कांग्रेस की हकीकत: परिवार मुक्त होते ही कई टुकड़ों में बिखर जाएगी कांग्रेस
मगर अच्छे और जरूरी काम अभी बहुत हैं। इनमें सबसे पहला है राहुल का अध्यक्ष पद संभालना!
शकील अख्तर
कमजोर की समस्याओं का कोई अंत नहीं होता! उसे हर कोई सलाह देने आ जाता है। कांग्रेस का हाल भी इन दिनों ऐसा ही है। दूबरे और दो असाढ़! कमजोर और फिर कन्फ्यूज्ड! राम गुहा ने इतिहास के माध्यम से उपदेशों की बारीश की थी तो कांग्रेस के 23 नेताओं ने लेटर वारियर्स बन कर मोर्चा खोल दिया।
राम गुहा वही समकालीन इतिहासकार हैं जो नीतीश कुमार का राजनीतिक इतिहास पढ़ने में पूरी तरह नाकामयाब साबित हुए थे और जिन्होंने नीतीश को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की महान सलाह दी थी। और नीतीश वे हैं जिन्होंने 2015 में लालू यादव और कांग्रेस के चक्कर पर चक्कर काटकर खुद को महागठबंघन में शामिल करवाया था। और फिर मुख्यमंत्री बनकर भाजपा के साथ चले गए।
वही नीतीश जिनकी संवेदना तब नहीं जागी जब उनके राज्य के लाखों मजदूरों को सैंकड़ों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा। मगर एक आत्महत्या के मामले में उन्हें इतनी चिन्ता हुई कि उन्होंने अपनी पुलिस मुंबई पहुंचा दी। मामले के सीबीआई जांच करवा ली। मगर तब कभी कुछ नहीं किया जब मुंबई में बिहारी मजदूर पीटा जाता था। उसका रोज अपमान होता था। तो उन नीतीश को गुहा साब कांग्रेस अध्यक्ष बना रहे थे। नान मेम्बर पार्टी प्रेसिडेंट। क्योंकि नीतीश तो कांग्रेस में थे नहीं। मगर फिर भी उन पर ऐसा लाड़ उमड़ा कि उन्हें गोद लेकर मालिक घोषित करने की सलाह दे डाली। मगर इसमें दोष राम गुहा का नहीं। न ही उन अंग्रेजी पत्रकारों का है जो सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया तक को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की सलाह दे चुके हैं।
गलती कांग्रेस की और उसकी निर्णय न ले पाने की कमजोरी की है जो एक साल से ज्यादा हो जाने के बाद भी अपने अध्यक्ष पद पर कोई फैसला नहीं ले सकी। इसी का फायदा उठाकर मीडिया में प्रियंका गांधी का वह एक साल पुराना बयान भी ताजा बताकर चलाया जा रहा है जिसमें वे राहुल के इस्तीफा देने के बाद राहुल की भावनाओं के अनुरूप गांधी परिवार के बाहर के अध्यक्ष की बात कर रही हैं।
बाहर के अध्यक्ष के लिए क्या कांग्रेस के नेताओं ने कम कोशिशें कीं? एक साल पहले सोनिया गांधी को दोबारा बनाने से पहले कांग्रेस ने परिवार के बाहर का अध्यक्ष बनाने के लिए बहुत योजनाएं बनाईं। कई समीकरण बिठाने की कोशिशें कीं। मगर सफल नहीं हुए! और मान लीजिए कि अगर कहीं कामयाब हो जाते तो आज कितनी कांग्रेसें होतीं? सिंधिया को भाजपा में जाने की जरूरत नहीं पड़ती। सिंधिया कांग्रेस बनाकर वे भाजपा पर ज्यादा दबाव बनाने की स्थिति में होते। सचिन पायलट को इस तरह भाजपा से बेइज्जत नहीं होना पड़ता। एक पायलट कांग्रेस बनाकर वे भाजपा के साथ कांग्रेस को भी ज्यादा परेशान कर सकते थे। इसी तरह पंजाब, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र जहां सरकार में कांग्रेस है कई ब्रान्चें बन गई होतीं।
प्रधानमंत्री मोदी ने जिस कांग्रेस मुक्त भारत की बात की थी वह परिवार मुक्त होकर उस राह पर तेजी से दौड़ रही होती। दरअसल भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत से अभिप्राय भी यही होता है कि परिवार मुक्त कांग्रेस। गांधी नेहरू परिवार कांग्रेस के नेताओं की इसलिए मजबूरी बन जाता है कि वह और चाहे कुछ करे या न करे मगर पार्टी को एक रखने की गारंटी तो है। सोचिए कि एंटोनी, चिदंबरम, अशोक गहलोत, अहमद पटेल, कमलनाथ, अमरिन्द्र सिंह, गुलामनबी आजाद, दिग्विजय सिंह, भूपेन्द्र सिंह हुडा जैसे सीनियर नेता क्या परिवार के बाहर के किसी को अपना नेता स्वीकार कर पाएंगें।
अगर मान लिया कि यह वरिष्ठ किसी तरह एकमत भी हो गए तो अजय माकन, भुपेश बघेल, रणदीप सुरजेवाला, अधीररंजन चौधरी जैसे नेता जिनके सामने अभी उनका पूरा राजनीतिक जीवन पड़ा हुआ है क्या परिवार के बाहर के नेतृत्व में अपने भविष्य का कोई खाका खींच पाएंगे?
दरअसल कांग्रेस की समस्या यह है कि वह कुछ सीखती नहीं। सिंधिया के बाद पायलट कांड हुआ। मगर कांग्रेस ने क्या सीखा?
पार्टी का नेतृत्व कमजोर है उसके पास लोगों की परख की कोई कसौटी नहीं है, वह लंबी योजना के साथ नहीं चलकर एडहाकिज्म (तदर्थवाद) पर चल रहा है और क्रिकेट की भाषा में टेस्ट मेच, ट्वंटी – ट्वंटी की स्टाइल में खेल रहा है। हर नेता खुद को पार्टी में सबसे महत्वपूर्ण समझता है और जब चाहे बगावत की धमकी देने लगता है। और फिर सब अस्तव्यस्त करके कहता है रात गई बात गई। उसे कोई बताएगा कि यह एक रात की बात नहीं एक महीने का तनाव झेलने, अनिश्चितता में जीने का बेवजह का कष्ट था।
मगर कांग्रेस में लोग खुश हैं कि पायलट की वापसी राहुल की नेतृत्व क्षमता का नतीजा है। ठीक है मीडिया से कहने के लिए, भोले कार्यकर्ताओं का हौसला बड़ाने के लिए यह कहानी अच्छी है। मगर पार्टी के दीर्घ हित के लिए इस घर वापसी का कोई फायदा नहीं है। बगावत के लिए दूसरे नेता जो पर तौल रहे थे क्या इस ससम्मान वापसी से उनकी हिम्मत और नहीं बड़ेगी? क्या यह संदेश नहीं जाएगा कि अपने स्वार्थ के लिए कहीं भी जाओ वापसी के दरवाजे कभी बंद नहीं होंगे! क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया यह नहीं जानते कि जिस दिन वे चाहेंगे, कांग्रेस में ससम्मान वापस आ सकते हैं? अगर थोड़ा लाड़ प्यार दिखा देंगे तो कांग्रेस के बड़े नेता दरवाजे पर स्वागत करने भी खड़े हो जाएंगे। इस रवैये से कांग्रेस को कोई फायदा होने वाला नहीं है।
इतिहास गवाह है कि जरूरत से ज्यादा नरम रवैये ने कांग्रेस को बहुत नुकसान पहुंचाया है। राजीव गांधी के समय से ही इसकी शुरूआत हो गई थी। राजीव ने सबसे ज्यादा जिन वीपी सिंह, अरूण नेहरू पर विश्वास किया उन्होंने ही धोखा दिया। और जिन जितेन्द्र प्रसाद, राजेश पायलट को आगे बढ़ाया उन्होंने राजीव के न रहने पर उनकी पत्नी सोनिया गांधी के साथ धोखा किया। 20 साल पहले सन 2000 में सोनिया गांधी जब कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ रही थीं तो जितेन्द्र प्रसाद उनके खिलाफ उम्मीदवार थे और राजेश पायलट उनके मुख्य समर्थक। लेकिन सोनिया ने भी नरम और उदार रूख अपनाया और जितेन्द्र प्रसाद और राजेश पायलट के न रहने के बाद उनकी पत्नियों कांता प्रसाद और रमा पायलट को लोकसभा का चुनाव लड़वाया। फिर दोनों के बेटों जितिन और सचिन को लोकसभा लड़वाया और मंत्री बनाया। नतीजा क्या हुआ? जितिन ने पिछले साल लोकसभा चुनाव के समय भाजपा से पींगे बढ़ाने की कोशिश की और अभी सचिन ने।
राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का सचिन को माफ करना अच्छा है। लेकिन अगर दोनों को राजनीति में कुछ व्यावाहरिक करना है तो आदर्शवाद, उदारता, माफ करो की नीतियों पर पुनर्विचार करना होगा। राजनीति निष्ठुर चीज है। राहुल और प्रियंका अपने पिता के निकट सहयोगियों के विश्वासघात और मां सोनिया ने जिन्हें बढ़ाया उनका पिछले 6 साल में बदला हुआ रवैया देख चुके हैं। राजनीति में आदर्शवाद और व्यवाहरिकता का संतुलन होना चाहिए।
अभी कितना बड़ा खतरा आया था! एक महीने में सब उथल पुथल हो गया। क्यों? अगर सख्ती से यह सवाल सचिन से नहीं पूछा गया तो इसका मैसेज अच्छा नहीं जाएगा। राजस्थान में इतने छापे क्यों पड़े? जिन्हें इन छापों का सामना करना पड़ा उसका जिम्मेदार कौन है? राजस्थान में फिलहाल मामला टल गया। मगर स्वास्थ्य को लेकर जो इतना बड़ा खतरा पैदा किया उसका जिम्मेदार कौन?
बीजेपी की तरफ से राजस्थान में जो सक्रिय थे उन केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत की कोरोना टेस्ट की रिपोर्ट पाजिटिव आई है। कोरोना महामारी के समय ही ये सिंधिया ने किया और क्या परिणाम निकले? कहने की बात नहीं है। अच्छा नहीं लगता मगर मध्य प्रदेश की चलती हुई सरकार को गिराना कितना मंहगा पड़ा! कहने को यह सही है कि कोरोना किसी को भी कहीं भी हो सकता है। मगर मार्च से चली बेमतलब की राजनीतिक हलचल ने मध्य प्रदेश में कितना भारी नुकसान किया? राजभवन में दिन रात तेज गतिविधियां चलीं। अफसर, कर्मचारियों के संक्रमित होने के बाद राजभवन सील करना पड़ा। राज्यपाल लालजी टंडन लखनऊ चले गए। वहां लंबा इलाज चला लेकिन नहीं बचाया जा सका। आज कोई राज्यपाल नहीं है। खुद सिंधिया से लेकर उनके उनके खास मंत्री तुलसी सिलावट, मुख्यमंत्री शिवराज और भी कई मंत्री, अफसर मुसीबत में पड़े। शिवराज ने तो माना कि लापरवाही हुई। भोपाल और इन्दौर भी संक्रमण के लिहाज से सबसे खतरनाक शहरों में हैं। पूरा देश कहता है कि लाकडाउन में देरी मध्य प्रदेश में सिंधिया के दलबदल के कारण लेट करना पड़ी।
ऐसा ही सचिन पायलट ने किया। राजस्थान में कोरोना पूरी तरह काबू में था। शुक्र है कि इतनी अस्थिरता पैदा करने के बाद भी कंट्रोल में है। वहां भी चलती हुई सरकार के कुछ विधायक लेकर सचिन राजस्थान से बाहर चले गए। एक महीने तक ये विधायक यहां से वहां होटल बदलते रहे। कितना बड़ा रिस्क उठाया! फिर इन विधायकों को लेकर सचिन प्रियंका से मिले। बिना सोशल डिस्टेंसिंग के बिना मास्क के इन विधायकों को लाने की क्या जरूरत थी?
इससे पहले सचिन खुद राहुल से मिलने पहुंचे। उधर कांग्रेस के दूसरे विधायकों को राजभवन जाना पड़ा। विधानसभा का सत्र हुआ। अन्य जगह एकत्रित होना पड़ा। और तो और भाजपा के विधायकों को भी राजस्थान से हटाया गया। महामारी के समय यह सब क्यों? ये खतरे किसने पैदा किए? क्या राहुल और प्रियंका को सचिन से ये सवाल नहीं पूछना चाहिए? दो सौ विधायकों की जान खतरे में डालकर सचिन अपने मान सम्मान की बात कर रहे हैं! मान सम्मान तो बनाए रखा वसुंधरा राजे ने। किसी भी भ्रम में नहीं पड़ी। पहले दिन से जानती थीं कि सचिन के साथ आए विधायक ज्यादा समय तक उनके साथ नहीं रहेंगे। और वहीं हुआ। अधीर विधायकों के वापस चले जाने के डर से सचिन भी वापस चले आए।
खैर राजस्थान में कांग्रेस ने एक काम अच्छा किया कि वहां की समस्या को निपटाने में बड़ी भूमिका निभाने वाले अजय माकन को वहां का महासिचव इंचार्ज बना दिया। मगर अच्छे और जरूरी काम अभी बहुत हैं। इनमें सबसे पहला है राहुल का अध्यक्ष पद संभालना!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है