मनीष सिंह
सेंटर सिंग और स्टेट सिंग दो भाई थे। अपना अपना काम धंधा करते थे। बड़ा सेंटर सिंग, एक्साइज, कस्टम आदि का काम करता था। छोटे का वैट का काम था। दोनो ही दिन के पचास-पचास रुपये कमा लेते थे। ठीक ठाक जी खा रहे थे।
एक दिन सेंटर सिंग, स्टेट सिंग के पास आया। बोला- देख भाई, अपन अलग अलग धन्धे करते हैं। कस्टमर कन्फ्यूज रहता है। अपन दोनो के धंधे मिला देते हैं। दोनो भाई मिलकर जीएसटी धंधा करेंगे।
छोटे ने पूछा- भैया, इससे फायदा क्या होगा? बड़े ने जेब मे हाथ डाला, और लम्बा केलकुलेशन दिखाया। पाई चार्ट, बार चार्ट, जोड़ घटाव, गुणा, भाग, इंटीग्रल, डिफरेंशियल... लम्बे चौड़े हिसाब का लब्बोलुआब ये, की कम्बाईन धंधा, दिन के डेढ़ सौ का होगा। प्रस्ताव था कि दोनो भाई पचहत्तर पचहत्तर रुपये बांट लेंगे।
छोटे को बात चोखी लगी। दोनो ने धंधा मिला लिया। खाता कम्बाईन हो गया। समझौता ये था कि सेंटर सिंग, धन्धे सारा पैसा एक खाते में लेता और अपने 75 रखकर बाकी के 75 रुपये स्टेट सिंग को दे देता।
मगर धंधा शुरू हुआ, तो नोटबन्दी लग चुकी थी। रोज का धंधा डेढ़ सौ के बजाय नब्बे रुपये का ही होता। सेंटर सिंग समझौते के अनुसार अपने 75 रुपये रखं लेता, बाकी के 15 रुपये स्टेट सिंग को दे देता। बचत आगे पैसे आने पर भुगतान करने का वादा करता।
दो साल के भीतर स्टेट सिंग के घर के बर्तन भांडे बिक गए। वो तो किस्मत थी कि पेट्रोल डीजल वैट नाम का धंधा समझौते से अलग था, सो दाल रोटी चलती रही। मगर माली हालत खराब होती गई।
इधर हर शादी-ब्याह-जमावड़े पर सेंटर सिंह सबको बताता की स्टेट सिंग के मिसमैनेजमेंट के कारण उसकी हालत बिगड़ गई है। हाल ये हैं कि स्टेट सिंग के बच्चे घर छोड़कर जा रहे हैं, और बीवी पति बदलने पर गम्भीर विचार कर रही है।
वक्त है पछताव का। आइये, करें!