'सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है' से लेकर...राफेल ".." गद्दी छोड़ तक
“सत्ता से सवाल करना ही जेपी को सच्ची श्रद्धांजिली” यह कहना है वरिष्ठ पत्रकार शशी शेखर का। पढ़िए जननायक जयप्ररकाश नारायण के जन्मदिन पर उनका विशेष आलेख
शशी शेखर
1975 में भी इक शख्स को अपने खुदा होने का यकीन हो चला था. तब जेपी ने यही नारा दिया था. सिंहासन खाली करो कि जनता आती है. आज लोक नायक जेपी का जन्मदिन है. मैं सोच रहा था, आज जेपी होते तो क्या नारा देते. शायद यही कि..राफेल ".." गद्दी छोड.
आज एक खबर आई है, खबर का मूल है, "डसॉल्ट को प्लेन बेचना था तो अंबानी को पार्टनर बनाना ही था." ये रिपोर्ट है, फ्रेंच इंवेस्टिगेटिव वेबसाइट Mediarpart.fr का. तो न माने इस रिपोर्ट को. क्या लिखता है ये वेबसाइट. पढिए,"According to an internal Dassault document obtained by Mediapart, a senior executive of the aviation group had explained to the staff representatives that the joint venture was a "trade-off" , "imperative and mandatory" to [obtain/take off] the market for Rafale." इस तीन शब्द trade-off, imperative and mandatory का मतलब समझिए.
क्या करे? कूडा में डाल दे ये रिपोर्ट. आंख मून्द कर राफेल पर वित्त मंत्री, पेट्रोलियम मंत्री और डॉक्टर संबित पात्रा के बयान को सच मान ले? कैसे करें ये सब? जब जमाना आज तक उस बोफोर्स की प्रेत छाया से बाहर नहीं निकल सका, जिससे कांग्रेस आज तक पीछा नहीं छुडा सकी. जिसके भ्रष्टाचार और कमिशनखोरी का आरोप आज तक किसी कांग्रेसी पर साबित नहीं हो सका. नहीं साबित हुआ तो क्या, मैं आंख मून्द कर मान लू कि बोफोर्स सौदा गंगा की तरह पवित्तर था. नहीं. बोफोर्स में "कुछ" तो हुआ था. वो "कुछ" भले हमारी जांच एजेंसियां साबित न कर सकी, लेकिन राजनीति में ये "कुछ" ही "बहुत कुछ" होता है.
वीपी सिंह की जेब से निकलने वाली पर्ची में क्या था, जमाना आज तक नहीं देख सका. लेकिन, कांग्रेस को अपने पाप की सजा भुगतनी तो पडी. तो क्या राफेल आसमान से अमृत जल से नहाकर आया है. क्या राफेल सौदा फाइनल करने वाले सीधे स्वर्ग से अवतार ले कर इस धरती को तारने आए है? जो उन पर सवाल न उठे, जो उन पर शक न किया जाए, जो उनको कठघरे में खडा न किया जाए? तब बोफोर्स था, कांग्रेस थी, हिन्दुजा बन्धु थे. आज राफेल है, भाजपा है, अंबानी है. बदला क्या इस बीच? दल का नाम?
मुझे क्या मतलब कि राफेल को ले कर तकनीकी उलझनें क्या है? तकनीकी उलझने तो बोफोर्स में भी थी. और तकनीकी बात ही करे तो इसी बोफोर्स ने कारगिल युद्ध में साबित कर दिया कि वह क्यों दुनिया का बेहतरीन तोप है? राफेल भी होगा, अच्छा या बुरा. लेकिन, सवाल तो नियत का है? सवाल तो चौकीदारी का है? सवाल तो भागीदारी का है? हम क्यों छोड दे इन सवालों को. सिर्फ इसलिए कि आपको भारी बहुमत है. तो भारी बहुमत तो राजीव गांधी को भी था, आपसे ज्यादा था. लेकिन, वो कहते है न पावर करप्ट्स, एबसॉल्यूट पावर करप्ट्स एब्सॉल्यूटली. आप इसी के शिकार हो गए. या आपका यकीन इतना मजबूत हो गया कि चाहे जो कर लो, जनता मेरे साथ रहेगी. जनता साथ रहे न रहे, सवाल तो रहेगा. जवाब मिले न मिले, सन्देह बरकरार रहेगा. तब तक, जब तक जांच न हो जाए, फैसला न आ जाए. वर्ना किसी के पीछे आजीवन बोफोर्स का प्रेत भागता रहेगा तो किसी के पीछे राफेल का.
आने वाली पीढियां आपके "आधा ग्लास हवा से भरे होने" को ऐसे याद रखेगी कि वो आधा ग्लास हवा से भरा नहीं था, बल्कि आधा ग्लास खाली था. ग्लास का आधा पानी चुरा कर राफेल सौदे में अंबानी को पिला दिया गया. और जनता को घूम-घूम कर दर्शनशास्त्र की मुद्रा में बताया जाता रहा कि ये ग्लास तो आधा हवा से भरा है. जनता हव देखती रह गई. इंतजार करती रह गई कि कब आधा ग्लास पानी से भरेगा और अंत में पता चला कि ग्लास क्या जनता की जेब भी पूरी की पूरी हवा से भरती चली गई.
कुछ पत्रकार कहते है कि कांग्रेस, भाजपा के खिलाफ अभी देश में नकारात्मक माहौल बनाएगी. विदेशी ताकतों के सहयोग से. तो जनाब, जब इन्दिरा के खिलाफ जेपी ने आवाज उठाई थी, तब उन्हें भी केजीबी, सीआईए एजेंट कहा गया था. मनमोहन सिंह के खिलाफ जब अन्ना ने अवाज उठाई थी, तब अन्ना आन्दोलन को भी अमेरिका पोषित बताया गया था. सत्ता से सवाल देश से सवाल नहीं होता. भारत कोई नया बना देश नहीं है, जिसे कोई आ कर तोड जाए. वो याद है न आपको कि "कुछ बात है हममें ऐसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी..."
तो आज अगर राहुल गांधी विपक्ष के नेता की हैसियत से राफेल पर सवाल उठा रहे है तो वो कुछ गलत नहीं कर रहे हैं. विपक्ष का काम ही है, सत्ता को कठघरे में लाना. जागरूक जनता का काम ही है कि वो सत्ता को हमेशा सन्देह की परिधि में रखते हुए सवाल करती रहे. सत्ता राष्ट्र नहीं, राष्ट्र का एक बहुत ही मामूली सा पुर्जा है, जो हर पांच साल पर या उससे भी कम समय पर बदलता रहता है.
जेपी आधुनिक भारत के ऐसे लोक नायक रहे, जिन्होंने जनता को सवाल करना सिखाया. आज हम सवाल करना और सही सवाल करना ही भूल गए है. ऐसे दौर में जब मीडिया से ले कर सत्ता तक हर एक समस्य के लिए विपक्ष से सवाल कर रहा है, हमें जेपी के जन्मदिन पर, सत्ता से सवाल करने का साहस दिखाना होगा.
"हम सत्ता से सवाल कर सके, यही जेपी को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी."
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)