शशी शेखर
आज मैं ये पूरे विश्वास के साथ कह पा रहा हूं कि अपार बहुमत वाली मौजूदा सरकार इतिहास में एक निष्प्रभावी सरकार के तौर पर याद रखी जाएगी. एक ऐसी सरकार, जो कॉस्मेटिक सर्जरी, मीडिया प्रोपेगेंडा के जरिए 5 साल तक लोगों को विकास का सपना दिखाती रही. एक ऐसी सरकार, जिसने बहुत सारे मामूली स्कीम्स की शानदार पैकेजिंग की. एक ऐसी सरकार, जिसने मुद्दों को संबोधित करने की जगह हर बार मुद्दों को बदलना जरूरी समझा. कुल मिला कर, ये निष्कर्ष भी निकलता है कि अपार संभावनाओं वाले काम करने के लिए अपार बहुमत की सरकार आवश्यक हो, ये कतई जरूरी नहीं है. बल्कि यह कई बार बैक फायर कर चुकी है, इस बार भी बैक फायर कर रही है.
मसलन, जब केन्द्र सरकार के मंत्री, एक मुख्यमंत्री और तमाम नेता नाम परिवर्तन योजना के अग्रदूत बन जाए तो ये मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि मौजूदा केन्द्र सरकार के पास काम करने के लिए न तो विजन बचा है न ताकत. आप अपनी सीमा को पार कर चुके है. आपकी यही सीमा थी. गैस चूल्हा बांटने की, शौचालय बांटने की, बैंक एकाउंट खुलवाने की. ऐसे काम, जो एक साधारण सा जीओ जारी कर के आसानी से करवाया जा सकता था. लेकिन आपने इसी काम में अपनी सारी ऊर्जा लगा दी. हालांकि, आपने इसकी बेहतर पैकेजिंग की. इसका आगे क्या फायद होगा, देखते है.
एक कहावत है कि जिस दुकानदार के पास काम नहीं होता वो एक कोठी का धान दूसरे कोठी में अदल-बदल कर अपना समय व्यतीत करता रहता है. मौजूदा सरकार की भी यही स्थिति है. विकास के मोर्चे पर ढाई साल पहले ही फेल हो चुकी सरकार जब भ्रष्टाचार के मोर्चे पर, आर्थिक लूट के मोर्चे पर धीरे-धीरे एक्सपोज होने लगी तो इनके पास मुद्दों को बदलने के सिवाए कोई उपाय ही नहीं बचा.
राफेल पर जब फ्रांस की मीडिया में खुलासे हो रहे है, तकरीबन ये साफ होता जा रहा है कि केन्द्र सरकार के दखल पर ही अंबानी को पार्टनर बनाया गया और सरकारी कंपनी एचएएल को दरकिनार किया गया, तब केन्द्र सरकार के मंत्री बख्तियारपुर का नाम बदलने की मांग कर रहा है. तब एक मुख्यमंत्री इलाहाबाद का नाम प्रयागराज कर रहा है. तब देश का मीडिया सबरीमाला मुद्दे से पटा हुआ है. सीधी सी बात थी. सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ गया तो उसे लागू करवाने की जिम्मेवारी राज्य सरकार की थी. अगर राज्य सरकार इसमें असफल रही तो केन्द्र सरकार को इस पर रिपोर्ट तलब करनी चाहिए थी. आखिरकार, न्न्यायपालिका और संविधान की अक्षुणता का सवाल था. मन्दिर में प्रवेश को ले कर पिछले दिनों केरल में जो कुछ हुआ उससे क्या सन्देश निकलता है? पहली बात तो ये कि इस सबसे भाजपा को राजनीतिक फायदा मिलेगा. दूसरा ये कि आने दो राम मन्दिर पर फैसला, देख लेंगे.
तो ठीक है. इतिहास के पन्ने भी इंतजार कर रहे है, जिस दिन ये लिखा जाएगा कि अपार बहुमत वाली सरकार के कार्यकाल में जब हजारों करोड रुपये लूटने वाले उद्योगपति एक-एक कर के देश से भाग रहे थे, तब सीबीआई के अफसरान आपस में ही नूराकुश्ती कर रहे थे और अभूतपूर्व, अवतारी महापुरुष खामोश थे. इतिहास में ये भी लिखा जाएगा कि एनडीए में इस्तीफे नहीं होते का दंभ पालने वाली सरकार के मंत्री को भी इस्तीफा देना पडा था, लेकिन प्रधानमंत्री खामोश रहे. देश की आर्थिक स्थिति चरमराती जा रही थी, टॉप निजी बैंक की चेयरपर्सन के खिलाफ मुकदमे हो रहे थे, टॉप सार्वजनिक बैंक की चेयरपर्सन रिटायरमेंट के बाद अंबानी की कोर्निश बजा रही थी, बैंकों का मुनाफा लगातार घट रहा था, एनबीएफसी अभूतपूर्व वित्तीय संकट में थे, लेकिन प्रधानमंत्री खामोश थे.
इतिहास में ये भी दर्ज होगा कि प्रधानमंत्री की खामोशी, खामोशी नहीं थी. सहमति थी. उन मंत्रियों की बचकानी बयानबाजी पर, जो नाम बदलने को मोदी सरकार का सिग्नेचर स्कीम बना चुके थे. ये सहमति थी उन अराजक तत्वों के कृत्य को ले कर जो देश में मन्दिर निर्माण को सनातन स्वाभिमान से जोड कर अयोध्या तक कूच कर रहे थे. उनकी सहमति गुजरात के उन लंपटों से भी थी, जो बिहारियों पर हमले कर रहे थे. उनकी सहमति उन उद्योगों से भी थी, जो गंगा को बर्बाद करते रहे और उसी गंगा को बचाने के लिए प्रोफेसर जीडी अग्रवाल ने अपना बलिदान दे दिया.
इतिहास क्रूर होता है. निर्मम होता है. भले इतिहास विजेता लिखता हो. इतिहास के कुछ पन्ने इतिहास खुद भी लिखता है, जिस पर चक्रवर्ती सम्राटों का भी प्रभाव नहीं होता. डरिए इतिहास के उस पन्ने से. ये डर ही लोकतंत्र में एक शासक को उत्कृष्ट बनाता है. अन्यथा...क्या मनमोहन, क्या मोदी. हिसाब तो पाई-पाई का देना होगा.
(शशी शेखर वरिष्ठ पत्रकार हैं)