आज दुनिया में सर्वत्र वन्यजीवों की दिनोंदिन तेजी से गिरती तादाद से वन्यजीव वैज्ञानिक, वन्यजीव प्रेमी और पर्यावरणविद खासे चिंतित हैं। वह बरसों से वन्यजीवों की विभिन्न प्रजातियों की तेजी से गिरती तादाद के चलते पारिस्थितिकी तंत्र में हो रहे असंतुलन के बारे में चेतावनियां दे रहे हैं, सरकारों को चेता रहे हैं। लेकिन दुख इस बात का है कि इस ओर सरकारों की उदासीनता के कारण वन्यजीवों पर संकट और गहराता चला गया है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। इसका जीता जागता सबूत है बीते दिनों जर्नल साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन। इसमें कहा गया है कि मौजूदा हालात को मद्देनजर रखते हुए जंगली जीवों की सुरक्षा को रफ्तार देने वाले ठोस कदम उठाने में नीति-निर्माताओं को दो दशक से भी अधिक समय लग सकता है।
हालात की गंभीरता इस तथ्य को प्रमाणित करती है। अध्ययनकर्ता शिकागो यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर ईयाल फ्रैंक के अनुसार वन्यजीवों की कुछ प्रजातियां आने वाले कुछेक सालों में विलुप्त होने वाली हैं जबकि सैकड़ों विलुप्त हो चुकी हैं। शोधकर्ता ईयान फ्रैंक ने 'इंटरनेशनल यूनियन फॉर दि कंर्जवेशन ऑफ नेचर' की विलुप्तप्रायः रेडलिस्ट में उल्लेखित 958 प्रजातियों का विश्लेषण करने के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला है। इसमें दो राय नहीं कि वन्यजीवों की दिनोंदिन घटती तादाद में आये-दिन वन्यजीवों की हत्याएं अहम भूमिका निबाह रही हैं। देश का कोई ऐसा इलाका नहीं है जहां आये-दिन मानव आबादी में वन्यजीवों के प्रवेश के कारण उनकी हत्याएं न की जाती हों।
दरअसल विकास की अंधी दौड़ के चलते अपने आश्रय स्थल जंगलों के खात्मे और भोजन के अभाव में वन्यजीवों के मानव आबादी में घुसने और उसके परिणामस्वरूप उनकी हत्या किए जाने की घटनाएं अब आम हो गई हैं। सच तो यह भी है कि बहुतेरी घटनाएं तो अक्सर प्रकाश में आ ही नहीं पाती हैं। कोई साल ऐसा जाता हो जब अभयारण्यों और संरक्षित पार्कों में रेललाइनों पर रेल के टकराने से हाथी, गुलदार, बाघ आदि वन्यजीव मौत के मुंह में न जाते हों। इस बाबत बरसों से अभयारण्यों-संरक्षित पार्कों से रेल लाइनें हटाने की मांग की जा रही है, लेकिन इस मामले में सरकार का मौन समझ से परे है।
जहां तक नागरिकों द्वारा वन्यजीवों को मारे जाने का सवाल है, जाहिर है ऐसी घटनाएं जनमानस के असुरक्षा बोध की जीती-जागती मिसाल हैं। वह इससे भयग्रस्त हैं कि जंगल से मानव आबादी में आकर जंगली जानवर उनके जीवन को असुरक्षित बना रहे हैं। लेकिन काजीरंगा आदि पार्कों में हर साल बाढ़ से गैंडों, हाथियों और अन्य वन्यजीवों की बहने से होने वाली मौतों की घटनाएं अधिकारियों की उदासीनता का परिचायक हैं। दुख इस बात का है कि इसे देखने का सरकार और प्रशासन के पास समय ही नहीं है। आज देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है जहां से आये-दिन ऐसी खबरें न आती हों। अब तो सरकार और प्रशासन के रवैये को देखते हुए इस पर फिलहाल अंकुश की बात बेमानी सी प्रतीत होती है।
यदि वैश्विक स्तर पर नजर दौड़ाएं तो पाते हैं कि करोड़ों साल से अपनी गोद में जीव-जंतुओं को जीवन देती आयी धरती की क्षमता अब चुकती चली जा रही है। मानवीय गतिविधियों का दवाब, अंधाधुंध उपभोग की बढ़ती प्रवृत्ति और बेतहाशा बढ़ती आबादी की अंधी रफ्तार से धरती जहां सहने की शक्ति खो चुकी है, वहीं बहुतेरे जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ चुका है तो कई प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं और सैकड़ों-हजारों की तादाद में विलुप्ति के कगार पर हैं। डब्ल्यू डब्ल्यू एफ की '' लिविंग प्लानेट'' नामक रिपोर्ट की मानें तो धरती पर उसकी क्षमता से ज्यादा बोझ है। यह बोझ इतनी तेजी से बढ़ता चला जा रहा है कि साल 2030 तक हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए धरती जैसे एक ग्रह की और जरूरत पड़ेगी।
इससे आगे के 20 सालों बाद यानी 2050 तक धरती के अलावा दो और ग्रहों की जरूरत होगी। यह जरूरत जीवन स्तर में सुधार के साथ दिनोंदिन बढ़ती ही चली जायेगी। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फाउण्डेशन और लंदन के अजायबधर की रिपोर्ट के अनुसार 1970 के बाद के बीते इन सालों में जीवों की संख्या में तकरीब 30 फीसदी से भी अधिक की कमी आई है। जीवों की बाघ सहित करीब 2500 से भी ज्यादा प्रजातियां संकट में हैं। क्षेत्रवार आंकलन के बाद पता चलता है कि जीवों की संख्या में यह गिरावट और तेज नजर आयेगी। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जीवों की संख्या में 60 फीसदी तक कमी दर्ज की गई है। यह बेहद चिंतनीय है।
वन्यजीवों का शहरी आबादी की ओर आने, उनपर बढ़ते जानलेवा हमले की तेजी से सामने आने वाली घटनाएं और उनकी दिनोंदिन तेजी से घटती तादाद का सबसे बड़ा कारण इंसान है जो अपने स्वार्थ की खातिर इनका शिकार तो करता ही है, बल्कि इनके आवासीय इलाके पर भी उसने कब्जा करना शुरू कर दिया है। इसके अलावा अवैध खनन के चलते सैकड़ों-हजारों एकड़ क्षेत्र में ज्रगल उजाड़ हो रहे हैं। खनन की मशीनों की धड़धडाहट के चलते वन्यजीवों का जीना दूभर हो गया है। विकास के नशे में मदहोश सरकारों द्वारा औद्योगिक प्रतिष्ठानों, कल-कारखानों, बांधों, पन-बिजली परियोजनाओं, रेल एवं सड़क आदि निर्माण की खातिर दी गई मंजूरी के चलते किए जाने वाले खनन ने इसमें अहम् भूमिका निबाही है।
इसके साथ-साथ अधिकारियों-ठेकदारों और खनन माफिया की मिलीभगत से अवैध खनन को और बढ़ावा मिला है। इससे एक ओर वन्यजीवों के आवास की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया, वहीं दूसरी ओर हरियाली खत्म होने से मांसाहारी वन्यजीवों के शिकार की समस्या भी भयावह हुई, नतीजन आहार हेतु उन्हें मजबूरन मानव आबादी की ओर जाना पड़ता है। मानव वन्यजीव संघर्ष, मनुष्यों, उनके बच्चों और उनके मवेशियों पर इनके बढ़ते हमले इसके जीते-जागते सबूत हैं। भारतीय वन्य जीव संस्थान के परियोजना निदेशक डा. सथ्य कुमार की मानें तो बढ़ता शहरीकरण, कूड़ा, कुत्तों की बढ़ती तादाद और मांस की दुकानों में बढ़ोतरी आसानी से वन्यजीवों को आबादी क्षेत्र में ले आती है।
राष्ट्र्ीय हिमालयी अध्ययन मिशन के अनुसार बीते सालों में वन्यजीवों के हमलों में काफी इजाफा हुआ है। इसका सबसे बड़ा कारण है जलवायु परिवर्तन, मानव का जंगलों में बढता हस्तक्षेप, उनके आवास और भोजन में कमी और उनन्के घनत्व में परिवर्तन आदि कारकों ने वन्यजीव और मानव के बीच के संघर्ष को तेज कर दिया है। नतीजतन जहां वन्यजीवों की हत्याएं हो रही हैं, वहीं लोग इनके हमलों में अनचाहे मौत के मुॅंह में जा रहे हैं, किसानों ने खेती करना छोड़ दिया है और कई जगहों से लोगों ने पलायन करना शुरू कर दिया है।
यह तो अब जगजाहिर है कि जलवायु परिवर्तन के चलते जहां जंगलों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं, वहीं जंगलों पर आए खतरे के चलते वन्यजीवों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडरा रहा है। जबकि यह पारिस्थितिक तंत्र के संतुलन में अहम् भूमिका का निर्वहन करते हैं। जहां तक हमारे देश का सवाल है आशंका जतायी जा रही है कि आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव हिमालयी क्षेत्र के जंगलों पर पडेगा। अधिकाधिक कटाई से जंगलों का अस्तित्व पहले से ही खतरे में है, मवेशियों द्वारा चराई से वे वैसे ही तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन से देश के 45 फीसदी जंगल और प्रभावित होंगे।
नतीजन वन्यजीवों का जीना और दुश्वार हो जायेगा। स्वाभाविक है इन हालातों में वह मानव आबादी की ओर अपना रुख करेंगे ही और अंततोगत्वा उस दशा में वे मनुष्यों, मवेशियों पर हमले करेंगे या फिर हरियाणा के सोहना इलाके के मंडावर गांव में हुई जैसी वारदात के शिकार होकर मारे जायेंगे। यह समूचे देश की समस्या है। इस पर देश के कर्णधारों को सोचना होगा और ऐसे मसलों के सामने आने पर प्रशासन को संवेदनशीलता का परिचय देना होगा। केवल वन्यजीवों की सुरक्षा हेतु बनी योजनाओं के ढिंढोरा पीटने से कुछ नहीं होनें वाला। जनमानस का वन्यजीवों के प्रति सोच में बदलाव की भी बेहद जरूरत है। अन्यथा वन्यजीवों के अस्त होते सूर्य को बचाना बहुत मुश्किल हो जायेगा।