अमित शाह द्वारा तेलंगाना में मुस्लिम आरक्षण खत्म करने का दावा और हकीकत
Amit Shah's claim of ending Muslim reservation in Telangana and reality
अंसार इमरान
OBC के तहत तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में अति पिछड़ी मुस्लिम जातियों को 4% आरक्षण देने को ले कर भाजपाई नेताओं ने फिर से बवाल शुरू कर दिया है। एक तरफ भाजपा OBC राजनीती और पसमांदा राजनीति की बात करती है वहीं दूसरी तरफ OBC कैटागोरी के तहत ही दिए जा रहे मुस्लिम आरक्षण को असंवैधानिक बता कर अपना दोहरा चरित्र जग जाहिर कर रहे हैं।
तेलंगाना का 4% मुस्लिम कोटा 23 अप्रैल को तब सुर्खियों में आया जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हैदराबाद के पास चेवेल्ला में एक सार्वजनिक बैठक में आरक्षण को असंवैधानिक कहा। उन्होंने जोर देकर कहा कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो इन आरक्षणों को खत्म कर दिया जाएगा।
तेलंगाना चुनाव से पहले 20 नवंबर को गृह मंत्री अमित शाह ने दुबारा से तेलंगाना के जनगांव में एक चुनावी सभा में ऐलान किया कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आने के बाद तेलंगाना में 4 फीसदी मुस्लिम आरक्षण को खत्म कर देगी।
पिछड़े मुसलमानों के लिए 4 फीसदी आरक्षण
वर्तमान में, पिछड़े मुसलमानों के लिए शिक्षा और रोजगार क्षेत्रों में 4 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है। आरक्षण की 50 फीसदी सीमा खत्म होने के बाद से ही तेलंगाना की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी BRS ने इस आरक्षण को 4 फीसदी से बढ़ा कर 12 फीसदी करने की सिफ़ारिश की है। जिसको असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM और कांग्रेस का पूर्ण समर्थन हासिल है। इसलिए ऐसा भी कहा जा सकता है कि इस मुद्दे पर भाजपा बिलकुल ही अलग थलग पड़ चुकी है।
आखिर तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में मुस्लिम आरक्षण का क्या इतिहास है जिसको ले कर इतना राजनीतिक बवाल मचा हुआ है।
मुसलमानों को आरक्षण के दायरे में लाने का पहला प्रस्ताव 1960 के दशक का है, तेलंगाना की कल्पना से बहुत पहले। उस दौरान, तत्कालीन आंध्र प्रदेश सरकार अन्य पिछड़े वर्गों के पिछड़ेपन का अध्ययन कर रही थी और उसे एहसास हुआ कि मुसलमानों के कुछ वर्ग जैसे धोबी और बुनकर शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक मोर्चों पर अनुसूचित जाति से अधिक पिछड़े थे। अत: सरकार ने उसी समय से इन्हें पिछड़ी श्रेणियों में शामिल करना शुरू कर दिया।
जब भी वहां की सरकार ने मुसलमानों को आरक्षण दिया, कोई न कोई उसका विरोध करने के लिए अदालत चला गया - चाहे वह राजनीतिक दल हों, व्यक्ति हों या सामाजिक संगठन हों। हमेशा ये आरक्षण क़ानूनी दांव पेंच का शिकार होता रहा है।
अंतत 1994 में, आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री कोटला विजय भास्कर रेड्डी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने एक सरकारी आदेश जारी किया जिसमें मुसलमानों की दो श्रेणियों जैसे धोबी और बुनकरों को ओबीसी सूची में शामिल किया गया। उस सरकार ने मुसलमानों को ओबीसी सूची में शामिल करने के मुद्दे पर विचार करने के लिए न्यायमूर्ति पुट्टास्वामी की अध्यक्षता में एक ओबीसी आयोग का भी गठन किया।
मुसलमानों की हितैषी होने का दंभ भरने वाली तेलगु देशम पार्टी ने सत्ता हासिल करने के बाद पुट्टस्वामी आयोग की शर्तों को लगभग नौ वर्षों तक बढ़ाती रही। रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई। यहां याद रखियेगा कि मुस्लिम नफरत का नमूना बन चुका टी राजा सिंह जो मौजूदा समय में गोशामहल से भाजपा विधायक है उसकी राजनीतिक बुनियाद भी तेदेपा से ही शुरू हुयी थी।
वाईएस राजशेखर रेड्डी के क्रांतिकारी नेतृत्व में 2004 में कांग्रेस दोबारा सत्ता में आई। चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेता वाईएस राजशेखर रेड्डी ने सत्ता में आने पर मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने का वादा किया था।
इस वादे के अनुरूप, सरकार बनने के 56 दिनों के भीतर, जुलाई 2004 में, मुसलमानों को ओबीसी मानकर और पांचवीं श्रेणी बनाकर 5 प्रतिशत कोटा प्रदान करने का आदेश जारी किया गया। उस समय तक, पिछड़े वर्गों के लिए केवल चार श्रेणियां A, B, C और D थीं। अब, मुसलमानों को पांचवीं श्रेणी में ले लिया गया, जिसे श्रेणी E कहा जाता है।
लेकिन सितंबर 2004 में, उच्च न्यायालय ने इस आरक्षण आदेश को इस आधार पर रद्द कर दिया कि यह आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की 50% की सीमा के खिलाफ था। हाईकोर्ट ने तब कहा था कि राज्य में ओबीसी के लिए 25 फीसदी, अनुसूचित जाति के लिए 15 फीसदी और अनुसूचित जनजाति के लिए 6 फीसदी कोटा पहले से ही मौजूद है। यदि उसके ऊपर 5 प्रतिशत BC - E कोटा होता, तो कुल आरक्षण 51 प्रतिशत होता, जो एससी सीमा से ऊपर था।
कानूनी विशेषज्ञों से परामर्श करने के बाद, सरकार ने नवंबर 2004 में न्यायमूर्ति डी सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में एक पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। इस आयोग ने राज्य में मुसलमानों की विभिन्न श्रेणियों के सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन पर व्यापक क्षेत्रीय अध्ययन किया। इसने मुसलमानों की 14 श्रेणियों के बीच सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की सिफारिश करते हुए एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसने यह भी सुझाव दिया कि आरक्षण को 50 प्रतिशत एससी सीमा के भीतर रखने के लिए इसे घटाकर 4 प्रतिशत कर दिया जाए।
ये 4 प्रतिशत आरक्षण तब से जारी है, पहले आंध्र प्रदेश में और फिर तेलंगाना में भी, जब 2014 में इसका गठन हुआ था।
क्या इससे सभी मुसलमानों को फ़ायदा होता है?
आरक्षण पूरी तरह से मुसलमानों के सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन पर दिया गया है। बीसी आयोग ने मुसलमानों की केवल 14 श्रेणियों की सिफारिश की थी जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से बहुत पिछड़े पाए गए थे। उनमें कुछ धोबी, फकीर, गराडी मुसलमान, गोसांगी मुसलमान, हजाम मुसलमान हैं जो नाई हैं आदि शामिल हैं।
इस आरक्षण के दायरे से अधिकतर मुस्लिम आबादी बाहर है जो इन वर्गों की तुलना में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से बेहतर माने जाते हैं। इसमें लब्बाई मुसलमान, शेख, तुराका काशा, सैयद, मुगल, पठान या ईरानी, अरब, बोहरा या खोजा समुदायों को मुस्लिम OBC आरक्षण के दायरे से बाहर रखा गया है।
क्या इन आरक्षणों से तेलंगाना के पिछड़े मुसलमानों का उत्थान हुआ?
मुसलमानों को शिक्षा के मामले में तो काफी फायदा हुआ है, लेकिन रोजगार के क्षेत्र में उतना नहीं। ये आरक्षण शिक्षा और रोजगार क्षेत्रों में दिए गए हैं, और राज्य सरकार के क्षेत्र में बहुत अधिक भर्तियाँ आयोजित नहीं की गईं।
एक मोटे अनुमान के आधार पर, जब से मुस्लिम समुदाय के लिए ये आरक्षण शुरू किया गया था, एमबीबीएस, इंजीनियरिंग, एमसीए, एमबीए, बीएड, एमएड और अन्य व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश पाने से लगभग 20 लाख मुस्लिम छात्रों को लाभ हुआ। इन आरक्षणों की सफलता का एक कारण यह है कि राज्य सरकार इन आरक्षणों के तहत व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में सीटें पाने वाले मुसलमानों के लिए एक मुफ्त प्रतिपूर्ति योजना (Reimbursement Scheme) लेकर आई।
इनमें से कई मुसलमान बहुत गरीब थे और सरकारी कोटे के तहत सीट मिलने के बावजूद उनके पास फीस देने के लिए पैसे नहीं थे। फिर, सरकार शैक्षणिक संस्थानों को शुल्क की प्रतिपूर्ति करने की इस योजना के साथ आई, जो बदले में उन छात्रों को शुल्क की प्रतिपूर्ति करेगी जिन्होंने उन्हें भुगतान किया था। उच्च शिक्षा क्षेत्र में आरक्षण मिलने के बाद मुसलमानों का नामांकन इस प्रकार बढ़ गया।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री KCR का मुसलमानों को 12% आरक्षण का वादा
तेलंगाना राज्य के गठन के बाद मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव ने मुस्लिम समुदाय से वादा किया था कि तेलंगाना बनने के बाद उनके जनसंख्या घनत्व को ध्यान में रखते हुए आरक्षण 4 प्रतिशत से बढ़ाकर 12 प्रतिशत कर दिया जाएगा। एक विशेष राज्य विधानसभा सत्र बुलाया गया और एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि संवैधानिक संशोधन द्वारा मुस्लिम आरक्षण को 12% तक बढ़ाया जाना चाहिए। वह प्रस्ताव केंद्र को भेजा गया, जो अभी भी उस पर कायम है।
निष्कर्ष
जब आप इस आरक्षण को डिटेल से समझेंगे तो ये बात साफ़ स्पष्ट हो जाती है कि ये मुस्लिम आरक्षण धर्म पर नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन पर आधारित है। इस आरक्षण को OBC आरक्षण के अंतर्गत E श्रेणी बना कर दिया गया है जो पूर्ण रूप से संविधानिक है।
तर्क ये भी दिया जाता है कि ये आरक्षण 50 फीसदी आरक्षण की तय सीमा को तोड़ता है जबकि हकीकत तो ये है कि तमिलनाडु में आरक्षण 69 प्रतिशत है और हालिया समय में बिहार में भी आरक्षण 75 फीसदी हो चुका है। इस लिए मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए आरक्षण दिया जाना समय कि जरूरत है और मौजूदा 4% आरक्षण को बढ़ा कर 12% किया जाना चाहिए।