इस्पात उद्योग के फुट प्रिंट को कम करने के लिए कार्बन कैप्चर और स्टोरेज का सुझाव

इस्पात नीति 2017 के अनुसार, 2030-31 तक इस्पात निर्माण की क्षमता को बढ़ाकर 300 मिलियन टन करना है

Update: 2021-09-30 06:40 GMT

पीआईबी, नई दिल्ली :भारतीय इस्पात उद्योग की उत्पादन प्रक्रिया में प्रमुख रूप से ब्लास्ट फर्नेस का उपयोग किया जाता है, जिसमे धातुकर्मीय कोयले का उपयोग किया जाता है, जो कि ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन का एक प्रमुख घटक है। कार्बन डाईऑक्साईड गैस के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए कार्बन कैप्चर और स्टोरेज तथा कार्बन कैप्चर और उपयोगिता तकनीकी का प्रयोग किया जा सकता है, जिससे कि यह वायुमंडल में प्रवेश न कर सके और इसे व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य उत्पादों में परिवर्तित किया जा सके। ये बातें  फग्गन सिंह कुलस्ते, केंद्रीय इस्पात एवं ग्रामीण विकास राज्य मंत्री ने फिक्की द्वारा आयोजित किए गए वेबिनार "भारतीय खनन, धातु और सीमेंट उद्योग का भविष्य: डीकार्बोनाइजेशन, पर्यावरण प्रबंधन और सतत समाधान" में कही।

मंत्री ने कहा कि देश के औद्योगिक, सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए खनिज संसाधन सबसे महत्वपूर्ण कारक हैं। बढ़ती हुई वैश्विक आबादी और तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण धातुओं और खनिजों की मांग लगातार बढ रही है।

उन्होंने कहा कि इस्पात नीति 2017 के अनुसार, 2030-31 तक इस्पात निर्माण की क्षमता को बढ़ाकर 300 मिलियन टन करना है। राष्ट्रीय इस्पात नीति 2017 में पर्यावरण और स्थिरता पर सर्वोत्तम वैश्विक प्रथाओं का अनुपालन करने में वैश्विक स्तप पर प्रतिस्पर्धी भारतीय इस्पात उद्योग की परिकल्पना की गई है। इस्पात का उत्पादन करने के लिए ऊर्जा-कुशल व्यवहारों का उपयोग करने से न केवल उत्पादन लागत में कमी आएगी, बल्कि प्रतिस्पर्धा में भी सुधार आएगा।

मंत्री  ने बताया कि प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी द्वारा 75वे स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले के प्राचीर से नेशनल हाईड्रोजन मिशन की घोषणा की गई है। हाईड्रोजन का उपयोग इस्पात उद्योग मे कोक का विकल्प बनेगा, ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कमी लाने मे मदद मिलेगी ।

उन्होने आगे कहाँ कि प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हमारी सरकार ने 07 सितंबर 2021 को एक टास्क फोर्स तथा एक्सपर्ट कमिटी का गठन किया है, जो कोल से हाइड्रोजन उत्पादन के लिए रोडमैप तैयार करेगा। अक्षय ऊर्जा, सौर ऊर्जा और शून्य-तरल निर्वहन, शून्य-अपशिष्ट दृष्टिकोण जैसे समाधान निकट भविष्य में आदर्श बन जाएंगे, तभी हम पेरिस संधि के अंतर्गत COP भारत को उत्सर्जन संघनता 2005 के स्तर से 2030 तक अपने GDP का 30-35 प्रतिशत तक घटा सकते है।

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