अब एक ही इच्छा है कि आखिरी रुखसत किसी की परेशानी का सबब ना बने
डाक्टरों का आभा मंडल भी छीन लिया
शकील अख्तर
क्या इतनी खराब स्थिति की कल्पना कभी किसी ने की थी? एक साल पहले इन्हीं दिनों लग रहा था कि हालत बहुत खराब है। मगर इस बार तो जिसे कहते हैं, बद से बदतर है। नियंत्रण से बाहर! सब तरफ कोरोना का आतंक और बेबसी फैली हुई है। पिछले साल सरकार दिख रही थी। जो भी था, करती दिख रही थी।
प्रधानमंत्री मोदी टीवी पर आते थे। राष्ट्र के नाम संदेश देते थे। अब तो लगता है सबको उपर वाले के भरोसे छोड़ दिया है। एक साल से ज्यादा हो गया। क्या किया? अब तो ये पूछना भी बेमानी है। सरकारी अस्पतालों में कोई सुधार होना तो दूर की बात वहां व्यवस्थाएं और कमजोर हो गई हैं। और हो भी क्यों नहीं? जब मंत्री, मुख्यमंत्री तक बड़े प्राइवेट अस्पतालों में जाकर भर्ती हों, कोरोना का इलाज करवाएं और अस्पतालों और वहां के डाक्टरों की तारीफों के पुल बांधते हुए बाहर आएं तो सरकारी अस्पतालों की स्थिति तो गिरेगी ही। प्राइवेट अस्पतालों का ऐसा प्रचार इससे पहले कभी नहीं हुआ था। गरीब तो प्राइवेट अस्पतालों तक जा नहीं सकता मगर झांसे में मध्यमवर्गीय आ गया। और वहां वैसा इलाज और सुविधाएं मिलना तो दूर की बात बिल जरूर ऐसा मिला कि सारी जमापूंजी स्वाहा हो गई और कर्ज अलग से लेना पड़ा। बड़े, नामी प्राइवेट अस्पताओं में जाकर भी कई लोग नहीं रहे। उनके घर वाले आरोप लगाते रहे कि हमारे पेशेंट को ठीक से कोई देखने भी नहीं आता था। और पैसा लिया लाखों रुपया। प्राइवेट अस्पतालों में वीआईपी और सामान्य लोगों के बीच इस बार जैसा फर्क देखा गया वैसा पहले कभी नहीं था। और न ही पैसों की ऐसी लूट। कहते हैं अब नेता लोग प्राइवेट अस्पतालों में इनवेस्ट कर रहे हैं। पिछले कुछ सालो में सरकारी अस्पताल तो एक नहीं बना मगर प्राइवेटों की लाइन लग गई।
नतीजा क्या हुआ? पहले जहां बड़े बड़े अस्पतालों में निर्णय लेने का काम, शक्ति का केन्द्र डाक्टर हुआ करता था वहां अब अस्पतालों के मालिक हो गए। डाक्टर एक सामान्य कर्मी में बदल गया। नोबल प्रोफेशन एक मामूली मगर मोटी तनखा वाली नौकरी में बदल गया। नौकरी का स्वरूप बदलने के साथ उसका चरित्र भी बदल गया। अब डाक्टर स्वतंत्र चेता नहीं रहा। इसका सबसे नुकसानदेह उदाहरण हमने तब देखा जब पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी ने ताली थाली बजाने को कहा और डाक्टरों ने सरकार को सचेत करने के बदले यह बताना शुरू कर दिया कि सामूहिक ध्वनि किस तरह कोरोना वायरस मार डालेगी। इसके कुछ दिन बाद ही दिया बाती करने को कहा तो प्रकाश से कोरोना को भगाने की थ्योरी बताना पड़ी। जब कहा कि आकाश से पुष्पवर्षा होगी तो सबसे शर्मनाक और अंधविश्वासी दृश्य देखना पड़ा। डाक्टर काम छोड़कर अस्पतालों के बाहर खड़े हो गए।
फूलों को अपने उपर गिरने देने के लिए। डाक्टरों के तमाम संगठन, व्यक्तिगत रूप से बड़े डाक्टर सब इस नौटंकी से बहुत व्यथित थे मगर ऐसा आतंक की कोई बोल नहीं पाया। भारत जहां हमेशा से सबसे प्रतिष्ठित पेशा डाक्टरी माना जाता हो वहां पहली बार डाक्टर मजाक की चीज बन गए। हमारे समाज में किसी बच्चे का मेडिकल कालेज में एडमिशन हो जाना ही उस परिवार का सामाजिक रुतबा बढ़ जाना माना जाता है। हमारे यहां जो सामाजिक जड़ता है, जो सामाजिक ऊंच नीच किसी तरह नहीं टूटती वह एक मेडिकल कालेज के एडमिशन से दरकने लगती है। उस प्रोफेशन की सारी नैतिक, आभामंडल वाली, मददगारी भूमिका को नैपथ्य में धकेल दिया गया।
यह सब अनायास नहीं हुआ। हमें वह दिन भी याद हैं, जब डाक्टर तांगे से घर देखने आते थे तो घर के बुजुर्ग चाहे वही बीमार क्यों न हो परिवार के प्रमुख व्यक्ति से कहते थे कि बाहर खड़े रहिए। डाक्टर साहब का बेग खुद लेकर आना। अंदर सलाम जाता था। सलाम के जवाब के साथ तश्तरी में पान आता था। मरीज देखने के बाद डाक्टर साहब के हाथ धुलवाए जाते थे। फीस चुपचाप उनकी जेब में डालने की कोशिश की जाती थी। असफल कोशिश। इस बीच बाहर तांगे वाले को चाय नाश्ता करवा कर उसके किराए से काफी ज्यादा पैसे दिए जा चुके होते थे। ये होता था डाक्टरों का जलवा। समाज में उस समय उनसे प्रतिष्ठित शायद ही कोई व्यक्ति होता हो। पुराना जमाना था राजाओं के खिताब बाकी थे।
प्रिविपर्स और प्रिवलेज के जमाना था मगर उस समय महराज भी कई बार मजाक के विषय बनते थे। उनसे भी हंसी मजाक में हमने सीमाएं टूटती देखी हैं। मजाक डाक्टर साहब के साथ भी होता था। मगर मन से जो उनका सम्मान हमने देखा वह व्यक्ति का तो था ही मगर सबसे ज्यादा डाक्टरी पेशे का था। जिसे आम भाषा में कहते थे कि डाक्टर तो देवता होते हैं। उस दर्जे को एक नौकरी पेशा में बदलना बहुत गलत हुआ। वाजपेयी सरकार की बात है। मुरली मनोहर जोशी एक बड़े प्राइवेट अस्पताल का उद्घाटन कर रहे थे। ऐसा भाषण दिया जैसे देश में क्रान्ति हो गई हो। चिकित्सा के निजिकरण के ऐसा महिमागान जैसे अब तक देश में सारे रोग और व्याधियां इसलिए थीं क्योंकि मेडिकल में सरकारी क्षेत्र को प्राथमिकता दी गई थी। अब प्राइवेट अस्पताल आ गए सारी भीड़ और बदइंतजामी खत्म हो जाएगी। उन दिनों थोड़ा लिखा जा सकता था तो हमने लिखा था कि सरकार गरीबों के मुफ्त और सस्ते इलाज को प्राइवेट हाथों में देकर उसे मंहगा और सामान्य जनता से दूर ले जा रही है। आज वह हो गया। बिना सिफारिश के किसी को अस्पताल में बेड नहीं मिल रहा है। और सिफारिश बहुत ऊंची। बेड मिल रहा है तो वेंटिलेटर वाला नहीं। डाक्टर लिख कर जा रहे हैं रेमडेसिवर का इंजेक्शन। सारी सिफारिशें फेल है, कहीं इंजेक्शन नहीं। मध्य प्रदेश में एक आदमी पकड़ा गया जिसने आपदा को अवसर वनाते हुए नकली इंजेक्शन बेचना शुरू कर दिए थे। भोपाल के सबसे बड़े अस्पताल हमीदिया में बताया गया कि इंजेक्शन आए थे मगर चोरी हो गए। आक्सिजन का तो हाल ही बुरा है। कोई बड़ा सिफारिशी आ रहा है तो एक मरीज की नाक से खींचकर उसे लगा दिया। जिसकी आक्सिजन निकाली थी वह एक एक सांस के लिए तड़प तड़प कर मरा। कहा जा रहा है कि वार्ड ब्वाय ने नली खींच ली। क्या बिना उपर के आदेश के कोई वार्ड ब्वाय यह कर सकता है? कभी नहीं! लेकिन इल्जाम नर्स, सफाईवाले, वार्ड ब्वाय, मरीजों के परिजनों पर रखा जा रहा है। अव्यवस्थाएं उपर से हैं।
सरकार और प्रशासन स्तर से। मगर दोष जनता से लेकर छोटे कर्मचारियों पर डाला जा रहा है जो चौबीस चौबीस घंटे बिना किसी सुरक्षा उपकरणों के काम कर रहे हैं। ऐसे ही वैटिलेटरों का हाल है। एक साल से ज्यादा हो गया मगर इन व्यवस्थाओं पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अगर किसी ने कुछ कहने की हिम्मत की तो उसे देशद्रोही और विदेशों के लिए काम करने वाला बता दिया गया। अभी वैक्सिनेशन का उत्सव मनाया जा रहा था मगर वैक्सिनेशन नहीं था। राहुल ने सवाल उठाया तो उसे विदेशी कंपनियों के लिए काम करने वाला घोषित कर दिया गया। हालांकि बाद में वही विदेशी वैक्सिनेशन को अनुमति दी गई।
और अब तो हालत अस्पताल से निकलकर श्मशान तक पहुंच गई। किस ने सोचा था कि लाश जलवाने के लिए भी कोई मदद मांगेगा! लकड़ी के इंतजाम के लिए कहेगा! सार्वजनिक जीवन में रहने वाले हर व्यक्ति से जिनमें हम जैसे सामान्य पत्रकार भी शामिल हैं लोग कई तरह की उम्मीदें करते हैं। कई बार काम होते भी थे। डाक्टरों की हड़ताल के बीच आपरेशन भी हो जाते थे। ये वो पुराने दिन थे, करीब 40 - 45 साल पहले जब डाक्टर बहुत बड़ी ताकत हुआ करते थे। मेडिकल कालेजों की हड़ताल सबसे पुख्ता हुआ करती थी। ये अख़बार (मीडिया) आज चाहे जो छाप देते हैं, दिखा देते हैं उस समय एक शब्द भी गलत नहीं लिख सकते थे। ऐसी हड़तालों में मेडिकल कालेज यूनियन के नेता चमत्कारों जैसे काम करते थे।
अगर इमरजेंसी है तो बड़े बड़े डाक्टर को ले आते थे। और क्या मजाल कि कोई छाप दे कि हड़ताल में ये काम भी हो रहे हैं। मगर वह सब बातें पुरानी हो गईं। अब तो पिछले साल लोगों को अस्पताल में भर्ती नहीं करवा पाए और इस साल लकड़ी नहीं दिलवा पाए। 15 – 15 घंटे की वेटिंग। और जब नंबर आया तो कहा लक्कड़ लाए हो? ऐसी बेबसी, लाचारी कुछ नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री मोदी ने श्मशान, कब्रिस्तान की तुलना की थी। 2017 के यूपी चुनाव जीतने के लिए। अब पूरा देश श्मशान और कब्रिस्तान बन गया। दोनों में कोई फर्क नहीं है। लाशों का ढेर लगा हुआ है। सब मर रहे हैं। हर घर पर मौत का साया है और किसी को नहीं मालूम कि कैसे बचना है। बस दो दुआएं मांगी जा रही हैं, प्रार्थनाएं हो रही हैं कि घर के किसी सदस्य को अस्पताल में भर्ती करवाने की नौबत न आए। किस से मदद मांगेंगे! और दूसरी यह कि अगर कुछ अनहोनी हो जाए तो इज्जत से उसकी आखिरी रुखसत, अंतिम क्रियाकर्म हो जाए!