शकील अख्तर
अब राहुल गांधी के पास कोई आप्शन नहीं है। नेतृत्व संभालना होगा और लाउड मैसेज (कड़ा संदेश) देना होगा कि कोई नहीं बख्शा जाएगा! कानून कड़ाई से अपना काम करेगा।
देश इस समय भारी अनिर्णय के दौर से गुजर रहा है। उसे नहीं मालूम किधर देखना है, किससे उम्मीद करना है। डरा हुआ समाज अपनी आवाज नहीं उठा सकता। उसे जो कहा जा रहा है कर रहा है। तुम्हारी किस्मत खराब है वह मान जाता है, 70 साल से कांग्रेस दोषी थी, सात साल से सिस्टम, वह मान जाता है। मौतें आक्सीजन की कमी से नहीं हो रहीं, मृत्यु को कौन रोक सकता है, वह
मान जाता है। प्रचार तंत्र जो बता रहा है वह सब मान रहा है। उसकी बुद्धि, विवेक सब मीडिया ने हर ली है। मोदी, मोदी के नशे में उसे नहीं मालूम कि आगे कुआ है या खाई। उसके बच्चों का क्या होगा? नौकरी का क्या होगा? तनखाएं और कितनी कम होंगी? नए कृषि कानूनों के बाद कल जब अनाज भी आक्सीजन की तरह मुनाफाखोरों के पास पहुंच जाएगा तो रोटी का क्या होगा? उसे कुछ नहीं मालूम! न वह मालूम करना चाहता है। उसे उम्मीद है कि हिन्दु, मुसलमान से सब समस्याओं का हल निकल जाएगा। अगर इससे भी नहीं हुआ तो हर रोग की एक दवा पाकिस्तान है ही। पाकिस्तान का हव्वा फिर खड़ा कर देंगे। मीडिया में फिर पाकिस्तान की तबाही की कहानियां चलने लगेंगी और इसके प्रभाव से भारत में कोरोना का अंत, आर्थिक वृद्धि, नौकरी, मंहगाई खत्म, सब होता चला जाएगा!
जनता किंकर्तव्यविमुढ़ है। केन्द्र सरकार के लिए सबसे संतोषजनक, सुखदाई स्थिति! मगर महान भारत के लिए नहीं। जिसने उन अंग्रेजों से लड़ कर आजादी पाई हो जिनके राज में सूरज नहीं डूबता था। उस भारत के लिए झूठ का रथ पर सवार विजयी पताका फहराते जाना और सच का बेबस खड़े रहना अच्छी बात नहीं। किसी न किसी को बीड़ा उठाना पड़ेगा। हो सकता है यह चिनगारी कहीं आरएसएस में उठे। भाजपा में कोई हिम्मत करे मगर आगे बढ़कर झूठ का पहिया तो विपक्ष का थामना होगा। राहुल अब नेतृत्व करने से इनकार नहीं कर सकते। उन पर ऐतिहासिक जिम्मेदारी आन पड़ी है। आदर्श अपनी जगह हैं। मगर आपातकाल में, देश की रक्षा में, जनहित में आदर्श को थोड़ा बगल में सरका कर
व्यवहारिक रवैया अपनाना पड़ता है। राहुल ने वैसे तो लगातार मगर पिछले सवा साल में फ्रंट से लीड किया है। एक नेता का सर्वप्रमुख गुण। नेता वह नहीं जो उपदेश दे, नेता वह जो आगे बढ़कर कमान संभाले। इस सवा साल में राहुल के मुंह से सरस्वती बोलती रही। हर चेतावनी सही निकली। कोरोना की सुनामी से लेकर आर्थिक बदहाली और चीन के इरादे सब पर राहुल ने समय रहते सरकार को चेताया। यह उनकी दूरंदेशी थी, स्थिति का सही आकलन था और जनउन्मुखी दृष्टि थी।
अब एक्शन का समय आ गया है। झूठ के प्रयोगों के खिलाफ सत्य की मशाल सामने लेकर खड़े होने का। झूठ के सौदागरों, सारे इंस्टिट्यूशनों को सख्त और
स्पष्ट शब्दों में कहने का कि देश किसी को माफ नहीं करेगा। इनफ इस इनफ। बहुत हो गया। राहुल का एक लाउड मैसेज मीडिया से लेकर अफसरशाही, चुनाव
आयोग, न्यायपालिका सब जगह हड़कम्प मचा देगा। गलत काम करता हुआ आदमी बहुत डरपोक होता है। राहुल किसी से नहीं डरते तो इसकी वजह उनकी कुर्बानी भरी वीर वंश परम्परा तो है ही इसके साथ एक बड़ी बात जो उन्होंने खुद कही कि मैं कोई गलत काम नहीं करता इसलिए किसी से नहीं डरता।
राहुल को अब नेहरु गांधी परिवार के बाहर का अध्यक्ष बनाने की रट छोड़ना होगी। जब स्थितियां सामान्य हों, राजनीति और दूसरे संस्थान सहज तरीके से काम करने लगें तब वे अपने इस आदर्शवादी माडल को शौक से लागू कर सकते हैं। लेकिन आज देश नेतृत्व मांग रहा है। अभी तक चाहे नोटबंदी में लोगों के मरने की बात हो। मजदूरों के हजारों किलोमीटर पैदल चलते हुए मरने की बात हो, किसान आंदोलन में शहादतें हों, चीन की घुसपैठ हो, बेरोजगारी और पैट्रोल, डीजल के रोज बढ़ती कीमतें हों, जनता को मोदी उम्मीद की तरह दिखते थे। खुद सरकार, भाजपा मोदी के पीछे खड़ी दिखाई देती थी। मगर क्या आज वहीं स्थिति है?
प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र के नाम संदेश दिया, मन की बात कही। कहीं किसी की रग फड़की। भक्त आदतन या हेंगओवर में ट्रोल करते हैं। मगर उनकी लय बिगड़ी हुई है। सच कहने वालों पर हमला करते हैं मगर पहले की तरह कन्सिसटेन्सी ( निरंतरता) नहीं हैं। मुंह से झाग तो निकलते हैं मगर आवाज में वह जोश नहीं है। आखिर उनके भी घरों के लोगों की सांसे उखड़ी हैं। बड़े बड़े लोग बेड मांगते हुए, आक्सीजन की गुहार लगाते हुए रुखसत हो गए। किसी के पास कोई गिनती है? सिर्फ श्मशान और कब्रिस्तान ही सही कहानी कह रहे हैं। मगर किस की हिम्मत है, किसके पास इतना बड़ा कलेजा है कि वह मसान मसान घूम कर गिनती कर सके! मौत की गिनती बहुत मुश्किल होती है। और जलती हुई चिताओं की कलेजा फाड़ कर रख देने वाली!
मतलब? मतलब साफ है। यह पहली बार है जब भक्त भी अंधेरे में हाथ पाँव मार रहे हैं। उन्हें भी डर सताने लगाने लगा है। जिस पर उन्हें भरोसा था कि वह देश को विश्वगुरु बना देगा वह एक सांस की व्यवस्था नहीं कर सकता देखना शायद भक्तों के लिए सबसे बड़ा सदमा है। आक्सीजन के लिए छटपटाते लोगों में उनके भी अपने प्रिय लोग हैं। कल तक दावा था कि मैं किस्मत वाला हूं, लोग खुश हुए। मगर आज जब आक्सीजन की कमी से हर मरने वाले और उसके परिवार को ही बदकिस्मत बताया जा रहा है तो वे हिल गए। जिसे मुक्तिदाता समझते थे उसने मुक्तिधाम पहुंचा दिया।
देश में बढ़ रहे अस्थिरता के दौर को रोकना कांग्रेस की नैतिक जिम्मेदारी है। सबसे बड़ा और राष्ट्रव्यापी विपक्ष होने के नाते देश में विश्वास और साहस भरने की जिम्मेदारी उसकी है। मगर नेतृत्वविहीन कांग्रेस यह नहीं कर सकती। राहुल को तत्काल पार्टी के अंदर का कनफ्यूजन दूर करना होगा। अध्यक्ष पद स्वीकार करने के लिए अपनी सहमति देना होगी। अपने मन की
कांग्रेस बनाने का मौका उनके पास फिर आएगा। यह समय देश को बचाने का है। जनता के मारल को बनाए रखने का।
यह फैसले की घड़ी है कि सच और झूठ के इस महायुद्ध में कौन किस के साथ खड़ा है। 2013- 14 में क्या हुआ था? तब बलात्कार जैसा क्राइम मनमोहन सिंह, सोनिया का दोष बन गया। तब सिस्टम दोषी नहीं था? जबकि सिस्टम, समाज व्यवस्था ही दोषी थे। मगर अन्ना हजारे, सारे विपक्ष, टीवी, अखबारों, सोशल मीडिया, एक नया शब्द चला था सिविल सोसायटी सबने मिलकर केन्द्र और दिल्ली सरकार को घेर लिया। केन्द्र और दिल्ली दोनों जगह अपनी सरकारें बना लीं।
अब जब काम करना था तो सिस्टम दोषी हो गया। ऐसे में राहुल को अपनी दुविधा से बाहर आना होगा। सबसे पहले पार्टी अध्यक्ष पद के लिए छाई अनिश्चितता को
दूर करना होगा। और फिर जनता से न घबराने और जनता विरोधी काम कर रहे मीडिया और अन्य संस्थान, चाहे वे कितने ही पावरफुल क्यों न हों उन्हें स्पष्ट संदेश देने का की वक्त बदलेगा। और जब जनता के हाथ में फिर से ताकत आएगी तो जनता के एक एक दुःख का हिसाब लिया जाएगा। माफी मिलेगी! मगर मीडिया और दूसरे उन दूसरे संस्थानों को नहीं जिनका काम निष्पक्ष रहना, सच बोलना और न्याय करना है। अगर ये सारे संस्थान डर कर खुद को खत्म करने पर ही तुल गए हैं तो राहुल की जिम्मेदारी नहीं है कि इन्हें बचाए। राहुल की
जिम्मेदारी है कि इन संस्थानों को फिर से नया बनाएं। पहली जिम्मेदारी उनकी देश और जनता है। उससे जो विश्वासघात कर रहे हैं उन्हें कानून के दायरे में लाना है। आज या कल कभी भी! मगर अवश्यंभावी!