हिंदी साहित्य और समाज पर पश्चिमी प्रभाव को रेखांकित करने जुटे प्रमुख बुद्धिजीवी
दिल्ली : अम्बेडकर विश्वविद्यालय,दिल्ली के साहित्य अध्ययन पीठ के देशिक अभिलेख-अनुसंधान केंद्र द्वारा 28-29 मार्च, 2023 को 'हिंदी साहित्य पर पश्चिमी प्रभाव और देशज प्रतिमान' विषय पर दो दिन की विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया।
पीठ के संयोजक प्रख्यात समाजशास्त्री अभयकुमार दुबे हैं। दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित इस गोष्ठी का संयोजक आलोचक वैभव सिंह और तृप्ति श्रीवास्तव ने किया।
गोष्ठी के बीज-पत्र में कहा गया कि पश्चिमी ज्ञान के वैश्विक साम्राज्य की स्थापना, उसकी ऐतिहासिक प्रक्रिया एवं उससे जुड़ी ऐतिहासिक नियति का हिंदी साहित्य और उसके आलोचना-शास्त्र पर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से गहरा प्रभाव पड़ा है। स्थिति यह है कि आधुनिक हिंदी आलोचना पर पश्चिम की लिटरेरी थियरी के व्यापक प्रभाव की आलोचना कम होती है, बल्कि उसे सराहा अधिक जाता है।
इसके पीछे एक ओर ज्ञान की सार्वभौमिकता का तर्क काम करता है, दूसरी ओर स्थानीय बुद्धिजीवियों के संस्थागत विकास की परिस्थितियों का भी इसमें योगदान है। कहना न होगा कि सार्वभौमिक ज्ञानतंत्र हो या बुद्धिजीवियों का सांस्थानिक आधार-- दोनों पर पश्चिमी मूल्य-दृष्टियों व शक्तियों का लंबे अरसे से कुछ ज़्यादा ही अंकुश रहा है। ज्ञान का पूरा तंत्र उदारतावादी चिंतन, बोर्ज़्वा व्यक्तिवाद, आधुनिकता, मार्क्सवाद, राष्ट्र-राज्य की संकल्पना आदि से संचालित होता रहा है। इसने विभिन्न सभ्यताबोधों से संवाद के स्थान पर उनके विनाश और पश्चिमी सभ्यताबोध से उनके प्रतिस्थापन पर अधिक ज़ोर दिया है।
यदि केवल हिंदी साहित्य-चिंतन को ही लें तो अपवाद के तौर पर कुछ बहसें अवश्य हुई हैं। मसलन, भारतीय उपन्यास के जन्म की गाथा को लेकर 'पश्चिमी उपन्यास बनाम भारतीय ढंग के उपन्यास' पर बहस। या, नाटकों की भारतीय परंपराओं व उनकी लोकोन्मुखता को लेकर चर्चा। या फिर उपन्यास विधा के तहत एक पश्चिमी ढंग के इड, ईगो, सुपरईगो के स्थान पर उपन्यासों में 'भारतीय मन' की खोज को संभव बनाने का प्रयास। इसी में भारत की आख्यायिकाओं, दंतकथाओं, लोकजीवन को उपन्यासों में पुनर्जीवित करने की चेष्टा भी जोड़ी जा सकती है। निर्मल वर्मा के सांस्कृतिक चिंतन से जुड़े लेखों में 'पश्चिमी आधुनिकता बोध' को लेकर कई प्रश्न उठाए गए हैं। वे पश्चिमी जीवन-दृष्टि के आतंक से मुक्त होने, आत्म-उन्मूलन से स्वयं को बचाने व भारतीय अनुभव को पूरी समग्रता में जीने का पक्ष प्रस्तुत करते हैं। इस संदर्भ में 'मानववादः एक आत्मछलना' या 'भारतीय संस्कृति और राष्ट्र' इत्यादि निबंधों को ध्यानपूर्वक पढ़ा जा सकता है।
हाल के कुछ वर्षों में रीतिकालीन काव्य को आदर्शवादी-मर्यादावादी तथा उन्नीसवीं सदी की आधुनिकतावादी चेतना से मुक्त होकर देखने को लेकर भी बहसें हुई हैं। कुछ इतिहासकारों ने द्विवेदी युग के नैतिक आदर्शों को विक्टोरियन तथा नई विकसित होती नैतिकता से प्रेरित बताकर उसे प्रश्नांकित किया है, भले ही उनका दृष्टिकोण प्रगति के मूल्यों के पक्ष में ही क्यों न रहा हो। इन दुर्लभ प्रयासों के बावजूद कुल मिला कर ईसाई मजहबी नैतिकता, मार्क्सवाद, यथार्थवाद, अस्तित्ववाद, कलावाद, संरचनावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद जैसी सैद्धांतिकियाँ अपने-अपने प्रभावों से साहित्य का वैचारिक उपनिवेशन करती रही हैं। इसके साथ एक विकट विरोधाभास भी जुड़ा है कि वैचारिक उपनिवेशवाद को पश्चिम संभव बनाता है तो उसका विरोध करने के तर्क भी पश्चिमी ज्ञानतंत्र ही देता है। नतीजन, हमारी दासता हो या उससे मुक्ति-- दोनों के प्रश्नों पर हम मौलिकता से वंचित रह जाते हैं। हमें पहले से निर्धारित, तैयारशुदा प्रश्नों व उनके उत्तरों से ही काम चलाना होता है।
थोड़ा विस्तार में जाने पर दिख जाता है कि साहित्यालोचना के विविध सम्प्रदाय साहित्य के मूल्यांकन के अलावा साहित्य-रचना को भी प्रभावित करते रहे हैं। यानी, विचारधारात्मक प्रभाव न केवल उपलब्ध साहित्य का मूल्यांकन करता है, बल्कि सृजन-प्रक्रिया को भी प्रभावित करता है। उसका शिल्प, अंतर्वस्तु व दृष्टि का भी नियमन होता है। साहित्यिक विचारों के समन्वय की कोशिशों में भी विचारधारात्मक दबाव से मुक्ति के बजाय उनके साथ समायोजन की बाध्यताएँ दिखती रही हैं। इस विडम्बना का एक पहलू यह भी है कि हिंदी समेत समूचे बौद्धिक जगत व उसके अकादमिक हलकों में कई बार लोकतंत्र-विरोधी विमर्शों द्वारा पश्चिमी ज्ञानतंत्र के प्रति दोहरा रवैया अपनाया जाता रहा है। जो लोकतंत्र का विस्तार करने वाले विमर्श थे, उन्हें पश्चिमी साजिश बताया गया। जो लोकतंत्र व बराबरी के सिद्धांतों का दमन करने वाले विमर्श थे, उनका अपनी ही परम्परा के वर्चस्ववाद से संबंध स्थापित कर पश्चिमी ज्ञान से संघर्ष के अपने ही संकल्प को विस्मृत किया गया। इसने पश्चिमी प्रभावों व ज्ञान के प्रति जिस अवसादमूलक अवसरवाद को पैदा किया, उसने लुप्त हो चुकी या लुप्त होने की कगार पर खड़ी भारतीय ज्ञानधाराओं को ईमानदारी से खोजने में बाधा पैदा की। अहंकेंद्रित पश्चिमी बौद्धिकता हो या उतनी ही अहंकेंद्रित देशजता हो, दोनों ने एक साथ भारतीय ज्ञान के प्रति नकारात्मकता पैदा की।
हिंदी साहित्य में तीन प्रकार की विचारधाराओं का प्रभाव देखने को मिलता है। पहली वे जो विशुद्ध साहित्यिक नहीं थीं। उनके मूल सरोकार मूलतः समाज की राजनीतिक पुनर्रचना के 'आइडिया' से जुड़े थे। जैसे राष्ट्रवाद, मार्क्सवाद तथा सम्प्रदायवाद आदि की महा-आख्यान वाली विचारधाराएँ। इनका साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। द्विवेदी युग की विचारधारा पर दिखने वाले राष्ट्रवाद के गहन प्रभाव ने भारत की संस्कृति, मिथक आदि की पुनर्व्याख्या के लिए प्रेरित किया। इस तरह प्रगतिशील आंदोलन पर मार्क्सवाद के प्रभाव ने भारतीय समाज-संस्कृति के बारे में एक प्रतिबद्ध साहित्य के सृजन का प्रबल आग्रह किया। इसने साहित्य को मूलतः साहित्य की परिधि से मुक्त मान कर उसे राजनीतिक-सामाजिक मुहावरों के नजदीक लाकर खड़ा कर दिया। इसके तहत हर साहित्य को अंततः विचारधारा की पुष्टि के लिए प्रयुक्त होना था। इसका एक उदाहरण है मध्यकाल, जिसके तहत रामचंद्र शुक्ल के तुलसीदास संबंधी मूल्यांकन के कार्य को सही दिशा में आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी लेने के नाम पर तुलसीदास के मुख्य सरोकारों को सामंतविरोधी बताया गया। जबकि तुलसी न तो स्पष्ट तौर पर सामंत विरोधी थे, न इस्लामविरोधी। कुल मिला कर इस दृष्टि ने भारतीय बनाम पाश्चात्य चिंतन की बहस में पड़ने के स्थान पर मार्क्सवादी दृष्टि को स्वीकारा। साहित्य पर विशुद्ध साहित्यिक-दार्शनिक विचारधाराओं का प्रभाव भी पड़ा जिसमें हम स्वच्छंदतावाद, यथार्थवाद, अस्तित्ववाद, नई समीक्षा व कलावाद को ले सकते हैं। इनके वैचारिक प्रभावों को हम छायावाद, प्रयोगवाद और नई कविता पर देख सकते हैं। तीसरी प्रकार की वे विचारधाराएँ हैं जो मूलतः अकादमिक दृष्टि की थीं और व्यापक सामाजिक हस्तक्षेप न करने के बावजूद राजनीति व साहित्य दोनों के बारे में अकादमिक नजरियों को गहराई से प्रभावित करती थीं। इनमें हम संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद, उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-उपनिवेशवाद आदि को रख सकते हैं। इन्हें एक भिन्न श्रेणी में रखने की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि ये विशुद्ध अकादमिक हैं और अकादमिक तरीके से ही महा-आख्यानों, मानववाद, लेखक-कृति संबंध, इतिहास, प्रबोधनकाल, सामाजिक न्याय आदि के बारे में अपने नजरिये को प्रस्तावित करती हैं। ये राजनीति व साहित्य दोनों के मध्य एक सेतु का निर्माण करती हैं, पर साहित्य-दर्शन-इतिहास आदि के बारे में स्वायत्त सिद्धांतों का भी निर्माण करती हैं। विश्वविद्यालयों, साहित्यिक संगोष्ठियों व पत्र-पत्रिकाओं में इनकी प्रभावशाली उपस्थिति है। इस प्रकार समूची बीसवीं सदी में साहित्य पर पड़ने वाले पश्चिमी वैचारिक प्रभावों को हम तीन श्रेणियों में विभक्त करके देख सकते हैं- राजनीतिक विचारधाराओं का प्रभाव, विशुद्ध साहित्यिक-दार्शनिक विचारधारात्मक प्रभाव तथा अकादमिक-दार्शनिक विचारधारात्मक प्रभाव। इन श्रेणियों में परस्परता तथा उभयचारिता मौजूद है, और केवल विचार के लिए इनका निर्माण किया गया है।
हिंदी आलोचना पर पश्चिमी प्रभाव की तर्कपूर्ण व तथ्यात्मक तहकीकात के कई आयाम हैं। हमें स्वयं को दुविधाओं से भी बचाना है। भारतीय बौद्धिकता एक 'दुविधाग्रस्त बौद्धिकता' के रूप में विकसित हुई है। उसके सामने हमेशा यह दुविधा रही कि वह पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान को पूरी तरह स्वीकार करती रहे, या वह बार-बार ज्ञान के अपने देशज स्रोतों को खंगालकर बौद्धिक स्वायत्तता की दिशा में भी आगे बढ़ने का प्रयत्न करे। दुविधाग्रस्तता का नतीजा है कि भारतीय बौद्धिकता एक विशिष्ट विमर्शमूलक कारीगरी पर भी आधारित हो जाती है जिसमें पश्चिम को पीछे छोड़ने की होड़ में वह पश्चिम की कुछ बातों को जबरन परंपरा-इतिहास पर थोपती दिखती है। यह पश्चिम की अवधारणा व सिद्धांतों के खजाने के बल पर अपने खजाने को खोजने जैसा है। तर्क यह है कि टॉर्च भले ही विदेशी हो पर उसकी रोशनी तो अपनी ही गुम हो चुकी वस्तुओं को तलाश रही है। कई बार यह चेष्टा चमकदार कामयाबी लेकर आई और आधुनिक भारत राष्ट्र के निर्माण के लक्ष्य के अनुरूप एक उन्नत बौद्धिक पूँजी का सृजन भी हुआ। लेकिन कई बार भारतीय बौद्धिक इतिहास हास्यास्पद अनुकरण का शिकार होता रहा। किसी को फ़्रांसीसी क्रांति के प्रतिबिंब मध्यकाल के किसी कालखंड में दिखे तो किसी को पहले से पता रहता है कि स्वर्णकाल व पूँजीवाद की एक सर्वव्यापी उपस्थिति है जिसे बस खोज निकालना है। 'व्यापारिक पूँजीवाद' जैसी श्रेणियाँ भारतीय इतिहास व साहित्य की व्याख्या में जम कर इस्तेमाल होते हैं। कहना न होगा कि अतीत का भारत व्यापारिक पूँजी से समृद्ध था, पर निश्चित रूप से वह औद्योगिक क्रांति के पहले उभरने वाला कोई पूँजीवाद नहीं था।
एक अधिक समस्यामूलक पक्ष यह भी है कि भारतीय बौद्धिकता पश्चिमी दृष्टिकोणों से अपनी साहित्यिक पूँजी व इतिहास-परंपरा की व्याख्या के लिए जब विवश होती है तो वह साहित्य व इतिहास-परम्परा की बहुत सारी पुस्तकों, भाष्य, साहित्य, कला, स्थापत्य, चिकित्सा आदि से जुड़ी पुस्तकों को अपने विमर्श के दायरों से इसलिए बाहर निकालती चलती है क्योंकि उनकी उपयोगिता पश्चिम दृष्टिकोण के दायरे में रहती ही नहीं। हिंदी साहित्यिक परम्परा पर भी इस थोपी गई चयनधर्मिता का असर दिखता है जिसमें बहुत सारे ग्रंथ, टीकाएँ, सम्प्रदाय, रस-छंद-श्रृंगार, दृष्टियाँ हाशिये पर डाल दी गईं हैं। दृष्टिकोण केवल व्याख्या को नहीं प्रभावित करता, बल्कि वह ऐतिहासिक सचाइयों से हमारे रिश्ते को भी प्रभावित करता है। यह प्रक्रिया सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का सबसे दयनीय उदाहरण होती है जिसमें ज्ञानमीमांसा के सबसे चुनौतीपूर्ण इलाकों में 'सभ्यताओं के मध्य असमान संबंधों' का निर्माण हो जाता है। स्रोत, अनुसंधान सामग्री, आधार सामग्री, संदर्भ, फुटनोट, प्राथमिक स्रोत, उद्धरण, प्रमाण आदि का पूरा औपचारिक अकादमिक ढाँचा वास्तव में जिस शोधदृष्टि से संचालित होता है, वही बहुत सारे ज्ञानस्रोतों व लिखित-मौखिक चीजों को सेंसर कर देती है। मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो बौद्धिक परजीविता से उत्पन्न एक नकार-भाव हमारे पूरी बौद्धिक जीवन को आच्छादित कर लेता है। ज्ञान की खोज का स्वांग कब ज्ञान के संहार के यथार्थ को ढँकने में इस्तेमाल होने लगता है, पता नहीं चलता। ज्ञान के सेंसर के जरिए जब एक औपनिवेशिक 'वि-इतिहासीकरण' भी घटित होता है तो साथ ही भाषाएँ भी नष्ट होती चलती है जिसे भाषा-संहार की श्रेणी में रखा जा सकता है।
हिंदी आलोचना यदि अपनी ही देसी ज्ञानमीमांसाओं व लोकभाषाओं में सुरक्षित विमर्शों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैये से ग्रस्त है, तो इसके पीछे यही कारण सक्रिय है। ज्ञान के क्षेत्र में औपनिवेशिक संस्थाओं की दखलंदाजी का प्रभाव स्वातंत्र्योत्तर भारत के बाद भी ठीक उसी प्रकार देखा गया जैसे अन्य क्षेत्रों औपनिवेशिक संस्थाओं के दखल के कारण पैदा हुआ। भारतीय कृषि इसका स्पष्ट उदाहरण है। मिसाल के लिए जिन इलाकों में ज़मींदारी प्रथा लागू हुई वहाँ आजादी के बाद भी अधिक पिछड़ापन, ऊँच नीच व हिंसा जारी रही। ज्ञान व विमर्श के क्षेत्रों में भी ऐसी ही विषमता, असहिष्णुता तथा हिंसक उपेक्षा का दुर्भाग्यपूर्ण प्रकटीकरण हुआ। यह वैसा ही है जैसे ज़मींदारों की सत्ता खत्म होने के बाद भी उनसे जुड़ा भावनात्मक पक्ष समाप्त न हो सका। ज्ञान के मामले में जो पुराने औपनिवेशिक ज़मींदार थे, उनकी वंशपरंपरा आज भी शक्तिशाली है। यानी, औपनिवेशिकता के अंत के बाद भी औपनिवेशिक प्रभावों का बने रहना।
पिछले कुछ दशकों में स्वयं पश्चिम भी अपनी प्रबोधनकालीन वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक ज्ञान-परम्परा के प्रति अधिक आलोचनात्मक रहा है। वहाँ साहित्यिक पाठ, इतिहास, विज्ञान व विचारधारात्मक प्रभुत्व जैसे विषयों पर तीखे सवाल पूछे गये हैं। स्वयं पश्चिम के पितृसत्तात्मक औपनिवेशिक चरित्र को पश्चिम में प्रश्नांकित कया गया है। तीसरी दुनिया का साहित्य, प्राच्यवाद, उत्तर-आधुनिक सापेक्षतावाद आदि ने वहां के विमर्शों में अपना स्थान बनाया है। पर पश्चिम के साथ सुविधा है कि वह परम्परा व आधुनिकता की कोख से पैदा ज्ञान को प्रश्नांकित करते हुए भी उससे मुक्ति को आत्मगौरव व आत्मपहचान के सवालों से नहीं जोड़ता। वे उसकी स्वाभाविक बौद्धिक यात्राएँ रहती हैं। जबकि गैरपश्चिमी विडम्बना ही यह है कि वहाँ ज्ञान के क्षेत्र में पश्चिम के विचारधारात्मक नज़रियों से मुक्ति को अस्मिता व सभ्यता के सवालों से जोड़ कर अलग नहीं किया जाता तथा बार-बार इसकी जटिलताओं में जाने की आवश्यकता पड़ती है।
उपरोक्त विचार-गोष्ठी में विगत डेढ़ सौ सालों में पश्चिमी वैचारिक प्रभावों का हिंदी के साहित्य-चिंतन पर पड़े प्रभावों का मूल्यांकन हर चीज को औपनिवेशिक साज़िश मानने के नज़रिये से न करके इसलिए किया गया कि हिंदी आलोचना व साहित्य के इतिहास के प्रति अधिक समग्रतावादी दृष्टिकोण का विकास किया जा सके। आलोचना व साहित्य की पूर्व-परम्पराओं को वर्तमान पीढ़ी विस्मृत कर रही है। उससे बौद्धिक जुड़ाव भी बाधित हो रहा है। प्रश्न यह है कि क्या इस समस्या से उबरने में पश्चिम बनाम पूरब, यूरोप बनाम भारत, अंग्रेज़ी बनाम हिंदी, राजनीति बनाम संस्कृति, वर्ग बनाम अस्मिता के विचारधारात्मक द्वैत से संचालित बौद्धिकताएँ मददगार हो सकती हैं? क्या हिंदी आलोचना के इतिहास को नई दृष्टि से समझने की कोशिश नये रास्ते खोल सकती है?
साहित्यिक विधाओं की भारतीयता से हमारा मतलब क्या है? भारतीय साहित्य सिद्धांत की प्रासंगिकत क्या है? क्या दलित, ओबीसी, स्त्री, और बहुजन मार्क्सवादी विमर्श का इन सिद्धांतो से कोई समायोजन संभव है, या इन विमर्शों के प्रभाव में ये सिद्धांत हमारे किसी काम के नहीं रह गए हैं? पुराने पाठों को पढ़ने का कोई विउपनिवेशीकृत तरीका भी है या इसके लिए हमें पश्चिमी साहित्यशास्त्र के पास जाना ही पड़ेगा? क्या पश्चिम का प्रतिवाद हिंदी साहित्य-चिंतन का एक संभव एजेंडा बन सकता है? इस गोष्ठी में इन्हीं अनसुलझी हुई समस्याओं पर बात की गई।
गोष्ठी में प्रो. नन्द किशोर आचार्य, प्रो. राजकुमार, प्रो. आशीष त्रिपाठी, प्रो. सत्यकेतु सांकृत, प्रो. सुधीश पचौरी, प्रो. रमण सिन्हा, प्रो. विनोद शाही, प्रो. विश्वनाथ मिश्र, प्रो आशीष त्रिपाठी, डॉ. उदयन वाजपेयी, डॉ. सुजाता चोखेरबाली, डॉ. प्रमोद रंजन और ,डॉ. संजीव कुमार आदि ने विभिन्न विषयों पर प्रस्तुति दी। कार्यक्रम में उदघाटन वक्तव्य वरिष्ठ कवि एवं कला-मर्मज्ञ अशोक वाजपेयी, और समापन वक्तव्य वरिष्ठ आलोचक सुधीश पचौरी ने दिया।