हंसते हैं वो पर दिल ही में -
प्रतिकार छुपाए बैठे हैं ,
हम भोले-चित्त समर्पण में -
संसार लुटाए बैठे हैं l
बहते थे कभी जो हवाओं में
आती - जाती सांसे बनकर ,
वह आज मिटाने को हम को
एक आग जलाए बैठे हैं l
जो बैठ गगन के साए में -
अनिमेष निरखते रहते थे ,
बोझिल पलके हैं आज बहुत
नजरों को झुकाए बैठे हैं l
जो करुणा मेघ बरसते थे
मेरे बंजर खलिहानों पर,
अब वह कजरारे दामन में
बिजली को छुपाए बैठे हैं l
शायद कुछ घाव पुराने थे,
या बस लड़ने के बहाने थे ,
जो साहिल बनकर आए थे -
मजधार छुपाए बैठे हैं l
उनके दिल की गहराई के
अब अंधकार हम क्या नापें?
उन के गलियारे रोशन हों -
हम घर को जलाए बैठे हैं ।
अब मौन द्वंद्व की बेला में
किसका मरना,किसका जीना,
इस झंझा में हम आशा का
एक दीप जलाए बैठे हैं l
- वंदना तिवारी
लखनऊ
उत्तर प्रदेश