फ्रांस की एक अदालत के फैसले से झुलसा मलेशिया
ब्रिटिश काल में हुए एक समझौते को लेकर फ्रांस कोर्ट ने मलेशिया को मुआवजा अदा करने का आदेश दिया है।
ब्रिटिश काल में हुए एक समझौते को लेकर फ्रांस कोर्ट ने मलेशिया को मुआवजा अदा करने का आदेश दिया है। कोर्ट ने मलेशिया को आदेश दिया है कि वह सुलु सुल्तान के वंशजों को 15 अरब डॉलर का मुआवजा दे। इस मुद्दे ने मलेशिया की राजनीति में उथल-पुथल मचा दी है। आखिर यह मामला क्या है और इसका क्या असर होगा? बरसों से शांत पड़े सुलु और 2013 के लहद दातू कांड ने एक बार फिर तूल पकड़ लिया है।
दरअसल, मलेशिया की गैस और तेल उत्पादक सरकारी संस्था पेट्रोनास को कहा गया है कि वह सुलु सुल्तान के वंशजों को उपनिवेश काल से ब्रिटिश मलेशिया और सुलु राजाओं के बीच 144 साल पहले हुए समझौते के तहत पंद्रह बिलियन डालर की मुआवजा राशि दे। ब्रिटिश काल के समझौते को मलेशिया ने 2013 में एकतरफा निर्णय ले कर खारिज कर दिया और सुलु पक्ष को मुआवजा मिलना भी बंद हो गया। मलेशिया सरकार के इस निर्णय के विरोध में सुलू पक्ष ने 2017 में एक याचिका दायर की लेकिन मलेशिया में उसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया। और अब ऐसा लग रहा है कि बात बढ़ते बढ़ते बहुत बढ़ गयी है। इस साल की शुरुआत में फरवरी में फ्रांस की आर्बिट्रेशन कोर्ट ने सुलु सुल्तान के वंशजों के पक्ष में निर्णय दिया था। सुलु राजघराने के लोगों को फैसला तो मनचाहा मिल गया लेकिन उस फैसले को अमली जमा पहनाना एक बड़ी चुनौती था। अंग्रेजों के जमाने से ही सबाह इलाके में पेट्रोल और गैस के स्रोत मिलने शुरू हो गए थे। आज सबाह मलेशिया का तेल और गैस निर्यात का प्रमुख स्रोत बन गया है।
भारत समेत तमाम देशों की तरह मलेशिया भी ब्रिटिश उपनिवेशवाद का शिकार देश रहा। 1878 में अंग्रेजों ने आज की विवादास्पद जमीन सुलु के सुल्तान से लीज पर लिया था जो सबाह और आस-पास के तमाम द्वीपसमूहों में फैला था। यह समझौता सुलु सुलतान जमाल अल आलम, हांग कांग की गुस्तावुस बैरन वोन ओवरबेक, और ब्रिटिश नार्थ बोर्नियो कंपनी के बीच हुआ था जिसके तहत कंपनियों ने सुल्तान और उसके वारिसों को पांच हजार पेसो सालाना हमेशा के लिए देने की बात कही थी। सुलू वंशजों का कहना है कि यह जमीन किराये पर ली गयी थी लेकिन, मलेशियाई सरकार मानती है कि समझौता सबाह के ऊपर मालिकाना हक का था किराये पर जमीन लेने का नहीं। उस वक्त तो मलेशिया आजाद ही नहीं था और समझौते पर हस्ताक्षर भी ब्रिटिश और हांग कांग स्थित कंपनियों के थे। 1936 में सुल्तान जमाल के बेऔलाद मरने के बाद भी ब्रिटिश सरकार ने नौ नजदीकी वारिसों को चुना और उन्हें मुआवजे की रकम देनी चालू कर दी। 1963 में मलाया के आजादी मिलने के बाद यह हिस्सा सुलु सल्तनत के पास जाने के बजाय आजाद मलाया का हिस्सा बन गया. सुलु वंश के वंशजों की मानें तो यह गलत था और अंग्रेजों को ऐसा नहीं करना चाहिए था। उनकी कानूनी दलील इसी बात पर आधारित है। इस विवाद में मलेशिया और सुलू सुल्तान के वंशजों के बीच ही विवाद नहीं रहा है। एक समय इंडोनेशिया का भी इस क्षेत्र पर कब्जा रहा था और ब्रूनेई का भी। हालांकि दोनों ही देश अब इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते हैं। 2013 तक मलेशिया और सुलु सुल्तान के वंशजों के बीच भी शांति रही थी लेकिन 2013 में एक सुलु वंशज की भेजी मिलिशिया से हिंसक संघर्ष के बाद मलेशिया सरकार ने सुलु वंशजों को दिए जाने वाले 5300 मलेशियाई रिंगिट के सालाना भत्ते को बंद कर दिया। बहरहाल अब मामले में नए पेंच निकल पड़े हैं। सुलु वंशज चाहते हैं कि जल्द से जल्द मामले का निस्तारण हो। जो भी हो, इस मुद्दे ने सबाह के मलेशिया के साथ संबंधों, मलेशिया कि घरेलू राजनीति और विदेश नीति पर असर डालना चालू कर दिया है। सबाह की स्वायत्तता का मसला भी इस बात से उठेगा यह भी तय है। मलेशिया पर इस मुद्दे के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।