नरेंद्र मोदी का पांच साल भारत के राजनीतिक स्पेस में वैचारिक भ्रष्टता का साल रहा है। धार्मिक और राष्ट्रवाद की बहसों का ऐसा निम्नस्तरीय पतन कभी नहीं हुआ जब देश का प्रधानमंत्री विपक्षी दल पर यह आरोप लगाए कि कांग्रेस हटाना चाहती है सेना का रक्षा कवच( दैनिक जागरण)। क्या कोई पार्टी सेना को हटा देगी? हमारे प्रधानमंत्री ने जानबूझ कर बहस के स्तर को विचार से गिरा कर कुतर्कों के ज़मीन पर ला दिया है। बर्बाद शिक्षा संस्थानों से निकली आबादी को न्यूज़ चैनलों के ज़रिए ज्ञान का पुलिंदा बनाकर पेश किया गया। उन्हें लगा कि वे पहली बार अर्थशास्त्र और इतिहास समझ रहे हैं। दुनिया भर के इतिहास में पब्लिक स्पेस में इन दो विषय़ों की ऐसी फर्ज़ी पढ़ाई कभी नहीं हुई थी।
लेकिन नरेंद्र मोदी के शासन काल को गर्वनेंस के पैमाने पर देखा जाना चाहिए। सारी बहस वैचारिक भ्रष्टता के मुद्दों तक ही सीमित रह जाती है। आर्थिक नीति विदेश नीति, कृषि नीति पर समीक्षा नहीं होती है। अंग्रेज़ी के पब्लिक स्पेस में होती है। मगर हिन्दी के अखबार और चैनल इसके नाम पर गोबर ही परोसते हैं। हिन्दी की जनता को व्यापक स्तर पर मूर्ख बनाने का अभियान चल रहा है ताकि वह आने वाले दिनों में प्रतिस्पर्धा के लायक न रहे, सिर्फ मोदी मोदी करे।
यूपीए के समय से ही अर्थशास्त्र के विषयों पर हिन्दी में लिखने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए था। उस वक्त इन नीतियों के कारण तेज़ी से हिन्दी का मध्यम वर्ग तैयार हुआ जो बिना किसी अपराध बोध और पारिवारिक बोझ के संपन्नता को भोगने लगा था। कमल नयन काबरा जी को छोड़ दें तो हिन्दी के लोक-जगत में अर्थशास्त्र पर कम ही लोगों ने वैकल्पिक समझ पैदा करने का निरंतर प्रयास किया। 2014 के बाद से मैंने खुद को इस क्षेत्र में झोंका। पहले भागता था मगर अब खुद जाने लगा। अंग्रेजी में पढ़ा औऱ जो भी पढ़ा अपने फेसबुक पेज पर हिन्दी के पाठकों के लिए साझा किया। भारत में ज्ञान की असमानता भयंकर है। अगर आप सिर्फ अपने लिए पढ़ते हैं, उसे दूसरों से साझा नहीं करते तो यह उस ज्ञान के साथ भी अन्याय है। पिछले साल राजकमल ने अमर्त्य सेन और ज़्या द्रेज़ की किताब का हिन्दी अनुवाद किया। इस साल हिन्दी में आर्थिक नीतियों की समीक्षा करने वाले एक बेहतरीन किताब आई है।
इस किताब में कई लोगों ने लिखा है। जिसे संपादित किया है, रोहित आज़ाद, शौविक चक्रवर्ती, श्रीनिवासन रमणी, दीपा सिन्हा ने। किताब का नाम है साथ से विकास तक, दावे या छलावे? प्रकाशक का नाम है ओरियंट ब्लैकस्वॉन। रोहित आज़ाद जे एन यू में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं। शौविक चक्रवर्ती मैसेचुसेट्स विश्वविद्यालय में रिसर्च कर रहे हैं। जो दुनिया की नामी संस्था है। श्रीनिवासन रमणी द हिन्दू में एसोसिएट एडिटर हैं। दीपा सिन्हा स्कूल ऑफ लिबरल स्टडी, अम्बेडकर विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। हर हिन्दी के पाठक के पास यह किताब होनी चाहिए। काबिल लोगों ने हिन्दी में लिखे जाने की ज़रूरत को अंजाम दिया है, इसके लिए सभी को बधाई।
प्रसेनजित बोस और ज़िको दासगुप्ता का भारतीय बैंकों की दुर्दशा पर अच्छा शोध परक लेख है। "2017-18 दुनिया के बैंक उद्योग के लिए एक अच्छा साल था। किन इसी साल भारतीय बैंकिंग सेक्टर में दशकों के बाद सबसे बुरा वित्तीय प्रदर्शन देखने में आया। " सबसे ज़्यादा नुकसान उठाने वाले दुनिया के 1000 बैंकों में से 48 फीसदी भारत से थे। सबसे बड़ा नुकसान उठाने वाले बैंक भी भारत से थे। अब एक हिन्दी का पाठक इस जानकारी को देखते ही उन प्रोपेगैंडा से टकराने लगता है जिसे न्यूज़ चैनलों ने उसके दिमाग़ में भूसे की तरह ठूंस दिया है कि नरेंद्र मोदी अर्थव्यवस्था के हीरो हैं। यह आंकड़ा हीरो को ज़ीरो बना देता है।
जनधन योजना के बारे में प्रसेनजित ने लिखा है कि भारत में इस योजना के कारण 34 करोड़ खाता धारक तो हो गए मगर इसी दौरान भारत में निष्क्रिय खातों का हिस्सा 48 प्रतिशत हो गया जो दुनिया में सबसे अधिक है। खाता खुल गया मगर आर्थिक स्थिति में सुधार होता तो खाते में पैसा भी जाता। ये ऐसे खाते हैं जिनमें पिछले एक साल से एक पैसा जमा नहीं हुआ है। कुछ संसोधन के बाद यह आंकड़ा 38.5 प्रतिशत हो गया है।
अरिंदम बनर्जी और ईशान आनंद के चैप्टर में कृषि व्यापार नीति का विश्लेषण है। भारत सरकार ने लक्ष्य रखा था कि 2022 तक कृषि निर्यात को 60 अरब डॉलर तक ले जाएंगे। मगर अगस्त 2018 में सरकार ने सभी बंदरगाहों से जीवित मवेशियों के निर्यात पर रोक लगा दी। यह पाबंदी मवेशीपालन व्यवसाय के लिए धक्का था, जिसने निर्यात के लिहाज से हाल के वर्षों में अच्छा प्रदर्शन किया था। मोदी सरकार की अनियमित व्यापार नीति का किसानों के हितों पर प्रतिकूल असर पड़ा। मिसाल के लिए देश में हो रहे भारी उत्पादन के बाद भी सरकार ने 2016-17 में दालों का शुल्क मुक्त आयात जारी रखा। जिसके नतीजे में कीमतें लुढ़क गईं। शुरूआती वर्षों में आलू और प्याज़ के निर्यात पर प्रतिबंध से भारत के किसान अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में ऊंची कीमतों का लाभ नहीं उठा सके। यानी साफ है कि मोदी सरकार की नीतियों ने 5 सालों में किसानों को ग़रीब किया है। कृषि के क्षेत्र में वास्तविक मज़दूरी घटी है। आमदनी घट गई है।
इन युवा अर्थशास्त्रियों के लेख को पढ़ते हुए हर जगह आंकड़ों के अभाव का ज़िक्र दिखता है। ज़ाहिर है सरकार ने आंकड़ों को पब्लिक की पहुंच से रोका है। यह इसलिए कि वह अपना कुछ भी दावा कर ले और उसका काउंटर नहीं हो सके। इस किताब में हैपीमोन जैकब ने विदेश नीति और सुरक्षा नीति की समीक्षा की है। हैपीमोन ने लिखा है कि मोदी सरकार का राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधन औसत है। इस लाइन को पढ़ते ही कुछ खटकता है। दिमाग़ पर प्रोपेगैंडा हावी है और एक प्रोफेसर उसे औसत कह देता है। न्यूज़ चैनलों की महीनों की मेहनत को हैपीमोन बर्बाद कर देते हैं। हैपीमोन की किताब line on fire भारत पाकिस्तान के बीच सैन्य तनावों को समझने के लिए बेहतरीन किताब है। आक्सफोर्ड ने छापी है लेकिन है महंगी। 995 रुपये की।
बहरहाल इस किताब में हैपीमोन का अच्छा लेख है जिसकी चर्चा हिन्दी जगत में होनी चाहिए थी। बिहार यूपी के जनता को सांप्रदायिक बनाने के लिए कुछ अच्छी चीजें दी गईं। इनमें से विदेश नीति की तथाकथित कामयाबी मधु की तरह थी ताकि कुछ मीठा भी लगे। मगर हैपीमोन ने नेपाल यात्रा के बारे में याद दिलाते हुए जो लिखा है उसके बारे में सोचा जाना चाहिए, पढ़ना चाहिए।
"प्रधानमंत्री मोदी की आधिकारिक विदेश यात्राएं हिन्दू धार्मिक प्रतीकों से ओत-प्रोत रहती हैं। 2014 में वे अपनी पहली यात्रा पर नेपाल गए। भगवा पोशाक पहले हुए, रुद्राक्ष की माला के साथ औऱ माथे पर चंदन का टीका लगाए हुए मोदी की पशुपतिनाथ मंदिर की यात्रा प्रधानमंत्री पद से भले न मेल खाती हो, भव्य ज़रूर थी। लेकिन सघ परिवार के पुराने सपने के मुताबिक भारत-नेपाल संबंधों को धार्मिक हिन्दू रंग देने की कोशिश पर बाद की घटनाओं ने पानी फेर दिया।
ऐसा ही एक मिसाल यह भी है कि सरकार विदेशों में प्रवासी भारतीयों के साथ मुनासिब तरीके से मेल-जोल करने से भी आगे बढ कर, विदेशों में बड़े जोर-शोर से हिन्दुत्व, संघ समूहों को प्रोत्साहित कर रही है। अपने वैचारिक उद्देश्यों को पूरा करने की इस कवायद को बड़ी ही होशियारी से विदेश नीति की तड़क-भड़क के साथ पेश किया जाता है। "
नरेंद्र मोदी अमरीका गए थे। वहां मेडिसन स्कावयर पर भारतीयों को बुलाकर मजमा जमाया। भारत के हिन्दी चैनलों ने गांव-गांव में अफवाह फैलाया कि भारत का दुनिया में नाम हो गया। अपने लोगों के बीच घूमने और भाषण देने को विदेश नीति कहा गया जबकि नरेंद्र मोदी घरेलु दर्शकों के लिए राजनीति कर रहे थे। उस यात्रा के दौरान अमरीका के मुख्य अखबारों में कवरेज देखिए। बहुत ही मामूली ज़िक्र मिलेगा। वो ज़िक्र इसलिए नहीं है क्योंकि मोदी वहां विदेश नीति को रूप देने के लिए नहीं बल्कि अमरीका में रहने वाले भारतीयों को बुलाकर भारत में रहने वाले भारतीयों को दिखा रहे थे कि वे लोकप्रिय हैं। यही काम उन्होंने आस्ट्रेलिया में किया और बाकी जगहों पर। तो वहां की प्रेस क्यों दिलचस्पी लेती। आज अमरीका के साथ इनकी विदेश नीति कहां गई जब यह ख़बर आई है कि ट्रंप की वीज़ा नीति के कारण 3 लाख भारतीय इंजीनियर को स्वदेश आना पड़ेगा।
हिन्दी के पाठकों के पास यह किताब होनी चाहिए। ताकि आप पहले हिन्दी में पढ़े। इससे एक बुनियादी समझ बनेगी और आप खुद भी अंग्रेज़ी की किताबों को पढ़ने में सक्षम होंगे। ये सारी चीज़ें हिन्दी में नहीं मिलेंगी। आप ज़रूर पढ़ें। बधाई सभी लेखकों को जिन्होंने हिन्दी में इन जटिल बातों को पेश किया है। अपनी बात हवा में नहीं कही है। बल्कि कौन सी बात कहां से ली गई है इसका सोर्स बताया गया है। तो आप भी चेक कर सकते हैं कि इनकी बात कितनी सही है। 2019 के चुनाव को मोदी जीताओ या हराओ में मत बदलिए। पढ़िए। हिन्दी जगत में सूचनाओं और समझ से लैस एक अच्छा पाठक, नागरिक और मतदाता तैयार कीजिए। उसके बाद जो भी संकट है, आराम से निपट लिया जाएगा।
इस किताब के बारे में सूचना गली गली में पहुंचा दें। आपने देखा होगा कि शादी करने और दहेज में मिक्सी कार लेने के बाद 90 फीसदी घरों के मुखिया पढ़ते नहीं हैं। मगर हांकते इतना है कि मोदी से ही बात कर घर लौटे हों। ऐसी किताबों उन पाठकों के लिए भी खरीदें। कहें कि पढ़िए। अपने पिताजी लोगों से एक सवाल कीजिए। आप तो हमें पढ़ो पढ़ो बोलते हैं, आपको तो बीस साल से एक किताब पढ़ते नहीं देखा। आप क्यों नहीं पढ़ते हैं। आपका यह सवाल देश भले न बदले, आपका घर बदल देगा। जय हिन्द।