मोदी सरकार के पांच साल में कई युवा चेहरे उभर कर सामने आए। ये सभी प्रतिरोध और दमन की किसी घटना की पैदाइश रहे। घटनाओं और क्षेत्र के हिसाब से देखें तो जिग्नेस, अल्पेस और हार्दिक की पैदाइश की ज़मीन और अवधि मोटामोटी एक रहे अलबत्ता मुद्दे अलग थे। यूपी में चंद्रशेखर आज़ाद और विनय रतन का लोकप्रिय उभार हुआ। ऐसे ही कन्हैया, उमर, अनिर्बन और शेहला आदि का उभार एक ही घटना के बाद एक साथ हुआ। जेएनयू से ही अंशु कुमारी, जयन्त जिज्ञासु और चिंटू कुमारी का नाम उभरा। बंगाल में अरुमिता मित्रा तेज-तर्रार छात्र नेता के रूप में सामने आईं। यूपी में ऋचा सिंह, पूजा शुक्ला, विकास सिंह, मिनेशी मिश्रा आदि उभरे। हैदराबाद में रोहित वेमुला की घटना से दोंथा प्रशांत का तेज़ी से उभार हुआ। पंजाब में कनुप्रिया जुझारू छात्र नेता के रूप में लोकप्रिय हुईं। ऐसे और नाम हैं जो छूट रहे होंगे। जितना याद आया एक झटके में, लिखा।
अब ये पता करिए कि इनमें से कितने सक्रिय राजनीति में लोकसभा की दावेदारी जता रहे हैं। ये भी पता करिए कि एक ही घटना से उपजे कई युवाओं में कोई लोकसभा का दावेदार क्यों है जबकि कोई अन्य क्यों नहीं है। ये भी पता करिए कि कौन है जो लोकसभा लड़ना चाह रहा है और उसके लड़ने की राह में रोड़े अटकाए जा रहे हैं। ताज़ा उदाहरण हार्दिक पटेल का है जो हालिया अदालती फैसले के बाद शायद नामांकन न कर पाएं। बहुत संभव है कि चुनाव लड़ना और न लड़ना किसी का निजी चुनाव हो, लेकिन संसदीय राजनीति के धर्म में चुनाव ही सबसे पवित्र व अनिवार्य कर्मकांड होता है। जो आज नहीं लड़ रहे, वे शायद कल लड़ लें।
निजी चुनाव के अलावा एक और फैक्टर भी होता है। वो ये है कि स्टेट आपको कितनी गंभीरता या सुविधा से लेता है। पिछले तीन साल में राजनीतिक सक्रियता का ट्रैक रिकॉर्ड खंगालें तो जेएनयू के निष्कासित छात्रों के बीच उमर खालिद के आगे कोई नहीं टिकेगा। गोली भी उमर पर ही चली थी, किसी और पर नहीं। चुनाव में कन्हैया और शहला हैं। अनिर्बन के बारे में ऐसी कोई खबर नहीं। मैं किसी से किसी की तुलना नहीं कर रहा। कहने का कुल आशय इतना है कि इस संसदीय व्यवस्था में कोऑप्ट हो जाने की आपकी तैयारी और स्टेट का आपके प्रति रवैया आपके निजी चयन को खूब प्रभावित करता है। स्टेट और उसके अंग (इनमें राजनीतिक दल भी गिनें) उसी के लिए कालीन बिछाते हैं जो सबसे कम हानिकारक हो। सर्वाधिक हानिकारक को कुछ भी करने से रोका जाता है। मरवाया भी जा सकता है।
यहां का लोकतंत्र ऐसे ही चलता है। इस लोकतंत्र के खेल में हिस्सा लेने की एक अदृश्य शर्त है। खेलने वाला और खिलाने वाला ही उसे जानता है। खेलने की छूट सबको है, शर्त है कि पहले शर्त पूरा करिए। नहीं करेंगे तो आंदोलनकारी बनकर रह जाएंगे। या काल कवलित हो जाएंगे। किसे फ़र्क पड़ता है। जनता बारहवें खिलाड़ी को याद नहीं रखती।