सुनील मेहरोत्रा
मैं कितना भी देर से क्यों न सोऊं, पता नहीं क्यों मेरी नींद रात में तीन से साढ़े तीन बजे एक बार खुल ही जाती है। भले ही नींद की वह भरपाई, बाद में किसी और वक्त कर लूं, लेकिन जब देर रात नींद खुल जाए, तो उस वक्त मैं क्या करूं? मेरे पास इसका भी समाधान है। मैं अपना मोबाइल फोन उठाता हूं, फेसबुक मैसेंजर चेक करता हूं, जिसमें देर रात ही राजेश पांडे जी के किस्सागोई के नए एपिसोड का लिंक पड़ा होता है। मैं उसे ओपन करता हूं, सुनता हूं, करीब आधा घंटा उसी में निकल जाता है। फिर एक कप चाय पीता हूं और फिर आंख बंद कर सोने की कोशिश करता हूं। कब दिन गुजरते गए, पता ही नहीं चला।… देखते-देखते या सुनते-सुनते किस्सागोई के 300 ऐपिसोड भी पूरे हो गए।
साल, 1997 में मैंने क्राइम बीट कवर करना शुरू किया था। उन दिनों पत्रकारों को खबरों के अपडेट के लिए मुंबई पुलिस कंट्रोल रूम में जाने की खुली इजाजत थी। मैं भी लगभग रोज कंट्रोल रूम जाता था और कई बार वहां से EXCLUSIVE खबरें भी मिल जाती थीं। सेशन कोर्ट के एक जज के अंडरवर्ल्ड से संबंधों की खबर मुझे वहीं से मिली थी, लेकिन एक बार मैं जब कंट्रोल रूम में मित्र बन चुके एक पुलिस अधिकारी से उस दिन की खबर पूछ रहा था, तो उस अधिकारी ने बताया कि आज तो कुछ खास नहीं है, बस, एक फालतू का मर्डर है। मैंने उस अधिकारी से पूछा कि मर्डर कैसे फालतू का हो सकता है। उस अधिकारी ने जवाब दिया कि एक मर्द ने औरत का मर्डर किया है। मैंने फिर उस अधिकारी से सवाल किया कि औरत का मर्डर तो हुआ है, वह फालतू कैसे हुआ? उस अधिकारी ने जवाब दिया कि वह स्लम में हुआ है। मैंने फिर उस अधिकारी से कहा कि स्लम में मर्डर भी फालतू कैसे हो सकता है? वह अधिकारी समझ गया कि मुझे उस मर्डर की डिटेल चाहिए। उसने विस्तार से खबर बताई, मैंने विस्तार से खबर चलाई भी। अगले दिन स्लम के मर्डर की वह खबर किसी भी अंग्रेजी अखबार में नहीं दिखी। मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ। दो दिन बाद मलाबार हिल में मर्डर हुआ। मैंने नोट किया, कि अंग्रेजी अखबारों में वह खबर फ्रंट पेज पर थी और बहुत डिटेल में थी। उस दिन मैंने दो दिन पहले कंट्रोल रूम में कहे गए पुलिस अधिकारी के 'फालतू का मर्डर' शब्दों को कई बार याद किया।
यह प्रसंग लिखने की यहां वजह भी राजेश पांडे जी का किस्सागोई ही है। यह सबको पता है कि राजेश पांडे जी यूपी एसटीएफ के संस्थापकों में से एक हैं। यह भी सबको पता है कि उन्होंने यूपी एटीएस में भी लंबी पारी खेली, जहां टेरर से जुड़े केसों का प्राय: इनवेस्टिगेशन होता है। किस्सागोई में एसटीएफ और एटीएस के कई हाई प्रोफाइल केसों को तो बताया ही गया है, छोटे-छोटे शहरों और गांव में क्राइम की कई ऐसी खबरों को भी राजेश जी ने इतनी विस्तार से बताया है कि पत्रकारिता में अपने तीन दशक के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि ज्यादातर मीडिया ने उन किस्सों को 'फालतू स्टोरी' समझकर शायद कवर भी नहीं किया होगा।
मैंने आईपीएस अधिकारी राज तिलक रौशन जी का इनवेस्टिगेट किया केस एनबीटी में करीब आधे पेज में कवर किया था कि कैसे 18 हजार जयपुर कुर्तियों से उन्होंने एक मर्डर केस सॉल्व किया था। रौशन जी से मिलने से पहले मैंने टीवी में एक क्राइम शो का उस केस से जुड़ा ऐपिसोड देखा था। लेकिन जब मैं रौशन जी से मिला, तो उन्होंने जो कहानी बताई और क्राइम शो में जो कहानी दिखाई गई, उसमें जमीन-आसमान का फर्क था। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं 18 हजार जयपुर कुर्तियों वाली स्टोरी के लिए रौशन जी के पास लगातार पांच दिन गया था। एक पुलिस अधिकारी यदि ऑफ रेकॉर्ड ही सही केस की पूरी कहानी बता दे, तो किसी पत्रकार को लिखने में भी अच्छा लगता है और पाठक और दर्शक को पढ़ने और सुनने में भी। राजेश पांडे जी के साथ खास बात यह है कि वह इतना खुलकर बोलते हैं कि जब वह सर्विस में थे , उस वक्त भी किसी स्टोरी पर बात करते वक्त कई बार मुझे उन्हें पूछना पड़ता था कि आप ऑफ रेकॉर्ड बोल रहे हैं या ऑन रेकॉर्ड। वह मुस्करा देते थे कि सब कुछ ऑन रेकॉर्ड है। बिंदास होकर मेरा नाम लेकर लिखो। अब तो वह रिटायर हो गए हैं, इसलिए किस्सागोई में भी खुलकर कहानी सुनाने में अब उन पर किसी प्रकार का बंधन भी नहीं है।
मैंने टीवी पर बहुत कम क्राइम शो देखे हैं। हां, क्राइम पर फिल्में बहुत देखी हैं। कई फिल्में तो कई-कई बार, जैसे सत्या, शूल, दृश्यम कई-कई बार। राजेश पांडे जी के किस्सागोई ने मुझे क्राइम पर बनी फिल्मों जितना ही लती बना दिया है। शायद पिछले साल मैंने राजेश जी से कहा भी था कि रिटायरमेंट के बाद आप अपनी स्टोरी बॉलिवुड में दीजिए, करोड़ों कमाएंगे। लेकिन उन्होंने यूट्यूब पर किस्सागोई सुनाना ज्यादा बेहतर समझा। अब लग रहा है कि उनका यह प्रयोग हिट हो रहा है। वैसे भी, हर किसी की अपनी-अपनी आदत होती है, वह बदल नहीं पाता। जब मैं राकेश मारिया की डायरियों पर स्टोरी लिखने के लिए उनके पास गया था और मैंने उनकी सैंकड़ों डायरियों के एक-एक पेज के कोने –कोने देखे थे, तो मैं दंग रह गया था। मैंने उस दौरान मारिया साहब से कहा था कि सर, अब जमाना टैक्नीक का है, डायरियों के बजाए सब कुछ डिजिटीलाइज्ड करिए। मारिया साहब बोले कि मेरा बेटा भी यही कहता है, लेकिन मैं अपनी आदत को बदल नहीं सकता। वह घर से ऑफिस और ऑफिस से घर अपनी इन सभी डायरियों को लेकर ही चलते थे। कभी कभी नहीं, रोज ही। जब मैंने मारिया साहब की डायरियों में हर पेज पर, पेज के हर कोने पर एक-एक स्टोरी की डिटेल देखी थी, तब मुझे लगता था कि उन जैसी हर केस की डिटेल कोई और नहीं लिखता होगा, लेकिन राजेश पांडे जी ने किस्सागोई के जरिए मेरी इस धारणा को भी तोड़ा है। किस्सागोई के रोचक बनने का एक कारण शायद राजेश जी का बोलने का अंदाज भी है। कई बार उनके बोलने के अंदाज में, मुझे हिमांशु राय के बोलने की झलक दिखती है। हिमांशु राय ने अपनी दर्जनों प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने बोलने की अदा से भी पूरे देश में नाम कमाया था। उनके समय में न्यूज चैनलों की ओबी वैन जितनी बार मुंबई पुलिस मुख्यालय के बाहर खड़ी हुईं, मुझे नहीं लगता, उसके बाद टीवी और प्रिंट के पत्रकारों ने किसी एक अधिकारी के संदर्भ में वह दौर फिर कभी देखा होगा। राजेश पांडे जी के किस्सागोई के किस्सों को सुनकर कई बार लगता है कि यदि वह मुंबई में होते, तो शायद हिमांशु राय और राकेश मारिया जितने टीवी पर लाइव दिख रहे होते।