संघ, भाजपा के अन्तर्विरोध उभरने लगे

Update: 2022-01-31 14:24 GMT

शकील अख्तर

हर चीज का एक समय होता है। सिवाय सत्य के। जो समयातीत, कालातीत होता है। सत्य मेव जयते। इसीलिए हमारे संविधान का, शासन का ध्येय वाक्य सत्य ही है। और उसकी सदैव जय की कामना है।

2014 में जब यूपीए की सरकार गई तो इसमें कुछ खास बात नहीं थी। सरकार स्थिर हो गई थी। ठहर गई थी। उर्जाहीन, उत्साहहीन सी घिसट रही थी। लेकिन खास बात यह थी कि उस निराश सरकार को भी झूठ के सहारे गिराया गया। 2011 में एक अन्ना हजारे को ढूंढ कर लाया गया। एक लोकपाल नाम का शब्द गढ़ा गया। हताश सरकार में ही मौजूद सीएजी विनोद राय से 2 जी पर झूठ बुलवाया गया। बाद में विनोद राय ने कोर्ट में हलफनामा देकर माफी भी मांग ली। मगर वह खबर कहीं नहीं चली। और आज भी कम लोगों को मालूम है। झूठ और अफवाहें फैलाने वाला मीडिया उनके साथ था ही।

इसे 1977 से आडवानी ने तैयार कर के रखा था और वह भाजपा और संघ की सेवा में हमेशा तत्पर खड़ा रहता था। 1977 में सूचना प्रसारण मंत्री बनने के साथ लालकृष्ण आडवानी ने दूरदर्शन, रेडियो और अखबारों में अपने लोगों को भरना शुरू किया। जो बाद में लगातार और बढ़ता चला गया। कांग्रेस ने इसे रोकने के बदले उनके लोगों को ही और आगे बढ़ाया। 77 से पहले पत्रकारिता में आम जनता की आवाज उठाने वाले पत्रकार हुआ करते थे। उस दौर में माना जाता था कि अख़बार का काम जनता की बात सरकार तक पहुंचाना है। आज यह माना जाता है कि जनता की आवाज दबाना या उसे भावनात्मक मुद्दों, हिन्दू मुसलमान में डाइवर्ट करना मीडिया का काम है।

खैर तो उस दौर में पत्रकारों को जनता की आवाज इसलिए भी उठाना पड़ती थी कि अगर वह नहीं उठाएंगे तो चाणक्य नाम का लेखक और पत्रकार जनता के सवाल उठाएगा। ये चाणक्य सीधा प्रधानमंत्री नेहरू पर हमला कर देता था। कौन था यह चाणक्य? यह नेहरू ही थे। जो चाणक्य के पेन नेम (दूसरे नाम) से अपनी ही आलोचना करते थे। चाणक्य मार्डन रिव्यू में एक लेख में आगाह करते हैं कि ये लोकतंत्र की बातें करते हुए तानाशाह बनने का भी खतरा होता है। नेहरू का उदाहरण देते हए चाणक्य कहते हैं कि अति लोकप्रियता खतरनाक भी हो सकती है।

तो उस दौर में पत्रकारों के पास गोदी मीडिया बनने का आप्शन नहीं था। गोदी में बिठाने वाला ही खुद अपने ही खिलाफ सवाल कर रहा था। यह कहावत शायद कुछ सच्ची है कि यथा राजा तथा प्रजा। नेहरू के आत्मप्रशंसा से बचने और खुद के आलोचक बने रहने का प्रभाव उस दौर की प्रेस ( तब मीडिया नहीं प्रेस ही कहा जाता था) पर पड़ा। एक तो उसके पास आजादी के आंदोलन की भाईचारे, सबको साथ लेकर चलने की परंपरा थी दूसरे जनसंघर्ष की सफलता से मिला हौसला। पत्रकार धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील और जनता की तरफ झुका हुआ था। पत्रकारिता के उस चरित्र को आडवानी ने बदल दिया। आज का मीडिया खुद गवाह है। प्रत्यक्षं किम प्रमाणम। कोई उदाहरण देने की जरूरत ही नहीं है।

तो झूठा नरेटिव (कहानी) बनाकर एक खुद ही इच्छाशक्तिविहीन सरकार को गिराया गया। निर्माण में ही असत्य का गारा मिला हुआ था। तो इस झूठ का समय समाप्त होना निश्चित था। सेल्फ कन्ट्राडिक्शन (अन्तरविरोध) सामने आना ही थे। अगर आप सच नहीं हैं केवल सच का आवरण डाल रखा है तो वह उघड़ेगा। बात हिन्दू मुसलमान की करते थे। जो नफरत की उपज थी। लेकिन यह नफरत कहीं एक जगह तो रुकती नहीं है। एक के खिलाफ पैदा करते हो तो दूसरे तक भी जाएगी। नफरत की आग की यही तासीर है। लगाना आसान है, मगर संभालना असंभव।

एक साधारण सा सवाल पूछा था मगर यूपी के मुख्यमंत्री योगी के अंदर का ठाकुर सामने आ गया। जिन्ना, अब्बाजान, कब्रिस्तान सब भूल कर क्षत्रिय होने पर अभिमान करने लगे। कहने लगे राजपूत हूं। और सब भगवानों ने भी क्षत्रिय कुल में जन्म लिया है। जाति के अभिमान की बात करने लगे। पत्रकार ने बहुत संभल कर सवाल पूछा था। मगर अंदर की विभाजन की मानसिकता सामने आ गई। पत्रकार जैसे सवाल रोज राहुल या प्रियंका से पूछते हैं ऐसा एक सवाल भी प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह या योगी से पूछ लिया जाए तो यह बुरी तरह एक्सपोज हो जाएंगे। इनसे बहुत ही दोस्ताना सवाल पूछे जाते हैं। मगर उसमें भी खुद पर जाति पर अहंकार सामने आ ही जाता है। यह जातीय गर्व वहां यादव नहीं दिखा सकता। और कोई पिछड़ा या दलित नहीं कह सकता। यहां तक कि ब्राह्मण भी नहीं।

अभी भाजपा के मंत्री जितिन प्रसाद ने ही ब्रह्म हत्या का आंकड़े बांटे थे। ब्राह्मणों के दमन के खिलाफ राज्य में आंदोलन शुरू किया था। मगर जब मंत्री बना दिया तो सब भूल गए। लेकिन भाजपा के पहले से मंत्री, विधायक और सांसद नहीं भूले। चुनावों में उन्हें ही अपने समाज का सामना करना था।

भाजपा के कई बड़े नेताओं से मीटिंग हुई। एक कमेटी भी बनाना पड़ी। मगर उसकी रिपोर्ट आई नहीं इससे पहले मुख्यमंत्री ने कह दिया कि ठाकुरवादी कहने पर उन्हें कोई परेशानी नहीं है। उन्हें अपने क्षत्रिय होने पर गर्व है। ब्राह्मण इसे खुद पर सीधी चोट मान रहे हैं। अखिलेश यादव भी मुख्यमंत्री के इस जातिवादी कथन पर व्यंग्य कर रहे हैं। लेकिन खुद भाजपा के अंदर इससे सबसे ज्यादा बैचेनी है। पहले से नाराज ब्राह्मणों पर इसका क्या असर होगा यह उसकी मुख्य चिंता है। दोस्ताना पत्रकार का सवाल ही इस बारे में इशारा था कि एक जाति के प्रभुत्व के आरोप हर जगह लग रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो प्रिंट की पत्रकार यह सवाल पूछती ही नहीं। वहां कांग्रेस की तरह हर किसी को इंटरव्यू करने का मौका नहीं दिया जाता।

बहरहाल यह जो विभाजन की राजनीति शुरू की गई है इसका असर एक जगह नहीं समान विचारधारा के सभी स्थानों पर पड़ रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल पंजाब में वैश्य समाज के बीच कह रहे हैं कि में भी बनिया हूं। लेकिन विडंबना यह है कि जाति का अभिमान बताने पर न योगी से कोई कुछ पूछ रहा है, न केजरीवाल से। जबकि राहुल गांधी खुद को भारतीय भी कहते हैं तो उनके पीछे पत्रकार ऐसे पड़ जाते हैं जैसे भारतीय कहना भी गुनाह हो।

राहुल इस समय पत्रकारों के सबसे ज्यादा निशाने पर हैं। सरकार और भाजपा के तो है हीं। पहले भी थे। मगर दूसरे कारण से। पहले उनका हौसला तोड़ने के लिए उपहास का केन्द्र बनाया जाता था। हल्के में लेने की बहुत कोशिश की। बड़ा चरित्रहनन अभियान चलाया। मगर राहुल अविचलित रहे। खुद अपने मुंह पर अपने बारे में घटिया शब्द, आरोप सुनकर भी उन्होंने संयम बनाए रखा। वह दौर खत्म हुआ। मगर अब राहुल का बढ़ता प्रभाव और खास तौर से उनकी दूरदर्शिता भाजपा, सरकार और मीडिया को परेशान करने लगी। पेगासस पर न्यूयार्क टाइम्स ने एक साल के रिसर्च के बाद वही लिखा जो राहुल पिछले साल जुलाई में कह चुके थे। जनता की आवाज सुनने, सच के करीब रहने की कोशिश करने और अपने विवेक को हमेशा जागृत रखने से आपको चीजें स्पष्टता के साथ दिखने लगती हैं। दूर तक की भी। ऐसे ही राहुल को नोटबंदी की विफलता, गिरती अर्थव्यवस्था, कोरोना का बढ़ता रूप, राफेल जहाज की खरीद में गड़बड़, कृषि कानूनों की वापसी, चीन की घुसपैठ सब पहले से ही समझ में आ रहे थे। और उन्होंने इन सब विषयों पर सरकार को पहले से ही आगाह किया था।

ऐसे ही बेरोजगारी के संकट पर युवा समस्याओं पर भी कहा था। मगर सरकार कहां सुनने वाली थी। नतीजा बिहार से लेकर यूपी तक छात्रों का आक्रोश और उनकी सुनने के बदले उसे दबाने के लिए सरकार की लाठियां। किसानों की तरह उल्टे उन्हीं पर आरोप। यही छात्र थे जिनके दम पर 1977, 1989 और अभी 2014 में सरकार बदली थीं।

तो झूठ कुछ समय के लिए ही चलता है। वह समय शायद आज यूपी के चुनाव में आ गया। अपने आप एक के बाद अन्तरविरोध उजागर हो रहे हैं। थूक लगाकर पर्चे बांटने से लेकर राजपूत अभिमान तक चीजें अपने आप सामने आई हैं। यह अंदर से कमजोर होने की निशानियां हैं। इन पर काबू पाने के लिए हो सकता है कि कुछ बड़ा किया जाए। मगर अब जनता के मूड में परिवर्तन देखकर लगता नहीं कि वह किसी जाल में फंसेगी।

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