क्या बुद्धिजीवी आज राजनीतिक खाद्यवस्तु है?

नोआम चोमस्की ने आजकल के बुद्धिजीवियों के संदर्भ में लिखा है कि वे 'राजनीतिक खाद्यवस्तु और सत्ता प्रतिष्ठान के पोषक' होते हैं। यह एक ऐसी पहचान है, जिसे चुनौती के रूप में लिया जा सकता है!

Update: 2021-10-24 06:57 GMT

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'बुद्धिजीवी' शब्द दूसरे विश्वयुद्ध के समय लोकप्रिय हुआ था। यह 1970 के दशक तक उनके लिए इस्तेमाल किया गया है जो देश, समाज और शासन के बारे में स्वतंत्र और आलोचनात्मक ढंग से सोचते रहे हैं। उनके पास कुछ सिद्धांत और विश्वास होते थे, सामान्यतः वे जो होते थे, वही दिखते थे। वे अपनी वैचारिक सीमा में न्याय की बात करते थे। वे लेखक थे, पत्र- पत्रिकाएं निकालते थे और सभाओं में निर्भय होकर बहस करते थे। वे दबाव बर्दास्त नहीं करते थे।

'बुद्धिजीवी' कहने से रूसो, अनातोले फ्रांस, ब्रेख्त, बरटेंड रसेल, सार्त्र या भारतीय संदर्भ में राममोहन राय, डिरोजियो, फुले, भारतेंदु, रवींद्रनाथ, नर्मद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, नागार्जुन आदि का जो बिंब बनता है, 21वीं सदी की विकसित भौतिक सभ्यता में वह धातु देखने को नहीं मिलती। अब बुद्धिजीवी या साहित्यकार शब्द के अर्थ में काफी पानी मिला दिया गया है!

आज के अधिकांश अंग्रेजी दां बुद्धिजीवियों की नाभि किसी विदेशी विश्वविद्यालय, विदेशी फाउंडेशन, या किसी न किसी राजनीतिक सत्ता से जुड़ी होती है। कई बार वे मिल चुके पुरस्कार से बड़े पुरस्कार की जोड़तोड़ में होते हैं।

कई बुद्धिजीवी देश की उच्च परंपराओं से डिस्कनेक्ट रहने में गौरव समझते हैं। वे उच्छेदवादी होते हैं और अपने लिए एक न एक कुआं चुन लेते हैं जिसमें एक न एक भांग पड़ी रहती है!

आम तौर पर आज का बुद्धिजीवी अपने सिर पर अपनी ही मूर्ति लेकर घूमता है। वह कई बार सही आवाज उठाता है, पर उसका लक्ष्य सामान्यतः स्वयं पूजित होने या अपना बाजार बनाने से ज्यादा नहीं होता। ऐसे बुद्धिजीवियों की चिंता यह नहीं होती कि 'आम असहमति' का निर्माण कैसे हो, क्योंकि वे खास होते हैं और हीरोगिरी में अपने को जाया कर देते हैं!

नोआम चोमस्की ने आजकल के बुद्धिजीवियों के संदर्भ में लिखा है कि वे 'राजनीतिक खाद्यवस्तु और सत्ता प्रतिष्ठान के पोषक' होते हैं। यह एक ऐसी पहचान है, जिसे चुनौती के रूप में लिया जा सकता है!

कहना न होगा कि बुद्धिजीवी के लिए कभी भी लेखन या साहित्य यश और सत्ता पाने का जरिया नहीं है। उसके लिए इतिहास कभी अपने समय को स्वेच्छाचारी ढंग से रंगने का साधन नहीं है। सिद्धांत कभी भी बौद्धिक विलासिता और राजनीति कभी भी अपनी तरक्की की सीढ़ी नहीं है। ऐसे बुद्धिजीवियों के बिना हिंदुत्ववाद और सर्वव्यापी धार्मिक कूपमंडूकता की चुनौतियों से निबटना संभव नहीं है।

शायद इसके लिए आत्मनिरीक्षण, अपने को सुधारना और अपनी ही मूर्ति को तोड़कर बाहर आना जरूरी लगे!

---शंभुनाथ

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