मनमोहन और यशवंत दो पहिये हैं जिन् पर दौड़कर भारत ने दुनिया बनाई पहचान, लेकिन सेहरा बंधवाना सबकी किस्मत में नही
सेहरा बंधवाना सबकी किस्मत में नही होता। वो इंसान माथे पर लिखवा कर आता है। किस्मत मनमोहन सिंह को इतिहास में स्थान देना तय कर चुकी थी। विश्वनाथ प्रताप सिंह की अभिशप्त सरकार से भारत को 10 नवम्बर 1990 को छुटकारा मिला, चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री हुए। राजीव के अंतिम बरसो में भारत देश जो 8 और 10 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा था, चंद्रशेखर के कमान संभालते तक सोना गिरवी रखने की अवस्था आ चुकी थी।
भयंकर फक्कड़ देश को राजीव ने कर्ज लो और विकास करो की नीति से बढ़ाया था। कर्ज दोधारी तलवार होता है। इसका प्रबंधन, प्रबन्धक किस्म के जीव कर सकते हैं, बतोलेबाजी के एक्सपर्ट नहीं। वीपी पॉलिटिक्स के एक्सपर्ट थे। प्रबंधन के मोर्चे पर उनके आंकड़े खुद बोलते हैं। खैर..
चन्द्रशेखर को सरकार संभालते ही खाली खजाना और मुंह बाई किश्ते मिली। उनके वित्त (राज्य)मंत्री थे यशवंत सिन्हा। दुनिया देखा हुआ आदमी, फॉर्मर ब्यूरोक्रेट, थिंकर, निडर, अक्खड़ जीव। तुरन्त का चना चबैना सोना गिरवी रख के आया। आगे के लिए कुछ कर्ज आईएमएफ से लिया, कड़ी शर्तो पर।
भारत मे बजट बनाने की प्रकिया छै माह पहले शुरू हो जाती है। सो नवम्बर में सरकार बनते ही वित्त मंत्री को तुरन्त काम शुरू करना था। यशवंत ने कमान सम्भाली, कई प्रस्ताव शामिल किए जिसमे इकॉनमी को खोलना, लाइसेंस कोटा पॉलिसी घटाना, विदेशी पूंजी के लिए बाजार खोलना प्रमुख थे।
तालाब को समुद्र से जोड़ने के नतीजे क्या हो सकते हैं। समुद्री मगरमच्छ तालाब की मछलियों को खा जाएंगे, या तालाब की मछलियां अब सारे समुद्र में डंका बजाएँगी? लिब्रेलाइजेशन क्या दिशा लेगा, इस भविष्य को कौन जानता है। लेकिन कांग्रेस की टेक पर बैठी सूक्ष्ममत सरकार का ये वित्तमंत्री, अपने बजट प्रस्तावों में भारत की जनता पर वो कॉन्फिडेंस दिखा रहा था, जो मजबूत सरकारों ने कभी न किया था।
मगर सेहरा बंधवाना हर किसी की किस्मत में नहीं होता। राजनीतिक घटनाक्रम बदला, अचानक राजीव ने चन्द्रशेखर से समर्थन खींच लिया। चुनाव की घोषणा हुई, तब तक चन्द्रशेखर कार्यवाहक पीएम रहने थे। नियमतः केवल लेखानुदान पास हुआ। बड़े प्रस्ताव धरे रहे।
जून में नई सरकार आयी। राजीव की हत्या हो चुकी थी, गद्दी पर नरसिंहराव थे, मनमोहन वित्तमंत्री। शपथ के बीस ही दिनों में बजट पेश हुआ। प्रस्ताव वही थे, जो यशवंत पेश करते। मनमोहन वित्त मंत्री के बतौर आर्थिक सुधारों के मसीहा हो गए।
बात यहीं खत्म नही हुई। पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त।
मनमोहन की शुरुआती टीम वही थी जो यशवंत की थी। वही वित्त सचिव, वही आर्थिक सलाहकार.. मनमोहन भी ब्यूरोक्रेट थे, अर्थशास्त्री थे, दुनिया देखी थी। जिस धारा में यशवंत ने सोचा उस धारा के ज्यादा बड़े खेवैया थे। आने वाले पांच साल लगातार सुधारो के रहे।
देवगौड़ा गुजराल और अटल की दो कम उम्र सरकारो के बाद अब अटल फिर गद्दी पर थे , बहुमत के साथ। और वित्तमंत्री कौन- यशवंत सिन्हा
वही नीतियां यथावत चलीं, यशवंत की निगहबानी में। सुधार रुके नही, बढ़े और बस बढ़ते गए। लेकिन अक्खड़ वित्तमंत्री जो किसी की न सुनता था, भाजपा में जूनियर था, खटकने लगा। सो वित्तमंत्री बदलने का दबाव था। अटल ने खेला, वित्तमंत्री को विदेश दिया, विदेशमंत्री को वित्त। मगर वित्तीय मसलो पर यशवंत के विचार अब भी उतना ही महत्व रखते। 2004 में सरकार गयी।
कौन आया??मनमोहन सिंह, अबकी बार पीएम बनकर। वही सुधार इस बार कुछ समाजवादी टच के साथ। फिर दोबारा भी चुनकर आये। रूरल इकॉनमी को ज्यादा तवज्जो मिली, लेकिन मार्किट इकॉनमी को वही बदस्तूर गति मिली। 1991 से जो गाड़ी दौड़ी, बस दौड़ती ही गई, जब तक नोटबन्दी ने उंसके चक्के न उखाड़ लिए। मनमोहन और यशवंत दो पहिये हैं जिन् पर दौड़कर भारत दुनिया की एक सक्सेस स्टोरी बना। लेकिन ग्लोरी में यशवन्त को वो हिस्सा कभी न मिला, जिसके वो हकदार थे।