"बदरा सावन की" हर कोई इन बारिश की बूंदों में भीग कर अपने आप को सावन के इन रंगों में रंगना चाहता है
हर कोई इन बारिश की बूंदों में भीग कर अपने आप को सावन के इन रंगों में रंगना चाहता है ।
बारिश की पहली बूंद जब सोंधी-सोंधी महक चारों ओर फैलाती है, तो तन ही नहीं, मन और आत्मा तक तृप्त हो जाती हैं. वही सावन की पहली बारिश का महत्व कितना होता है इस बात का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है की सावन के शुरू होते ही सूखे और वीरान पड़े जंगल एक बार फिर हरियाली से ऐसे खिल उठते है मानो किसी प्यासे को पानी की बुँदे मिल गयी हो , धरती पर पढ़ती सावन की बारिश की एक एक बूंद अमृत के समान महसूस होती है ।
सावन की यह रिम झिम करती बारिश जहाँ एक और प्रकर्ति के लिए वरदान साबित होती है वहीँ दूसरी और यह उन सभी जीव जंतुओं और मनुस्यों को ग्रीष्म समय की उस तपती हुवी गर्मियों की मार से भी राहत देती है । चाहे वो बच्चा हो , जवान हो या फिर वृद्ध सावन की यह बरसात उम्र की सारी सीमाओं को तोड़ देती है तभी तो बारिश की इन रिम झिम करती बारिश का आनंद लेने में कोई भी पीछे नही रहता, बस हर कोई इन बारिश की बूंदों में भीग कर अपने आप को सावन के इन रंगों में रंगना चाहता है ।
"सावन का सुहाना मौसम"
खिलते हैं दिलों में फूल सजनी सावन के सुहाने मौसम में.........
होती है सभी से भूल सजनी सावन के सुहाने मौसम में.......
यह चाँद पुराना आशिक़ है, दिखता है कभी छिप जाता है..........
छेड़े है कभी ये बिजुरी को बदरी से कभी बतियाता है.........
यह इश्क़ नहीं है फ़िज़ूल सजनी सावन के सुहाने मौसम में.......
बारिश की सुनी जब सरगोशी बहके हैं क़दम पुरवाई के.....
बूंदों ने छुआ जब शाख़ों को, झोंके महके अमराई के.........
टूटे हैं सभी के उसूल सजनी सावन के सुहाने मौसम में.......
यादों का मिला जब सिरहाना, बोझिल पलकों के साए हैं.......
मीठी सी हवा ने दस्तक दी, सजनी को लगा वो आए हैं...
चुभते हैं जिया में शूल सजनी सावन के सुहाने मौसम में..........
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"बदरा सावन की"
बदरा आई फिर सावन की,
वो बादल घनेरे,वो हवाओं का शोर,
वो बारिश की झम- झम,
लगे तेरी पायल की छम- छम ,
वो फुहारों का, तेरे चेहरे पर गिरना,
वो तेरे, भीगे आंचल का निचोड़ना,
फिर बिजली का, अचानक चमकना,
फिर डर कर मेरे पास, तेरा आ जाना,
नहीं भूल सकता, तेरी यादों का मेला,
बादल से कह दो, न गरजे बार-बार,
रुक जाती है, धड़कन और सासें,
आ जाती है,वही यादों का मंजर,
वो कोयल की कूक, जो लगा रही तान,
जैसे लगी हो, उसे भी पी की लगन,
वो मोर भी मस्ती में, नाच रहा छम-छम,
जैसे पा लिया हो, वो अपनी पूरी मंजिल,
प्यासा पपीहा भी, बुझा रहा अपनी प्यास,
कब आओगी तुम, कब बुझेगी मेरे मन की प्यास.......।।
(अजय कुमार मौर्य, पी-एचडी शोधार्थी, तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी)