उदयपुर में होने जा रहा है नई कांग्रेस का उदय?
सोनिया गांधी के भाषण से लोगों में उम्मीद पैदा हुई है। संगठन को बदलने के लिए सख्त निर्णय लेने का संकेत भी इन उम्मीदों की वजह है।
उदयपुर से क्या नयी कांग्रेस का उदय होने जा रहा है? क्या कांग्रेस नये किस्म की सियासत शुरू करने जा रही है? कांग्रेस से बाहर का कोई नेता भी क्या यूपीए का नेतृत्व कर सकता है? क्या गांधी परिवार से इतर कोई कांग्रेस की कमान संभालने को आने वाला है? क्या अब एक सुर में कांग्रेस अपनी आवाज़ बुलन्द करने जा रही है?
इन तमाम सवालों का उत्तर 'हां' सुनने के लिए लोग उदयपुर की ओर टकटकी लगाए बैठे हैं जहां कांग्रेस में चिंतन और मंथन जारी है। सोनिया गांधी के भाषण से लोगों में उम्मीद पैदा हुई है। संगठन को बदलने के लिए सख्त निर्णय लेने का संकेत भी इन उम्मीदों की वजह है।
अपनी जड़ें तलाश रही है कांग्रेस
सोनिया गांधी ने अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों पर हो रहे जुल्म को ज़ुबान देकर यह संकेत दिया है कि कांग्रेस 80-20 की सियासत से लड़ने को तैयार है और किसी भी सूरत में मजलूमों का साथ नहीं छोड़ेगी। कांग्रेस यह जोखिम लेने को कमर कस चुकी लगती है कि कहीं उसे मुस्लिम परस्त और हिन्दू विरोधी पार्टी के टैग से नत्थी न कर दिया जाए।
जिस तरह से उदयपुर को गोपाल कृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय, सुभाष चंद्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल से लेकर राजीव गांधी तक की तस्वीरों और उनके उद्धरणों से पाट दिया गया है उसका संकेत यह है कि कांग्रेस अपनी विरासत को छोड़ने वाली नहीं है। पंडित नेहरू पर बीजेपी के लगातार हमलों का जवाब देने के लिए भी कांग्रेस तैयार नज़र आती है जो सोनिया गांधी के भाषण में उभरकर सामने आया है।
सोनिया के भाषण में प्रशांत किशोर की छाप
सोनिया गांधी के भाषण में प्रशांत किशोर की छाप भी नज़र आती है। प्रशांत किशोर की राय रही है कि आज भी देश में हर तीन में से दो हिन्दू उस कट्टरपंथ की राह पर चलने को तैयार नहीं है जिस पर बीजेपी चल रही है। ऐसे में कांग्रेस को हिन्दुत्व की राह पर चलने की कोशिश छोड़ देनी चाहिए। उसे अपनी परंपरागत नीति पर ही चलना चाहिए। यह नीति है धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और शोषित समाज का विकास। नीतिगत रूप में कांग्रेस के आचरण में यह बड़ा बदलाव माना जाएगा।
उदयपुर से संकेत मिल रहे हैं कि कांग्रेस में अब एक पद पर कोई 5 साल से ज्यादा नहीं रह सकेगा। दूसरी बार उसी पद को संभालने के लिए कम से कम 3 साल का अंतर होना चाहिए। एक परिवार से दूसरे व्यक्ति को टिकट तभी मिलेगा जब वह कम से कम 5 साल तक पार्टी में काम कर चुका हो। ऐसा करके संगठन के जलाशय में पानी बदलते रहने को सुनिश्चित करने की कोशिश की गयी है। युवाओं, महिलाओं को अधिक से अधिक संगठन में भागीदार बनाने का लक्ष्य रखा गया है।
कांग्रेस को यह भी तय करना है कि वैचारिक रूप से कमजोर होने की वजह से कांग्रेस कमजोर हुई है या फिर संगठनात्मक रूप से कमजोर कांग्रेस वैचारिक रूप से भी कमजोर हो चुकी है। अगर वजह दोनों स्तर की कमजोरियां हैं तो उन्हें दूर करने का प्रयास भी दोनों स्तर पर होना चाहिए। मगर, जिस सवाल पर कांग्रेस और कांग्रेस के बाहर लोगों की निगाहें हैं वह है कि क्या कांग्रेस अपना नेतृत्व बदलने जा रही है? अगर हां, तो पार्टी अध्यक्ष कौन होगा?
कांग्रेस का नेतृत्व कौन करेगा?
अगला कांग्रेस अध्यक्ष कौन होगा- यह कांग्रेस के भीतर तय होगा। मगर, कांग्रेस अध्यक्ष गांधी परिवार से नहीं होगा यह सिर्फ और सिर्फ गांधी परिवार ही तय कर सकता है। इस बारे में कोई स्पष्ट घोषणा नहीं हुई है और न ही कोई संकेत दिए गये हैं। फिर भी यह संकेत तो दे ही दिया गया है कि अगर गांधी परिवार से भी कोई व्यक्ति कांग्रेस का अध्यक्ष बनता है तो वह सिर्फ 5 साल के लिए ही बनेगा। हालांकि मीडिया में ख़बरें इस रूप में प्रचारित की जा रही हैं कि गांधी परिवार नियमों से परे रहेगा। निस्संदेह मीडिया उसी छूट का फायदा उठा रहा है जो कांग्रेस की चुप्पी के कारण उन्हें मिलती रही है।
कांग्रेस और कांग्रेस से बाहर कई लोग ऐसा सोचते हैं कि गांधी परिवार से छुटकारा दिलाए बगैर कांग्रेस आगे नहीं बढ़ सकती। वहीं, उलट राय रखने वाले भी कम नहीं हैं जिनके मुताबिक गांधी परिवार ही कांग्रेस को एकजुट रख सकती है। वे मानते हैं कि कांग्रेस में गांधी परिवार के अलावा कोई ऐसा नेता नहीं है जो अखिल भारतीय स्तर पर भीड़ खींच सके। मगर, कांग्रेस को पुनर्जीवन देने के लिए क्या इतना काफी है?
बीजेपी को मात कैसे दे कांग्रेस
कांग्रेस का मुकाबला ऐसी पार्टी से है जो दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है, सबसे अमीर पार्टी है, जिसके साथ आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों की ताकत है। गठबंधन का नेतृत्व करने के मामले में भी बीजेपी सबसे आगे है। बीजेपी के साथ इस सम्मिलित शक्ति के सामने मजबूत राजनीतिक विकल्प बनना मुश्किल काम है और यह आकर्षक नेतृत्व और मजबूत गठबंधन के बिना नहीं हो सकता। सिर्फ गांधी परिवार कांग्रेस को एकजुट भले ही रख सकती हो, मजबूत नहीं बना सकती।
पंचमढ़ी में कांग्रेस ने बिहार, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों को छोड़कर गठबंधन ना करने और अकेले चलने का पैसला किया था। इसकी परिणति कांग्रेस के लिए चुनावी पराजय ही हुई थी। शिमला विचार मंथन में गठबंधन की राह पर चलने का फैसला कांग्रेस के लिए फलदायी साबित हुआ। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने यूपीए बनाया और 2004 से 2014 तक देश में यूपीए सरकार रही। उदयपुर में क्या कोई नया संकल्प लिया जा सकता है? यह संकल्प क्या हो?
राष्ट्रीय स्तर पर महाराष्ट्र मॉडल अपनाएगी कांग्रेस?
महाराष्ट्र में दक्षिणपंथी हिन्दूवादी शिवसेना के नेतृत्व को कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया। क्या गठबंधन की सियासत में इस लोचदार रुख का प्रदर्शन कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भी करेगी? अगर इस किस्म का संकल्प कांग्रेस लेती है और यह एलान कर पाती है कि देश के लिए वह किसी के साथ भी अछूत जैसा व्यवहार नहीं करेगी तो राष्ट्रीय राजनीति में महाराष्ट्र का मॉडल कांग्रेस तैयार कर सकती है। इससे यूपीए के विस्तार के लिए भी नयी संभावना पैदा होगी।
सौ साल पहले लगभग इसी समय असहयोग आंदोलन ने अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा दी थी। क्या कांग्रेस अपने अतीत से कोई सूत्र या कोई मंत्र हासिल कर वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में विकल्प बनने की राह तलाश सकती है- इस पर सबकी नज़र है। उदयपुर की ओर इसी उम्मीद से लोग टकटकी लगाए बैठे हैं।
प्रेम कुमार, वरिष्ठ पत्रकार