ काम करने वाले नागा लड़कों ने उन्हें फोन पर बताया कि उन दोनों को पिछली ही शाम ही मैतेइयों की भीड़ ने मार डाला था। भीड़ में महिलाएं भी शामिल थीं। भीड़ ने पहले उन दोनों का मुंह बंद कर दिया और फिर घसीटकर एक कमरे में ले गई। भीड़ में से महिलाओं समेत सात-आठ लोग उस कमरे में घुस गये और ताला लगा दिया। उन्होंने वहां मौजूद नगा समुदाय के दो लड़कों को कुछ नहीं कहा, हालांकि वे भी भय से छिप गए थे।
वे कुछ समय तक कमरे में रहे। दोनों लड़कियों की चीखें दो-तीन बार कमरे से बाहर आईं और उनके साथ कई लोगों के बोलने-चिल्लाने की आवाजें। उन्होंने उन दोनों को कमरे में ही मार डाला। कमरे के अंदर उन्होंने इन लड़कियों के साथ क्या किया? यह कोई नहीं जानता लेकिन लड़की के पिता को अंदेशा है कि उन महिलाओं ने भीड़ में शामिल लड़कों से उनकी बेटी और उसकी दोस्त का बलात्कार करवाया। उसके बाद उन्हें मारा गया। उनके साथ काम करने वाले नगा लड़कों से एक ने कार वाश में भीड़ के हमले का वीडियो बनाया है, जिसमें भीड़ के हमले का दृश्य मौज़ूद है, जिसमें महिलाएं भी दिख रही हैं।
ये महिलाएं ‘माइरा पाइबिस’ नामक उसी संगठन की थीं जिन्हें मणिपुर की ‘महिला मशाल वाहक’ कहा जाता है और 2004 में इसी संगठन की सदस्यों ने भारतीय सेना के अत्याचारों के खिलाफ नग्न होकर प्रदर्शन किया था।
ऐसी ही एक खौफनाक घटना मणिपुर सरकार में सचिव स्तर की अधिकारी गौज़ावुंग और उनके परिवार के साथ घटी। कुकी समुदाय से आने वाली गौज़ावुंग अपने परिवार के साथ पश्चिमी इंफाल के लाम्फेल स्थित सरकारी क्वार्टर में परिवार के साथ रहती थीं। 3 मई को मणिपुर के विभिन्न इलाकों में हुई हिंसा से वे लोग घबराए थे। उनके पति सब-इंस्पेक्टर लेइनबोई गंगाते उस समय चूराचांदपुर में अपने गांव में थे और हिंसा की वजह उस समय उनका इंफाल पहुंचाना संभव नहीं था।
गौज़ावुंग को कई जगहों से सूचना मिल रही थी कि इंफाल घाटी में बसे कुकियों को सबक सिखाने की तैयारी की जा रही है। उनके आवास के इर्द-गिर्द पहाड़ी जनजातियों के साथ-साथ मैतेइयों की भी आबादी थी। एक उच्चाधिकारी होने कारण वे इस बात को समझ रही थीं किसी भी दंगे की स्थिति में ऐसी मिश्रित आबादियां ही सबसे संवेदनशील होती हैं। ऐसे इलाके अक्सर बाहरी दंगाइयों के निशाने पर होते हैं। ऐसे इलाकों में उन्हें अपने जातीय समूह का मौन समर्थन मिल जाता है तथा शत्रु समूह के किस घर को कैसे-कहां से निशाना बनाना है आदि से अपेक्षित जानकारियां आसानी से मिल जाती हैं।
इसी भय के कारण उन्होंने फैसला किया कि थोड़ा कष्ट तो होगा सीआरपीएफ द्वारा बनाए राहत शिविर में पनाह ले लेना अधिक ठीक होगा। राहत शिविर उनके क्वार्टर से महज दो किमी दूर था। तब तक इंफाल जलने लगा था। ढाई किलोमीटर दूर स्थित राहत शिविर जाना भी खतरे से खाली नहीं था। 4 मई की सुबह आठ बजे पहले उनका उनका बेटा गौलालसांग हालात का जायजा लेने अपनी कार से—राहत शिविर तक गया। 27 वर्षीय गौलालसांग की पिछले ही साल शादी हुई थी और वह अपनी पत्नी नैन्सी, छोटी बहन जामन्गैहकिम और मां की सुरक्षा के लिए चिंतित था। राहत शिविर से लौट कर बताया कि सभी दुकानें बंद हैं और सड़कें पूरी तरह खाली हैं। उसे रास्ते में दंगाईयों की भीड़ कहीं नहीं मिली। लेकिन संभव है अगले कुछ घंटों में दंगे शुरू हो जाएं, उसने कहा।
परिवार ने तय किया कि उन्हें जितनी जल्दी हो सके शिविर तक पहुंच जाना चाहिए। गौलालसांग की एक आंटी का परिवार भी वहां था। दोनों परिवारों ने जल्दी-जल्दी चावल, सब्जियां, मांस और दस्तावेज पैक किए और दो कारों से निकले। छह लोग–गौलालसांग, उसकी पत्नी नैन्सी, मां—गौज़ावुंग, छोटी बहन जामन्गैहकिम, एक चचेरी बहन तथा गौज़ावुंग की आंटी किम एक साल के पोते के साथ अपनी सफेद स्वीफ्ट डिजायर में बैठे जबकि आंटी के परिवार के अन्य सात सदस्य एक दूसरी कार से निकले।
स्विफ्ट डिजायर आगे-आगे चल रही थी। दूसरी गाड़ी उनके ठीक पीछे थी। दो किमी तक इलाका बिल्कुल सुनसान था। सारी दुकानें बंद। कहीं एक परिंदा तक नहीं। सुरक्षा बल भी नदारद। एक कार सन्न से उनको ओवरटेक करते हुए निकली। उन्हें लगा कि कार में मैतेई हैं, तभी इतने बेखौफ हैं। थोड़ी देर बाद एक स्कॉर्पियो कार ने उन्हें ओवरटेक किया। गौलालसांग की छोटी बहन जामन्गैहकिम ने गौर किया, गाड़ी में बैठे लोगों ने रॉड और डंडे ले रखे थे। ऐसा लगा एक-दो बंदूकें भी थीं। पोते को गोद लिए किम बाइबिल यशायाह में वर्णित पंक्तियां बुदबुदा रही थीं: “डरो मत! मैंने तुझे बचा लिया है। मैंने तुझे नाम दिया है। तू मेरा है। जब तुझ पर विपत्तियाँ पड़ती हैं, मैं तेरे साथ रहता हूँ। जब तू नदी पार करेगा, तू बहेगा नहीं। तू जब आग से होकर गुज़रेगा, तो तू जलेगा नहीं। लपटें तुझे हानि नहीं पहुँचाएंगी।”
जैसे ही उनकी कार दाहिनी ओर मुड़ी गौलालसांग को सड़क पर 200-250 लोगों की भीड़ दिखी। उसने कार को फुर्ती से रिवर्स किया और वे पीछे की ओर भागे, लेकिन यह इतना आसान नहीं था। डिप्टी कमिश्नर ऑफिस के पास भीड़ ने उन्हें पकड़ लिया। दूसरी कार थोड़ा पीछे थी। भीड़ जब तक इस कार को काबू में कर रही थी, उस समय पीछे वाली कार वापस मुड़ कर भाग जाने में कामयाब रही।
मैतेइयों की इस भीड़ में युवा तथा अधेड़ उम्र के पुरुषों के साथ बड़ी संख्या में ‘माइरा पाइबिस’ थीं यानी इस संगठन से जुड़ी महिलाएं। उनका संगठन पूरे मणिपुर में हैं तथा वे हर जगह सक्रिय हैं। महिलाएं, पुरुष, सब छड़ों, बांसों, लाठियों, पत्थरों और ईंटों से लैस थे। वे उन्हें कार से बाहर आने के लिए कह रहे थे। गौलालसांग—ड्राइविंग सीट पर था और उसकी मां जामन्गैहकिम बगल की पैसेंजर सीट पर। पीछे जामन्गैहकिम, उसकी चचेरी बहन तथा आंटी किम एक साल के पोते को गोद में लिए थीं।
भीड़ ने कार चारों ओर घेर लिया था। वे गाड़ी के बोनट पर और बूट स्पेस को डंडों से पीट रहे थे। कुछ क्रोधित माइरा पाइबिस जामन्गैहकिम की ओर, कार की खिड़की पास आकर उनसे सवाल-जवाब कर रही थीं तथा उन्हें कार का दरवाजा खोलने और बाहर आने के लिए कह रही थीं।
गौज़ावुंग भले ही उच्चाधिकारी रही हों और उनके जीवन में ऐसे अनेक मौके आए हों, पुलिस वाले और सुरक्षा बलों के अधिकारी उनके एक इशारे पर नाचते हों, राज्य के कद्दावर नेताओं से पारिवारिक परिचय रहा था, लेकिन अभी उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम थी। पूरा शरीर कांप रहा था। उन्होंने कार की खिड़की खोली और लड़खड़ाती हुई आवाज में कहा कि हम लोग कुकी नहीं, मिजो हैं। मिजो मिजोरम की जनजाति है, जो मणिपुर के अतिरिक्त नगालैंड में भी है। उन्होंने उन्हें अपना सरकारी पहचान पत्र उन्हें दिखाया और कहा कि हमें जाने दो हम कुकी नहीं हैं, लेकिन माइरा पाइबिस ने उनकी एक नहीं सुनी। बाहर वालों को पूर्वोत्तर की विभिन्न जनजातियां शारीरिक बनावट में एक जैसी लगती हैं। लेकिन स्थानीय लोग उनके बीच के बारीक अंतर जैसे—बाल, नाक और आंख की थोड़ी अलग बनावट और बोलने के लहजे से पहचान लेते हैं कि कौन किस समुदाय का है। मणिपुरी समाज के रेशे-रेशे से परिचित माइरा पाइबिस के लिए इस परिवार के जातीय-समूह को पहचान लेना मुश्किल नहीं था।
कार की खिड़कियां तोड़ दी गईं और उन सबको बाहर खींच लिया गया। दंगाइयों के पास बोतलों में पेट्रोल था। उन्होंने सबसे पहले कार को आग लगा दी। अचानक कहीं से वहां एक पत्रकार आ गया और जलती हुई कार का वीडियो बनाने लगा। भीड़ ने उसका कैमरा छीन कर नष्ट कर दिया। पास ही एक बेंच लगी थी। कार से निकाल उन छह लोगों को उस पर बिठा दिया गया। भीड़ बार-बार गालियां दे रही थीं और उनसे बार-बार पूछा जा रहा था कि सच बताओ तुम लोग किस ट्राइब के हो। गौज़ावुंग जोर-जोर से रो रही थीं और कह रही थीं मेरा आइकार्ड देख लो, मैं मणिपुर सरकार में अंडर सेक्रेटरी हूं। प्लीज हम लोगों को आप लोग जाने दो। वे सबसे अधिक माइरा पाइबिस से अनुनय कर रही थीं, जो उनके इर्द-गिर्द खड़ी थीं। भीड़ में से एक आदमी ने कहा कि इन लोगों को जाने देना चाहिए। माइरा पाइबिस उस आदमी पर भड़क गईं। क्या ये तुम्हारे रिश्तेदार हैं कि बहुत प्यार आ रहा है, उन्होंने उस आदमी को कहा।
तभी वहां एक और कार आई, जिसके बारे में भीड़ को शक हुआ कि उसमें भी कुकी हो सकते हैं। भीड़ उस कार की ओर बढ़ी। मौका देखकर एक मैतेई आदमी ने इस परिवार को भाग कर एक घर में घुस जाने के लिए कहा, जो वहां से थोड़ी दूर पर ही पीछे की तरफ था। उन्होंने ऐसा ही किया। उस घर में घुसने के बाद गौज़ावुंग ने सरकार के उच्चाधिकारियों, नेताओं और पुलिस के हेल्पलाइन नंबरों पर फोन किया। कहीं से कोई जवाब नहीं मिला, लेकिन उन्हें दस मिनट का भी समय नहीं मिला। जिस घर में छुपी थीं, उसके बाहर माइरा पाइबिस जमा हो गईं। उनके साथ मौजूद पुरुष घर के दरवाजों पर पथराव करने लगे। घर का मालिक डर गया और अपनी संपत्ति को नुकसान होते देख—उसने दरवाजा खोल दिया और उन्हें बाहर जाने के लिए कहा। सभी महिलाओं को बालों से खींच कर बाहर निकाला गया। गौलालसांग को सबसे आखिर में रॉड और डंडों से पीटते हुए बाहर निकाला गया। दंगाई ने उन सबको पीटते हुए अलग-अलग दिशाओं में ले गए।
जामन्गैहकिम और किम को मुख्य सड़क पर उस ओर ले गए जहां उनकी कार अभी भी जल रही थी। वे उनकी पीठ पर बेल्ट और डंडों से मार रहे थे। आंटी सड़क पर गिर गई थीं और उनकी गोद में छिटक गए उस एक साल के बच्चे को भी माइरा पाइबिस ने थप्पड़ों और लातों से पीटा। महिला दंगाई कह रही थी कि चुराचांदपुर में जिस तरह से मैतेई महिलाओं का बलात्कार हुआ है, ठीक वैसा तुम्हारी बहू और बेटी के साथ भी हमारे पुरुषों को बलात्कार करना चाहिए। लेकिन शुक्र मानो कि वे ऐसा नहीं कर रहे हैं।
पुरुष सड़क पर यहां-वहां समूह बनाकर पूरे परिवार की पिटाई कर रहे थे। गौलालसांग की सबसे अधिक पिटाई की जा रही थी। उसका सर फूट चुका था। रक्त की तेज घार के चेहरा तरबतर हाे रहा था। पैंट और शर्ट फट चुकी थी। शरीर पर कपड़े के नाम पर जो चिथड़ा बचा था, वह खून से तर था। उसके हाथ और पैर भी तोड़े जा चुके थे। लेकिन पिटाई जारी थी। गौलालसांग बुरी तरह चीखता हिनो-हिनो (मां-मां) की आवाज लगाता, लेकिन उसका कातर स्वर इसी बीच पड़ने वाली डंडे की अगली मार में डूब जाता। मां गौज़ावुंग बेटे की ओर दौड़ी और उसके लहुलुहान शरीर को अंकवार में समेट कर उसके ऊपर लेट गई। इस बीच, उसकी पत्नी नैन्सी भी लड़खड़ाते हुए दोनों की ओर बढ़ी और उनके ऊपर लेटकर कर उन्हें ढक लिया। लेकिन रॉड और डंडे वाले हाथ नहीं कांपे। उन्होंने पहले उन दोनों के ऊपर से ही पिटाई जारी रखी और बाद में गौज़ावुंग और नैन्सी को खींच कर अलग किया और उन्हें माइरा पाइबिस के हवाले कर दिया गया।
भीड़ उन लोगों को पीटने में व्यस्त थी, इसलिए उसका ध्यान जामन्गैहकिम, उसकी चचेरी बहन और किम से हट गया था। उसी समय मैतेइ समुदाय के दो पुरुषों ने उनसे कहा कि वे वहां से भाग जाएं। इस बीच गौलालसांग बेहोश हो चुका था। उसे, उसकी मां और पत्नी के साथ चारों ओर से घेर कर खड़ी महिला और पुरुषों की वह वहशी भीड़ खुशी से चीख रही थी, तालियाँ बजा रही थीं।
जामन्गैहकिम, उसकी चचेरी बहन और किम को उन मैतेइ पुरुषों ने किसी तरह छिपा कर वहां से 200 मीटर दूर एक सरकारी इमारत में घुसा दिया। वे तीनों बुरी तरह लहूलुहान थीं और उनके साथ एक साल का बच्चा भी था। किसी तरह घिसटती हुई वे इमारत की छत पर पहुंची, जहां उन मैतेइ पुरुषों ने उन्हें एक कमरे में बंद कर बाहर से ताला लगा दिया। अगले पांच घंटे वे उसी कमरे में बंद रहीं। बीच-बीच में वे मैतेइ पुरुष सड़क पर जाकर भीड़ के साथ घुलते-मिलते और लौटकर इन महिलाओं को वहां की बातें बताते। सड़क पर उत्पात जारी था। गौज़ावुंग और गौलालसांग को वहीं एक कोने में छोड़ दिया गया था।
इस बीच जामन्गैहकिम ने मदद के लिए कई पुलिस अधिकारियों को फोन किया, जो उनके परिवार से अच्छी तरह परिचित थे। उनमें से एक ने कहा कि मैतेइयों की संख्या अभी वहां बहुत होगी, इसलिए अभी पुलिस वहां नहीं भेजी जा सकती। पुलिस के विपरीत उन दो मैतेई पुरुषों उनकी हर संभव मदद की। वे उनके लिए नाश्ता लेकर आए। तब तक सूरज ढलान पर पहुंचने लगा था और कुछ ही देर में शाम होने वाली थी।
तभी कुछ आवाजें आईं। शायद फायरिंग हुई या आसू गैस के गोले चले। उन लोगों को पता चला कि गौज़ावुंग और गौलालसांग मारे जा चुके हैं और पुलिस दोनों का शव उठाकर ले गई है।
फरिश्ता बन कर आए उन मैतेइ लोगों ने तय किया कि उनका वहां से जल्दी निकल जाना ही अच्छा होगा क्योंकि अगर पुलिस आ गई तो वे बचकर नहीं जा पाएंगे। उन्हें आशंका थी कि भीड़ में से कुछ लोगों ने उन्हें उस सरकारी परिसर में प्रवेश करते हुए देखा था और संभव है कि रात में परिसर पर हमला किया जाएगा। उन्होंने उन्हें बताया कि अगर पुलिस या दंगाइयों को यह पता चला कि वे हमारी मदद कर रहे हैं तो वे भी खतरे में पड़ जाएंगे। राज्य सराकार की भेदभावपरक नीतियों के कारण सामान्य धारणा हो गई है कि मणिपुर पुलिस मैतेइयों के साथ है। दूसरी ओर, मैतेइ कहते हैं असम राइफल्स कुकियों को बचा रही है।
उन मैतेइ लोगों ने शाम 6 बजे के आसपास इन महिलाओं को बच्चे के साथ एक आदमी की कार के बूट स्पेस में— जिसमें सामान रखकर ऊपर बंद कर दिया जाता है, घुस जाने को कहा। वे तीनों बहुत जबरदस्ती करने पर उस बूट स्पेस में समा पाईं। बूट स्पेस का दरवाजा ऊपर से बंद कर दिया गया। लेकिन इससे पहले की कार स्टार्ट होती बच्चा चीख-चीख कर रोने लगा। जो व्यक्ति कार चला रहा था उसने बच्चे की आवाज को दबाने के लिए म्यूजिक सिस्टम की आवाज पूरे जोरों पर कर दी। बूट में मौजूद जाम्न्गैहकिम बच्चे को शांत करने के लिए उसे कार्टून वीडियो दिखाने लगी। उन्होंने वहां से राहत शिविर पहुंचने के लिए एक दूसरा रास्ता लिया और सेना द्वारा चलाए जा रहे एक दूसरे राहत शिविर तक पहुंचे। दम घुटने वाली बेचैनी के अलावा उन्होंने यह रास्ता निर्विघ्न पार कर लिया और दस मिनट में वहां पहुंच गए। लेकिन नैन्सी का कोई अता-पता नहीं था। बाद में उन्हें मालूम चला कि वह किसी तरह भीड़ के चंगुल से बचने में सफल रही थी और एक हॉस्पिटल में भर्ती थी।
राहत शिविर में भी हालत अच्छे नहीं थे। सुनने में आ रहा था कि वहां भी हमला हो सकता है। नैन्सी समेत उन सब ने वहां से दिल्ली निकल जाने का फैसला किया। उन्हें फ्लाइट की टिकटें 10 मई की मिलीं। लेकिन वे राहत शिविर में नहीं रहना चाहती थीं। सेना ने उन्हें 6 मई को इंफाल हवाई अड्डे पर पहुंचा दिया। उनका इरादा था कि हवाई अड्डे के भीतर ही वे चार दिन बिताएंगी। उनकी समझ थी कि हवाई अड्डा एक सुरक्षित जगह है, कम-से-कम वहां सरकार दंगाइयों को नहीं पहुंचने देगी। लेकिन मुसीबत यह थी हवाई अड्डे के सुरक्षा-कर्मचारी उन्हें ही अंदर जाने की अनुमति देते, जिनकी फ्लाइट उसी दिन हो। जामन्गैहकिम ने अपनी उड़ान वाले कागज (टिकट) को लैपटॉप पर संपादित कर उड़ान की तारीख को 10 मई से 6 मई कर दिया और इस प्रकार वे हवाई अड्डे में प्रवेश करने में सफल हो गईं। उन्होंने अगले चार दिन हवाई अड्डे में ही बिताए, और 10 मई को दिल्ली के लिए उड़ान भरी। उसके कई दिन बाद तक भी उनकी मां और भाई की लाश इंफाल के मुर्दाघर में पड़ी थी, क्योंकि भारी हिंसा के कारण उनके पिता चूराचांदपुर से इंफाल नहीं आ सकते थे।
जामन्गैहकिम के माता-पिता चाहते थे कि वे सेवानिवृत्त के बाद का जीवन चूराचांदपुर में अपने समुदाय के बीच बिताएंगे। उनके इस फैसले का आधार 90 के दशक में हुई हिंसा थी। उस समय इन बच्चों का जन्म नहीं हुआ था। लेकिन बच्चों का लगता था कि वह दौर बीत चुका है और अब वैसा कुछ नहीं होगा। लेकिन दोनों बच्चों और बहू को इंफाल पसंद था और वे चूराचांदपुर जाकर बसने की योजना से सहमत नहीं थे। उन्हें लगता था कि इंफाल में शिक्षा और नौकरी के अधिक अवसर हैं और जीवनशैली अपेक्षाकृत आधुनिक थी। लेकिन 2023 के इस दंगें ने कुकी युवाओं से यह अवसर शायद हमेशा के लिए छीन लिया है। इंफाल घाटी में अब कोई कुकी नहीं है। उनमें से ज्यादातर के घर जला दिए गए हैं, या उन पर चुपचाप कब्जा कर लिया गया है।
इंफाल स्थित मेरी मित्र का घर भी जला दिया गया है। वे अपने दो किशोर बच्चों के साथ दिल्ली में राहत-शिविर में हैं। जामन्गैहकिम, किम और नैन्सी भी वहीं हैं। इनमें से अब कोई भी कभी भी इंफाल घाटी में नहीं लौटेगा।
हेड हंटर की वापसी!
आज सुबह मैंने एक और वीडियो देखा है, जिनमें मणिपुर में किसी दंगे वाली जगह पर बड़ी उम्र की मैतेई इमाओं (माताओं) के समूह में से एक इमा युवाओं का आह्वान कर रही है, वे वहां मौज़ूद कुकी युवती से बलात्कार करें। एक मां चाहती है कि उसके सामने मौज़ूद उस युवती का बलात्कार हो, जो उसी की जैसी किसी मां की बेटी है! सिर्फ़ इसलिए, क्योंकि वह अलग समुदाय की है?
कुछ अध्येता कह रहे हैं कि पहले ऐसा नहीं होता था। जनजाति समुदाय में यह पहली बार देखा जा रहा है कि न सिर्फ़ स्त्रियों को निशाना भी बनाया जा रहा है, बल्कि इस युद्ध में महिलाएं भी शामिल हैं। मुझे ऐसा नहीं लगता कि यह पहली बार हो रहा है। यह जनजातियों के प्रति एक रोमांटिक सोच का हिस्सा है, जिसे कुछ बुद्धिजीवी एक बैज की तरह अपनी ऊपरी जेबों पर लगाए रखते हैं।
स्त्रियां हर समय, हर समुदाय द्वारा युद्ध के समय सबसे पहला शिकार रही हैं। जनजातियों के बीच के टकरावों में भी यही होता रहा है। साथ ही हर युद्ध में स्त्रियों ने भागीदारी भी की है। कहीं वीरांगना बनकर तो कहीं विषकन्या बनकर, इसका भी पूरा इतिहास रहा है। कबीला, धर्म, जाति आदि के प्रभाव से स्त्रियां मुक्त नहीं रह सकतीं।
चूराचांदपुर जिले में लांग्चा नामक गांव था, जिसमें मार और कुकी जनजातियों के लोग बसे थे। उस गांव 2 जुलाई, 2023 को जो हुआ, वह हेड-हंटिंग की परंपरा का जिंदा होना था। दंगा भड़कने के बाद मणिपुर के प्राय: सभी गांवों में सुरक्षा के लिए समितियां बनाईं गईं हैं। गांव के लोग बारी-बारी से रात-दिन पहरा देते हैं। उस दिन पहरा देने की जिम्मेदारी कुकी डेविड थीक समेत दो पुरुषों और तीन महिलाओं की थी। डेविड अविवाहित था और पहले मुंबई में वेटर का काम करता था। कोविड महामारी के दौरान काम छूट जाने पर मणिपुर वापस आ गया था और अब वापस जाने ही वाला था। लेकिन इस बीच मणिपुर हिंसा की भेंट चढ़ गया इसलिए उसे अपनी वापसी स्थगित करने पड़ी थी।
सुबह करीब साढ़े चार बजे मैतेइ लोगों ने उसके गांव पर हमला किया। गांव के लोग चारों दिशाओं में भाग खड़े हुए। वे घरों में आग लगाते आगे बढ़ रहे थे। चिल्ला-चिल्ला कर डेविड को बाहर निकलने के लिए कह रहे थे, जिससे लग रहा था कि वे मुख्य रूप से डेविड के लिए ही आए थे। लेकिन डेविड उनकी आखों पर क्यों चढ़ा था? क्या उसने इससे पहले पास के मैतेई गांव पर हुए किसी हमले में भागीदारी की जुर्रत की थी? या विधायक अथवा उसके गार्ड रोमेश को उसकी कोई बात बहुत बुरी लग गई थी? कुछ भी हो सकता है। हालांकि इस बारे में कुछ दावे के तौर पर नहीं कहा जा सकता।
डेविड ने छुपने की कोशिश की, लेकिन अंतत: पकड़ा गया। उन्होंने उसे गोली मार दी। उसके बाद भीड़ में शामिल रोमेश मंगांग ने अपने दाऊ से उसका सिर काट दिया। मंगांग की पहचान कुंभी से भाजपा विधायक शांति कुमार उर्फ सनीसम प्रेमचंद्र के अंग-रक्षक के रूप में हुई है। वह अपने एक हाथ में दाऊ और एक हाथ में डेविड के कटे हुए सिर को किसी ट्राफी की तरह हाथ में लटकाए काफी देर तक घूमता रहा। इस दौरान भीड़ जीत के उल्लास से चीखती घरों को जलाती रही। मंगांग ने बीच में एक घर के बाहर बांस की फट्टियों की बने फेंस पर डेविड क सिर को टांगा और उसकी तस्वीरें लीं तथा वीडियो बनाया। गांव से बाहर निकलने से पहले उसने ने डेविड के शरीर को दाउ से बोटी-बोटी किया और गांव में ही सिर के साथ जला दिया। हमलावरों के जाने के बाद जब गांव के लोग जुटे तो वहां डेविड के शरीर का टुकड़ा तक नहीं था। जगह जगह फैला उसका खून था और राख के बीच कुछ अंजुली भर उसकी हड्डियां थीं।
मुझे नगालैंड के मोन जिले में कुछ बुजुर्ग हो चुके हेड-हंटर्स और उनके आंग (स्थानीय राजा) का साक्षात्कार करने और उनकी कहानियां सुनने का मौका मिला है। उन्होंने भी मुझे बताया था कि वे हेड-हंटिंग के दौरान पुरुषों और स्त्रियों के सिरों में कोई भेद नहीं करते थे। स्त्रियों के सिर का काटा जाना भी उतनी ही ‘वीरता’ की निशानी था, जितना कि पुरुषों का सिर काटा जाना। कुछ दुर्लभ मामलों में स्त्रियां भी हेड-हंटिंग करने जा रहे लोगों के साथ जाती थीं। आखिर, अंग्रेजी नाटककार जॉन लिली ने 16वीं शताब्दी के अंत में जो लिखा था, वह इन पर भी लागू होता था— “प्रेम और युद्ध में सब चलता है।”
विजयी कबीले के लोग, खून टपकते कटे हुए सिरों को लेकर लौटते। सिरों को गांव से बाहर प्राय: किसी पेड़ या किसी ऊचे बांस पर लटका दिया जाता था। स्त्रियां उसके इर्द-गिर्द विजय-नृत्य करती हुईं, उन वीर पुरुषों के प्रति मादक प्रेम प्रदर्शित करतीं, जिन्होंने दुश्मनों के सिर काटे थे। हेड-हंटिंग प्राय: कबीलों के बीच दुश्मनी के कारण होती थी। लेकिन जैसा कि लगभग एक शताब्दी पहले पूर्वोत्तर की जनजातियों के बीच काम करने वाले जर्मन मानवविज्ञानी फ्यूरर-हैमेंडोर्फ ने लिखा था कि उन जनजातियों में यह विश्वास कायम है कि फसलों की उर्वरता और अपने कबीले की भलाई को बनाए रखने के लिए मानव सिर को कभी-कभार काट कर लाना आवश्यक है।
पूर्वोत्तर की सभी जनजातियां इन रिवाजों से प्रभावित रही हैं। सभी जनजातियों के लोकगीतों-गाथाओं में किसी-न-किसी रूप में इसका जिक्र ढूंढा जा सकता है। बल्कि इस तरफ के विभिन्न देशों म्यांमार, बोर्नियो, इंडोनेशिया, फिलिपींस और ताइवान आदि में भी इसके प्रचलन का इतिहास मिलता है। नगालैंड के कुछ इलाकों में तो यह 1960 के दशक तक जारी था। 1962, 1963 और 1969 में भी ऐसे मामले दर्ज किए गए थे, जब एक कबीले ने दूसरे कबीले पर हमला कर कई सिर काट डाले थे। 17 अगस्त, 1990 को हेड-हटिंग का अंतिम मामला आधिकारिक तौर पर दर्ज है। उस समय आउटलुक पत्रिका में इस लोकहर्षक घटना का विवरण उत्तम सेनगुप्ता ने लिखा था।
आज जो मणिपुर में हो रहा है, क्या वह हेड-हंटिंग के लिए दुश्मन कबीले पर हमला करने वाले वीर-बांकुरों की भीड़ में शामिल स्त्रियों की याद नहीं दिलाता? और उन स्त्रियों की, जो पेड़ पर लटक रहे कटे हुए सिरों के नीचे विजय-नृत्य कर रही होती थीं? समय के चक्र को इस प्रकार पीछे घुमाने में किनकी भूमिका है?
प्रमोद रंजन फॉरवर्ड प्रेस के पूर्व संपादक और शिक्षक हैं। यह डायरी आगे भी जारी रहेगी।