अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई की मुलाकात तालिबान के हक्कानी नेटवर्क के अनस हक्कानी से हुई है। दोनों ने नई सरकार के गठन की रूपरेखा पर चर्चा की है। उधर तालिबान ने अपने पहले शासन काल से अलग रूख अपनाया है। महिलाओं को एक हद तक अधिकार देने को राजी है। लगता है कि सारा कुछ सुनोयोजित तरीके से किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि ताजिक नेता अमरूल्लाह सालेह ने तालिबान के शासन को मानने से इँकार कर दिया है।
तालिबान को सत्ता तो बड़े तरीके से सौंपी गई, लेकिन उतरी सीमा पर ताजिक जनजाति को उनके खिलाफ खड़ा रखा गया है। ताजिकों को खड़ा रखने पर रूस, चीन और अमेरिका की आपसी सहमति है। सब के अपने-अपने हित है। चीन उइगुर मुसलमानों को लेकर चिंता में है। वैसे में अफगानिस्तान में तालिबान विरोधी ताजिक गुटों को चीन भी खड़ा रखना चाहता है। रूस की चिंता मध्य एशिया के रूस प्रभाव वाले देश है जहां तालिबान के घुसपैठ को रूस कतई स्वीकार नहीं करेगा। वहीं अमेरिका की चिंता अलकायदा जैसे संगठन है, जिसके कई लगभग 200 लड़ाके अफगान सीमा में आज भी मौजूद है।
तालिबान इस सच्चाई को जानता है कि अफगानिस्तान को चलाने के लिए पैसा नहीं है। तालिबान पश्चिमी देशों के आर्थिक सहयोग से चलता है। अगर तालिबान ने अपना पुराना रूख दोहराया, मानवाधिकारों का हनन किया तो अफगानिस्तान को मिलने वाली पश्चिमी आर्थिक मदद रूक जाएगी। यही नहीं लाखों अफगान शरणार्थियों की भीड़ पाकिस्तान और ईरान की सीमा में जाएगी। लगभग 30 लाख अफगान शऱणार्थी आज भी इन दो देशों मे मौजूद है।
दरअसल तालिबान को अर्थव्यवस्था चलाने को लेकर न ज्ञान पहले था न आज है। मुल्ला उमर के शासनकाल में पेश किए बजट में सिर्फ सरकारी कमर्चारियों के लिए वेतन का प्रावधान था। अफगान नागरिकों के विकास के लिए कोई बजट तालिबान ने नहीं बनाया था। आज भी तालिबान के पास आर्थिक विशेषज्ञों की कमी है वैसे में हालात नही बदले तो तालिबान एक बार फिर नारको टेरोरिज्म को बढ़ावा देगा। अफीम की खेती से अफगानिस्तान सरकार की आय बढाने की कोशिश करेगा। 1992 से लेकर 1996 के बीच अफगानिस्तान में अफीम का उत्पादन बढ़ा। 1996 के बाद तालिबान ने खुद अफीम की खेती पर को बढावा दिया। यही नहीं अफीम के कारोबार पर 20 प्रतिशत तक टैक्स लगाए। 1996 से लेकर 2000 तक तालिबान शासन काल में अफगानिस्तान में सलाना अफीम का उत्पादन लगभग 3000 टन था।
दिलचस्प बात यह है कि तालिबान ने हशीश जैसे ड्रग पर प्रतिबंध लगाए थे। लेकिन अफीम को पूरी तरह से तालिबान प्रोटेक्शन में बढ़ावा दिया। तालिबान शासनकाल में कंधार के एंटी ड्रग कंट्रोल फोर्स के हेड अब्दुल राशीद ने एक पाकिस्तानी पत्रकार से बातचीत के दौरान साफ कहा था कि अफीम की खेती को इसलिए नहीं रोका जा रहा है, क्योंकि उसका इस्तेमाल पश्चिमी देशों में गैर मुस्लिम 'काफिर' करते है। जबकि हशीश पर प्रतिबंध इसलिए लगाया गया है कि इसका इस्तेमाल मुस्लिम और अफगान आबादी कर रही है
पश्चिमी ताकतों को इस बात की चिंता है कि अगर तालिबान ने अर्थव्यवस्था की आय के तौर पर अफीम की खेती को बढ़ावा दिया तो नारको टेरोरिज्म बढेगा। तालिबान को भी पता है कि अकेले अफीम की खेती से अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था नहीं सुधरेगी। अफगानिस्तान के विकास के लिए पैसा चाहिए, निवेश चाहिए, उधोग चाहिए। तालिबान इतने लंबे अर्से के बाद अफगानिस्तान के भूगोल का बेहतर इस्तेमाल करने की कोशिश करेगा, जिससे अफगानिस्तान की आय और बढे। अगर तालिबान का पुराना रवैया रहा तो शायद ही अफगानिस्तान को मिलने वाली आर्थिक मदद आगे जारी रहेगी ?
1996 में अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद तालिबान के अंदर मौजूद कुछ मुल्ला ट्रेडरों ने अफगानिस्तान में निवेश लाने की कोशिश की। उन्होंने उधोग धंधे लगाने के लिए तालिबान के कमांडरो को राजी किया। उन्होंने कोशिश की कि विदेशों से भी कुछ निवेश अफगानिस्तान में लायी जाए। लेकिन तालिबान के रवैये के कारण कोई सफलता नहीं मिली।
तालिबान के मुल्ला उमर के शासनकाल में उसके मंत्रिमंडल में शामिल तत्कालीन खनिज और उधोग मंत्री मौलवी अहमद जान ने कई घोषणाएं कि ताकि अफगानिस्तान में विदेशी निवेश आ सके। अहमद जान खुद सऊदी अरब में कारपेट का कारोबार करता था। अहमद जान ने पाकिस्तानी और अफगानी उधोगपतियों के सहयोग से खनिज और कारपेट से संबंधित उधोगों को बढ़ाने की कोशिश की। लेकिन सफलता नहीं मिली। क्योंकि पाकिस्तानी बिजनेस मैन की दिलचस्पी अफगानिस्तान में उधोग लगाने में नहीं बल्कि अफीम के कारोबार में थी। अहमद जान ने पाकिस्तानी व्यापारियों को नई फैक्ट्री लगाने के लिए मुफ्त में जमीन देने की घोषणा की।
तालिबान को बकायदा इस बात का इलम है कि अगर सख्ती की गई, पुराने शासनकाल को दोहराया गया तो अफगानिस्तान से प़ढ़े, लिखे तकनीकी लोगों का पलायन होगा। 1996 में भी यही हुआ था। तालिबान के शासनकाल में हेलमंड के मार्बल माइन्स में तालिबान को इंजीनियर तक नहीं मिले थे। 500-500 की संख्या वाले मार्बल माइन्स में एक भी इंजीनियर नहीं था। इन मार्बल माइन्स में न तो बिजली था न ही इस इंडस्ट्री से जुड़े विशेषज्ञ थे। तालिबान के पास इन मार्बल माइन्स के लिए सिर्फ ब्लास्ट करने के लिए विस्फोटक थे।
निश्चित तौर पर तालिबान पुरानी गलतियों को नहीं दोहराएगा। तालिबान को पता है कि इस इलाके के संसाधनों पर नजर दुनिया की है। चीन तो बेल्ट एंड रोड पहल के तहत अफगानिस्तान में निवेश करना चाहता है। लेकिन तालिबान को चीन की खतरनाक शर्तों की भी जानकारी है। किस तरह से चीन दुनिया के कई गरीब देशों के संसाधनों पर कब्जा कर रहा है, इससे तालिबान वाकिफ है। वैसे में कहीं न कहीं फिलहाल तालिबान को पश्चिमी वैश्विक शक्तियों से सामांजस्य स्थापित करना ही होगा। अगर तालिबान इसमें विफल रहा तो अफगानिस्तान एक लंबे गृह युद में फंसेगा।